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पश्चिम बंगाल में लेफ्ट-कांग्रेस का गठबंधन, अस्तित्व की जंग

जानकारों का कहना है कि कांग्रेस और लेफ्ट के लिए ये चुनाव राज्य में अपना अस्तित्व बचाने का होगा

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साल 2019 लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में कुछ ऐसा हुआ जो 10 साल पहले किसी ने सोचा भी नहीं होगा. सपीआई (एम) के नेतृत्व वाे लेफ्ट को एक भी सीट हासिल नहीं हुई. यहां तक कि सिर्फ एक सीट (जादवपुर लोकसभा सीट) को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर लेफ्ट जमानत भी नहीं बचा पाया. जबकि सहयोगी दल कांग्रेस ने थोड़ा बेहतर प्रदर्शन करते हुए 2 सीटों पर जीत हासिल की.

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अब अगले करीब 6 महीने में होने जा रहे पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के लिए फिर से कांग्रेस और लेफ्ट ने हाथ मिलाया है. जानकारों का मानना है कि इन चुनावों में इस गठबंधन के लिए सिर्फ जीत ही मायने नहीं रखती है, बल्कि राज्य में अपने अस्तित्व को बचाए रखना भी एक बड़ी चुनौती होगा. यानी अगर विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस और लेफ्ट का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहता है तो राज्य में उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.

बड़ा दुश्मन कौन? मोदी या ममता?

अब कांग्रेस और लेफ्ट के लिए पहली चुनौती ये होगी वो खुद को प्रमुख विपक्षी पार्टी बनाए रख पाती है या नहीं. पिछले विधानसभा चुनाव से लेकर अब तक तस्वीर काफी बदल चुकी है. पिछले चुनाव में बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में सिर्फ 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी. लेकिन अब बीजेपी ममता बनर्जी की टीएमसी के सामने सबसे बड़ी दावेदार के रूप में खड़ी है.

अब चुनावी तौर पर कांग्रेस और लेफ्ट के सामने असली दुविधा ये है कि उन्हें टीएमसी और बीजेपी को अपने असली टारगेट के तौर पर देखना है या नहीं.

सीपीआई (एम) नेता शत्रुप घोष ने इस बारे में कहा, "बिल्कुल, बीजेपी हमारी मुख्य विपक्षी पार्टी है, न सिर्फ पश्चिम बंगाल में बल्कि पूरे देश में. वो राजनीतिक और वैचारिक तौर पर हमसे बिल्कुल उलट हैं. लेकिन दूसरी तरफ हम ममता बनर्जी को भी मौका नहीं देंगे. टीएमसी का जाना जरूरी है, लेकिन बीजेपी उसे रिप्लेस नहीं कर सकती है. यही हमारा स्टैंड है."

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2019 लोकसभा चुनावों में लेफ्ट के ज्यादातर वोट्स बीजेपी को शिफ्ट हुए. साल 2014 के लोकसभा चुनाव से बीजेपी ने 2019 में 1.5 करोड़ ज्यादा वोट हासिल किए. शत्रुप ने इस पर कहा कि, इन वोटों में से करीब 1 करोड़ वोट लेफ्ट वोटर्स के थे. लेकिन बाकी के वोट टीएमसी के खाते से गए थे. इसीलिए बीजेपी की सफलता के लिए लेफ्ट अकेले जिम्मेदार नहीं है.

लेकिन क्या उन्होंने पता लगाया कि आखिर ये वोट शिफ्ट क्यों हुए?

लेफ्ट का कहना है कि साल 2011 के बाद और खासतौर पर 2016 के बाद टीएमसी की लेफ्ट काडर पर हिंसा जिलास्तर पर बढ़ गई. शत्रुप ने कहा- "हमारी रैलियों में हिंसा करवाई गई, हमारी बैठकों में और यहां तक कि हमारे कार्यालयों को छीन लिया गया." उन्होंने आगे कहा,

“इस हालत में हम पूरी ताकत से काम नहीं कर सकते थे. क्योंकि विपक्ष की जगह लगभग शून्य थी. उसी वक्त बीजेपी आई और कहा कि वो केंद्र सरकार में हैं और उनके पास सीबीआई, ईडी और अन्य मशीनरी हैं. जो टीएमसी से लड़ने में मदद कर सकती है, जो लेफ्ट नहीं कर सकता है. जो लोग टीएमसी के खिलाफ वोट करना चाहते थे उनका वोट सीधा बीजेपी को गया.”
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शासन बनाम ध्रुवीकरण

गठबंधन का कहना है कि उनका चुनाव अभियान गवर्नेंस-केंद्रित मुद्दों पर आधारित होगा. वे किसानों के अधिकारों और न्यूनतम मजदूरी (मिनिमम वेज) के मुद्दों को अपने अहम चुनावी मुद्दों के रूप में उठाना चाहते हैं. लेकिन बीजेपी और टीएमसी दोनों धार्मिक कार्ड खेल रहे हैं, क्या इस तरह के अभियान से मतदाताओं के बीच जगह बना पाएगी?

राजनीतिक विश्लेषक बिस्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, “वाम-कांग्रेस के साथ समस्या यह है कि वे अभी भी ओल्ड स्कूल पॉलिटिक्स में फंसे हुए हैं. वे अभी भी मजदूर वर्ग, और पूंजीपति और संघर्ष करने जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं. इन बातों को कौन सुनता है? खासकर जब ध्रुवीकरण ही असल खेल हो."

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बिस्वनाथ आगे कहते हैं, “आगर वाम-कांग्रेस इस तरह के अभियान के साथ आगे बढ़ती है, तो वे अपने हिंदू और मुस्लिम दोनों वोटों को खो देंगे क्योंकि वो दोनों ही ग्रुप के लिए पहली पसंद नहीं होंगे. ऐसे हालत में वे बीजेपी और टीएमसी दोनों को ही नुकसान पहुंचाएंगे. हालांकि, गठबंधन के लिए, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सामने एक गवर्नेंस सेंट्रिक नैरेटिव को गढ़ने को मजबूर करना ही मकसद होगा. शतरूप कहते हैं,

“यही हमारी चुनौती है. वे ध्रुवीकरण करने की कोशिश करेंगे. वे इस अभियान को सांप्रदायिक राजनीति बताने की कोशिश करेंगे. लेकिन हम नौकरियों, न्यूनतम वेतन जैसे जमीनी मुद्दों पर ध्यान वापस लाने की कोशिश करेंगे.”
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इस संदर्भ में देखें तो, बिहार चुनाव ने गठबंधन की उम्मीद जगाई है. चुनाव के चार महीने पहले, हर कोई कह रहा था कि बीजेपी राम मंदिर और धार्मिक कार्ड के आधार पर चुनाव लड़ेगी. लेकिन चुनावों की शुरुआत में ही तेजस्वी यादव और महागठबंधन ने गवर्नेंस पर ध्यान केंद्रित किया. भले ही उनकी जीत नहीं हुई, लेकिन यह सच है कि एक कड़ा मुकाबला जरूर हुआ, इसका मतलब है कि लोग अभी भी उन मुद्दों की परवाह करते हैं जो उन्हें सीधे प्रभावित करते हैं.

” बिहार चुनाव से एक सीख के तौर पर देखें तो, जहां वामपंथियों ने कांग्रेस की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया, क्या अब बंगाल चुनाव में सीनियर अलायंस पार्टनर के रूप में बात रखी जाएगी? अब तक, दोनों दलों का कहना है कि सीट बंटवारे "सीट-दर-सीट" के आधार पर तय किया जाएगा. शतरूप कहते हैं, "लेकिन यह एक फैक्ट है कि हमारे पास कांग्रेस से ज्यादा वोट शेयर है."

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गठबंधन की अगुवाई कौन करेगा? लेफ्ट या कांग्रेस?

इस गठबंधन की एक और समस्या यह है कि, बीजेपी की तरह, शायद इसके पास भी चुनाव में आगे रखने के लिए मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार न हो. लेफ्ट और कांग्रेस, दोनों में कई दिग्गज नेता हैं, लेकिन ममता को अच्छी टक्कर देने के लिए इनमें से कौन गठबंधन का चेहरा बनाया जा सकता है?

इस बारे में चक्रवर्ती ने कहा,

‘’मुझे लगता है कि गठबंधन को नेतृत्व के लिए अधीर रंजन चौधरी जैसे राष्ट्रीय और करिश्माई चेहरे की जरूरत है. उनकी युवाओं के बीच में पकड़ है, वह जमीनी स्तर के नेता हैं. ये वो चीजें हैं, जिनकी सूर्य कांत मिश्रा और बिमान बोस जैसे लेफ्ट के नेताओं में कमी है. वे शायद सीएम का चेहरा घोषित नहीं करेंगे, लेकिन अगर वे करते हैं, और अगर वे अधीर को आगे करते हैं, तो इससे निश्चित रूप से उनके अभियान को गति मिलेगी.’’

बंगाल में लेफ्ट को लेकर एक और बात कही जा रही है कि उसके पास युवा चेहरों की कमी है. बिहार की तरह, क्या बंगाल में भी लेफ्ट के लिए युवा और विश्वसनीय नेताओं को आगे बढ़ाने का समय है?

34 साल के शतरूप लेफ्ट में राज्य के सबसे युवा नेताओं में से एक हैं, जिन्होंने अपना पहला चुनाव 25 साल की उम्र में 2011 में लड़ा था. ज्यादातर लेफ्ट नेताओं की तरह वह भी स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के जरिए सीपीएम में आए. हालांकि, उनका कहना है कि लेफ्ट कई सालों से युवा नेताओं को जगह देने की कोशिश कर रहा है.

लेकिन मिश्रा और बोस जैसे नेता अभी भी पार्टी का चेहरा क्यों हैं? बंगाल लेफ्ट के कन्हैया कुमार कहां हैं?

इसे लेकर शतरूप ने कहा, ''बंगाल में युवा नेता हैं जो कन्हैया की तरह लोकप्रिय हैं. यह तथ्य कि हमारे पास युवा चेहरे नहीं हैं, काफी हद तक एक धारणा है.''

इसके आगे उन्होंने कहा, ''यह सिर्फ इतना ही है कि टीएमसी के लोगों के विपरीत, लेफ्ट नेता अपने बालों को डाई नहीं करते हैं!''

2016 के चुनावों में, हालांकि, लेफ्ट के पास केवल तीन उम्मीदवार थे, जो 40 साल से कम उम्र के थे. शतरूप उनमें से एक थे.

बहुत से लोग इस गठबंधन से चुनाव जीतने की उम्मीद नहीं कर रहे. हालांकि, उसकी कोशिश होगी कि वो 2019 के लोकसभा चुनाव में लगे झटके से उबर सके.

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