इतिहास को लेकर किए जाने वाले भ्रामक दावे अब सिर्फ फेक न्यूज की समस्या का एक हिस्सा नहीं बल्कि मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स का टूल बनते दिख रहे हैं. मुगल हों या फिर पृथ्वीराज चौहान, मराठा हों या फिर विजयनगर साम्राज्य – किसी साम्राज्य को एक धर्म का दुश्मन तो किसी राजा का महिमामंडन करते ऐसे फॉरवर्ड मैसेजेस की सोशल मीडिया पर भरमार है जिनका तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं है.
जानबूझकर बार- बार उन ऐतिहासिक रेफरेंस का इस्तेमाल किया जाता है, जिनसे ये नैरेटिव बनाया जा सके कि हमेशा से हिंदुओं का अत्याचार हुआ है. ट्विटर पर इसी नैरेटिव को बढ़ावा देते हैशटेग्स की लगातार बढ़ रही संख्या से ये अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि कैसे हिंदुओं को खतरे में दिखाने की पुरजोर कोशिश हो रही है.
Getdaystrends के मुताबिक भारत में #HindusUnderAttackInIndia के साथ लगभग 1.97 लाख ट्वीट हुए हैं, 5 और 12 जून, 2022 को ये हैशटेग सबसे ज्यादा ट्रैंड हुआ. इसी तरह #HinduLivesMatters, We_Want_HinduRashtra, #HinduLiveMatters #Uniting_Hindus_Globally जैसे हैशटेग पिछले 30 दिनों में कई बार टॉप ट्रेंडिंग में रहे.
लेकिन, नैरेटिव सिर्फ सोशल मीडिया तक सीमित नहीं है, इसका असर नेताओं और अब तो अभिनेताओं के भाषणों में भी दिखने लगा है. ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं. अक्षय कुमार के इतिहास को लेकर दिए बयान के एक सप्ताह बाद ही गृह मंत्री अमित शाह का भी एक बयान आया. एक बुक लॉन्च पर अमित शाह ने कहा कि ''इतिहासकारों ने इतिहास का जब भी जिक्र किया तो मुगल साम्राज्य की ही चर्चा की''.
दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों का हमेशा से आरोप रहा है कि इतिहासकारों ने इतिहास में हिंदू राजाओं को जगह नहीं दी. अक्षय कुमार के बयान का भी यही सार था और अमित शाह का भी. लाखों फॉलोअर्स वाले Abhi and Niyu जैसे सोशल मीडिया हैंडल्स से भी आए दिन इस नैरेटिव को आगे बढ़ाते दावे किए जाते हैं.
राजनीतिक विश्लेषक प्रताप भानू मेहता ने क्विंट को बताया, ''इतिहास पर डिबेट होना आम बात है, लेकिन मैटर ये करता है कि इसके पीछे की मंशा क्या है. अगर इतिहास को लेकर डिबेट के पीछे आपकी मंशा एक समुदाय को देश का दुश्मन साबित करना है तो ये भयावह है. आज की पॉलिटिक्स में सीधे तौर पर इतिहास से कुछ चुनिंदा घटनाओं को उठाकर उनके जरिए हिंदू समाज का ध्रुवीकरण किया जा रहा है''
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई पब्लिक स्पेस में इतिहास को लेकर गलत तथ्य पेश करना, जिस राजा के बारे में पढ़ाया जाता है उसके बारे में कहना कि नहीं पढ़ाया जाता, ये सब एक मानवीय भूल है? या फिर संगठित तरीके से जानबूझकर इतिहास को लेकर ये नैरेटिव बनाया जा रहा है. अगर हां तो फिर इस नैरेटिव का मकसद क्या है?
क्विंट ने देश के नामी इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषकों से बात कर जानने की कोशिश की कि क्या वाकई इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करके पॉलिटिकल फायदा लिया जा रहा है?
'इतिहास' कैसे बन रहा है पॉलिटिकल टूल, 5 बिंदुओं से समझते हैं
इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करने के पीछे राजनीतिक मकसद
इतिहास के बहाने बहुसंख्यकों का ध्रुवीकरण और अल्पसंख्यकों पर निशाना
मुगल इतिहास Vs हिंदू इतिहास वाले दावे कितने सच
मुगल इतिहास या इतिहास पर कोई भी सवाल उठाने में गलत क्या है?
पॉलिटिक्स में इतिहास को लेकर भ्रम फैलाना क्यों हुआ आसान?
इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करने के पीछे राजनीतिक मकसद
पॉलिटिक्स में जब इतिहास आता है, तो भारत की आजादी से लेकर मराठा, अशोक, राजपूत और मुगल सबको अपनी सहूलियत के हिसाब से घसीटा जा रहा है. कभी इतिहास बदलने की मांग होती है तो कभी सड़कों का नाम मुगलों के नाम से हटाकर राजपूत, मराठा शासकों के नाम पर करने की मांग. लेकिन, जैसे ही बात मुगलों को लेकर आती है तो खास बात ये है कि उन्हें हमेशा एक 'परमानेंट विलन' की तरह पेश किया जाता है.
एक खास विचारधारा की पॉलिटिक्स में लगातार बढ़ते मुगलों के जिक्र को लेकर हमने राजनीतिक विश्लेषक प्रताप भानू मेहता से बात की. उन्होंने कहा कि आज जानबूझकर इतिहास की उन घटनाओं का जिक्र बार-बार किया जाता है जिनसे ये साबित किया जा सके कि हिंदू पर हमेशा अत्याचार हुआ है और ये देश हमेशा एक ही समुदाय का रहेगा.
इतिहास को लेकर आज हो रही बहसें राजनीतिक फायदे के लिए की जा रही हैं. इतिहास को लेकर बहस शिक्षाविदों के बीच होनी चाहिए, इतिहासकारों के बीच होनी चाहिए, लेकिन इन लोगों की तो आवाज कहीं सुनाई ही नहीं देती. खतरनाक ये नहीं है कि इतिहास विवादित है. खतरनाक ये है कि इतिहास के जरिए साबित करने की कोशिश है कि ये देश सिर्फ हिंदुओं का रहेगा और शोषण हिंदुओं का होता रहा है. ये लड़ाई इतिहास की नहीं है. ये लड़ाई तो इस बात की है कि हमेशा लोगों में बदले की भावना को पनपाया जाए.प्रताप भानू महता. राजनीतिक विश्लेषक
इतिहास के बहाने बहुसंख्यकों का ध्रुवीकरण, अल्पसंख्यकों पर निशाना
कैसे इतिहास बदलकर बहुसंख्यक समुदाय का ध्रुवीकरण और अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत पैदा की जा सकती है. इसे हम पाकिस्तान के उदाहरण से समझ सकते हैं. पाकिस्तान में ये खुले तौर पर हुआ है. वहां इतिहास में वही पढ़ाया जाता है जो सत्ता की विचारधारा को सूट करता है. पाकिस्तान के बुद्धिजीवी भी समय-समय पर इस 'गलत इतिहास' के मुद्दे को उठाते रहे हैं.
पाकिस्तानी कवि और लेखक मुश्ताक सूफी ने हाल में 'पाकिस्तान और भारत में इतिहास मिटाए जाने की कोशिशों' पर एक लेख लिखा. यहां मुश्ताक लिखते हैं ''एक नया मुल्क पाकिस्तान बनने के बाद वहां के विचारकों ने इतिहास को लेकर एक व्यापक दृष्ठिकोण अपनाने की बजाए एक शॉर्टकट चुना. ये शॉर्टकट था, सही इतिहास से मुंह मोड़ लेना. उन्होंने इतिहास की ऐसी हर चीज के अस्तित्व से ही इनकार कर दिया जिससे उनकी विचारधारा सहमत नहीं थी.''
मुश्ताक आगे लिखते हैं ''इस प्रक्रिया में पाकिस्तानी विचारकों ने अपने ही समाज की उन विशिष्टताओं को भी भुला दिया, जो उपमहाद्वीप का हिस्सा होने के नाते भारत के साथ-साथ उनमें भी थीं''
हमने भारतीय इतिहासकारों और राजनीतिक विश्लेषकों से पूछा कि कहीं भारत में भी एक खास विचारधारा इतिहास का अपना वर्जन लिखकर उसका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने या बहुसंख्यकों का ध्रुवीकरण करने के लिए तो नहीं करना चाहती?
राजनीतिक विश्लेषक सुधींद्र कुलकर्णी के मुताबिक इतिहास को मॉडिफाई करके पढ़ाना राजनेताओं का पुराना टूल है. पाकिस्तान में भी स्कूलों में गलत इतिहास पढ़ाए जाने के पीछे यही मंशा है कि हिंदू समुदाय के लोगों को अंधविश्वासी और अत्याचारी साबित किया जाए.
ये तथ्य है कि पाकिस्तान नाम के देश का जन्म साल 1947 में हुआ. लेकिन, वहां स्कूल की किताबों में पढ़ाया जाता है कि पाकिस्तान तो 1947 से कई सालों पहले बन चुका था जब मोहम्मद कासिम ने सिंधू घाटी के एक हिंदू राजा को हराया था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पाकिस्तान के हुक्मरानों को उसे एक इस्लामिक देश बनाना था, सेक्युलर देश नहीं. जब आप किसी देश पर एक धर्म विशेष का प्रभुत्व कायम करना चाहते हैं तो आपको इतिहास भी उसी तरह का पढ़ाना होगा, फिर आपकी किताबों में तथ्य सही हैं या नहीं इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता.सुधींद्र कुलकर्णी, राजनीतिक विश्लेषक
मुगल इतिहास Vs हिंदू इतिहास वाला नैरेटिव कितना लॉजिकल?
इतिहास बदलने की मांग करने वाले या इतिहास में सिर्फ मुगलों का जिक्र होने का दावा करने वालों की अक्सर यही दलील होती है कि उन्हें 'इतिहास की चिंता' है. क्या वाकई ये इतिहास की चिंता है? क्या वाकई मुगलों का महिमामंडन ज्यादा हुआ है और उनका स्पेस इतिहास से कम करने की मांग जायज है? इन सवालों के जवाब में इतिहासकार पुष्पेश पंत कहते हैं.
मुझे तो याद है जब हम स्कूल में पढ़ाई करते थे तो न सिर्फ महाराणा प्रताप का महिमामंडन होता था, बल्कि उनके घोड़े चेतक की बहादुरी तक पर कविता-कहानियां होती थीं. मुगलों से पहले इतिहास की किताबों में अशोक और कलिंग का भी महिमामंडन हुआ है.पुष्पेश पंत, इतिहासकार
मुगलों के इतिहास को लेकर हो रहे दावों पर पुष्पेश पंत कहते हैं ''चाहे वो मुगल हों या उनसे पहले के शासक तुर्क, अफगान हों. इन सभी से जुड़े ऐतिहासिक सबूत इतने स्पष्ट मौजूद हैं कि इनको लेकर गलत जानकारी फैलाना मूर्खता से ज्यादा और कुछ नहीं है. अब अगर कोई कहने लगे कि महाराणा प्रताप ने अकबर को हराया था, तो अगर अकबर को हराया होता तो उसके बाद गद्दी पर महाराणा प्रताप के वंशज बैठते, अकबर के वंशज क्यों बैठते?''
अगर सच में किसी को इस बात की चिंता है कि भारत के लोगों पर मुगल इतिहास के जरिए मुगल संस्कृति थोपी जा रही है तो उसकी ये चिंता बेबुनियाद है. क्योंकि जो साम्राज्य जड़ से खत्म हो गया उससे किसे खतरा हो सकता है? मुगल साम्राज्य के जो आखिरी शासक थे उन सबने वृद्ध अवस्था में आकर सत्ता पाई थी. मुगल साम्राज्य के आखिरी राजा जब तक आए तब तक वो साम्राज्य वैसे भी काफी हद तक दम तोड़ चुका था. आज हम जिसे मुगलई खाना कहते हैं असल में मुगल ऐसा कुछ खाते नहीं थे. जिसे हम मुगल कास्ट्यूम समझते हैं उनका पहनावा उससे काफी अलग होता था.पुष्पेश पंत, इतिहासकार
इतिहास बदलने की मांग में कुछ गलत है क्या?
भले ही ये साफ नजर आ रहा हो कि मुगलों के इतिहास के जरिए एक समुदाय विशेष पर निशाना साधने की कोशिश है. लेकिन, फिर भी कुछ सवाल उठते हैं. वह ये कि..
क्या मुगल इतिहास को लेकर की जाने वाली सभी बातें गलत हैं? क्या मुगल शासकों ने धार्मिक आधार पर कोई अत्याचार नहीं किया? कोई मंदिर नहीं तोड़े? अगर इनमें से कुछ घटनाएं सही हैं तो उन्हें बताना एजेंडा कैसे हुआ? और अगर कोई हिंदू राजाओं को इतिहास में ज्यादा स्पेस दिलाने की मांग कर रहा है तो इसमें गलत क्या है ?
राजनीतिक विश्लेषक नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं
इतिहास को लेकर हमेशा से ट्रेंड यही रहा है कि उसे जीतने वाला ही लिखता है. इसे आज के संदर्भ में समझें तो जो पावर में होता है या यूं कहें कि सत्ता में होता है वो चाहता है इतिहास का सिर्फ वही हिस्सा पढ़ाया जाए जो उसकी विचारधारा को सूट करता हो. आज इतिहास को लेकर अधिकतर जो भी बातें कही जा रही हैं उनके जरिए कोशिश यही साबित करने की है कि फलां समुदाय इस देश का दुश्मन है.
नीलांजन आगे कहते हैं ''ऐसा नहीं है कि ये सब वर्तमान सरकार में ही हो रहा है. पहले भी होता रहा है. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी स्कूल के सिलेबस में बदलाव करने का मुद्दा उठा था. लेकिन, पहले पार्टी के अंदर से ही इसको लेकर विरोध की आवाज आती थी. अब पार्टी के अंदर विरोध नहीं दिखता. ''
इस मामले में इतिहासकार डॉ. ऑड्री ट्रेशके (Audrey Truscke) की प्रतिक्रिया को भी देखा जाना चाहिए. ऑड्री ने अमित शाह के उस बयान के जवाब में ट्वीट किया जिसमें शाह ने इतिहासकारों पर मुगलों पर ज्यादा जोर देने का आरोप लगाया था. ऑड्री ने लिखा
''भारतीय इतिहास सिर्फ राजवंशों तक सीमित नहीं हैं. इतिहासकार और भी कई चीजों पर फोकस करते हैं. जैसे धार्मिक विकास, सास्कृतिक इतिहास, साहित्य, सामाजिक परिवर्तन, दलित इतिहास, भाषाई इतिहास आदि. ''
राजनीतिक विश्लेषक प्रताप भानू मेहता के मुताबिक ''इतिहास को लेकर वाद-विवाद होना कोई गलत बात नहीं. इतिहास है ही ऐसा विषय जिसपर बहस होनी चाहिए, जिस पर शोध होना चाहिए और नए तथ्य निकलकर सामने आने चाहिए. पर मायने ये रखता है कि इतिहास पर जो सवाल उठा रहा है उसकी मंशा क्या है ? अगर कोई इतिहास की आड़ में एक समुदाय विशेष को निशाना बनाने की कोशिश कर रहा है तो जाहिर है ये दुखद है.''
सार यही है कि इतिहास को सिर्फ इस नजरिए से देखना ठीक नहीं कि किस राजवंश का जिक्र कितने पन्नों में है. क्योंकि इतिहास में राजवंशों के अलावा भी बहुत कुछ होता है.
पॉलिटिक्स में इतिहास को लेकर भ्रम फैलाना 'अब' हुआ आसान
अलिगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर हसन इमाम कहते हैं कि ''आज हमारी सोसायटी अपना बैलेंस खो चुकी है. उसको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरा पक्ष क्या चाहता है. आप कह दो कि ताजमहल फलां रानी की जमीन पर बना तो लोग मान जाएंगे. आज की तारीख में ये बहुत मैटर नहीं कर रहा कि कोई बात फैक्चुअली सही है या नहीं. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि कल को ताजमहल को बड़ी संख्या में लोग तेजो महालय ही कहने लगें.''
इतिहासकार पुष्पेश पंत कहते हैं ''जब समाज में इतिहास को लेकर जागरुकता कम होती है या इतिहास पढ़ने में लोगों की रुचि नहीं बचती तभी ऐसा होता है. इतिहास से जुड़ी फेक न्यूज की पड़ताल भी जब तक होती है तब तक जो डैमेज होना था हो चुका होता है.''
ये जाहिर है कि इतिहास को लेकर फैलाए जा रहे नैरेटिव की नींव काफी हद तक Misinformation यानी इससे जुड़े भ्रामक दावों पर ही रखी हुई है. इस तरह के किसी भी फेक नैरेटिव का शिकार समाज न हो, इसके लिए जरूरी है फेक न्यूज से बचना. क्विंट की वेबकूफ टीम लगातार ऐसे फर्जी दावों की पड़ताल कर सच आप तक पहुंचा रही है.
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(Edited By - Kritika Goel)
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