अमेरिका के 'फॉरएवर वॉर' के खत्म होने का समय आ गया है. राष्ट्रपति जो बाइडेन (Joe Biden) ने 14 अप्रैल को ऐलान कर दिया कि अमेरिकी सेना अफगानिस्तान (us troops withdrawal) से वापस आ रही है. लेकिन 1 मई तक नहीं. बाइडेन ने इसके लिए एक प्रतीकात्मक दिन चुना है. सेना वापस बुलाने की डेडलाइन 11 सितंबर तक बढ़ा दी गई है. ये तारीख उस घटना की गवाह है, जिसकी वजह से अमेरिका एक और युद्ध के लिए अफगानिस्तान गया था.
लेकिन क्या बाइडेन सही फैसला ले रहे हैं? अफगान सरकार के साथ-साथ अमेरिका और रूस जैसे कई देश तालिबान के साथ शांति वार्ता कर रहे हैं. क्या सेना की वापसी की डेडलाइन बढ़ने से इस वार्ता पर कोई असर पड़ेगा? अफगानिस्तान की सुरक्षा का पहलू भी चिंता का विषय है क्योंकि तालिबान इस समय भी देश के काफी बड़े हिस्से पर नियंत्रण रखता है.
सलाहकारों के खिलाफ गए बाइडेन?
जो बाइडेन अफगानिस्तान में सेना की भारी मौजूदगी के हिमायती कभी नहीं रहे हैं. बराक ओबामा के कार्यकाल के दौरान उपराष्ट्रपति बाइडेन सैन्य जनरलों के सेना बढ़ाने की योजना के खिलाफ रहते थे. ओबामा ने अपनी किताब में ऐसी कई बातचीतों को जिक्र किया है.
इस बार जब फैसला लेने की बारी बाइडेन की थी, तो उन्होंने ओबामा को दी हुई सलाह पर अमल किया. CNN की रिपोर्ट कहती है कि कई टॉप जनरल और पेंटागन के अधिकारियों ने सेना को पूरी तरह बुलाने पर चिंता जताई थी. हालांकि, बाइडेन ने इन आपत्तियों को दरकिनार करते हुए ये फैसला लिया.
CNN की रिपोर्ट के मुताबिक, आपत्ति उठाने वाले वालों में चेयरमैन ऑफ जॉइंट चीफ मार्क मिली, यूएस सेंट्रल कमांड के प्रमुख जनरल फ्रैंक मैकेंजी शामिल थे.
यूएस न्यूज ने एक सूत्र के हवाले से बताया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सलिवन पेंटागन के नजरिये का समर्थन करते हुए दिखे. तो वहीं, विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने बाइडेन का पक्ष लिया.
बाइडेन का फैसला 'गलती' या 'सही कदम'?
20 साल पहले जॉर्ज बुश ने अफगानिस्तान में अल-कायदा ठिकानों पर हमले का ऐलान किया था. अफगानिस्तान में बैठे ओसामा बिन-लादेन ने 11 सितंबर 2011 को अमेरिका के इतिहास का सबसे बड़ा आतंकी हमला कराया था. अमेरिका का मिशन था अल-कायदा का खात्मा और उसे पनाह देने वाले तालिबान को सजा.
20 साल गुजर गए, अल-कायदा का खात्मा तो कुछ हद तक हुआ है लेकिन तालिबान के साथ आज अमेरिका को शांति वार्ता करनी पड़ रही है. अमेरिका ने इन 20 सालों में क्या गलतियां की हैं, वो एक अलग बहस का मुद्दा है. पर बाइडेन के सेना वापस बुला लेने के फैसले पर भी बहस और विवाद शुरू हो गया है. दो एकदम विपरीत नजरिये दिख रहे हैं.
अमेरिकी पत्रकार डेविड ए एन्डेलमैन ने CNN में लिखे एक लेख में इसे बाइडेन की 'बड़ी गलती' करार दिया है.
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे का कहना है कि 'ये अमेरिका की प्रतिबद्धता थी और बाइडेन का इसे टालने का कोई इरादा नहीं था.' प्रकाश ने क्विंट हिंदी से कहा, "अफगान शांति प्रक्रिया बहुत तेज रफ्तार से नहीं चल रही है. इसे लेकर तुरंत निर्णय निकट भविष्य में दिखता नहीं है. लेकिन अमेरिका ने अफगानिस्तान में बहुत लंबा समय बिता दिया है और बाइडेन प्रशासन वापसी को लेकर गंभीर है."
हालांकि, अमेरिकी सेना की वापसी में देरी से शांति प्रक्रिया पटरी से उतर सकती है. जाहिर है तालिबान इस फैसले से खुश नहीं है. संगठन के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने 14 अप्रैल को ट्वीट किया, "अगर दोहा समझौते का उल्लंघन हुआ और विदेश सेना तय तारीख पर हमारे देश से नहीं गई तो दिक्कत बढ़ जाएगी और जिन्होंने समझौते का पालन नहीं किया, वो जिम्मेदार ठहराए जाएंगे."
मुजाहिद फरवरी 2020 में कतर के दोहा में ट्रंप प्रशासन के साथ हुए समझौते का जिक्र कर रहे थे. इसी में 1 मई की तारीख तय हुई थी और तालिबान ने अमेरिकी सेना पर हमला न करने की हामी भरी थी.
क्या इसका मतलब ये है कि तालिबान फिर से अमेरिकी सेना पर हमला करना शुरू करेगा? द इकनॉमिस्ट के डिफेंस एडिटर शशांक जोशी का कहना है कि 'तालिबान शांति प्रक्रिया को खत्म नहीं करेगा क्योंकि संगठन अंतर्राष्ट्रीय यात्रा और कूटनीतिक मान्यता तक पहुंच बरकरार रखना चाहेगा."
जोशी कहते हैं कि बाइडेन का फैसला इस तथ्य पर आधारित लगता है कि 20 सालों बाद भी तालिबान हारा नहीं है और उसकी स्थिति पहले से बेहतर है.
“अगर 100,000 अमेरिकी सैनिक विद्रोह नहीं खत्म कर पाए तो कुछ हजार और साल रहकर कैसे करेंगे? इसके अलावा अल-कायदा का खतरा काफी कम हो गया है और आतंकी खतरा अब मिडिल-ईस्ट और अफ्रीका के क्षेत्रों में ज्यादा गंभीर है.”शशांक जोशी, द इकनॉमिस्ट के डिफेंस एडिटर
क्या तालिबान दोबारा काबुल पर कब्जा कर लेगा?
13 अप्रैल को ऑफिस ऑफ डायरेक्टर ऑफ नेशनल इंटेलिजेंस (ODNI) ने वैश्विक खतरे पर एक रिपोर्ट जारी की थी, इसके मुताबिक, अफगान शांति समझौते की संभावनाएं आने वाले साल में 'कम रहेंगी.'
रिपोर्ट कहती है कि तालिबान मानता है कि वो 'जमीनी स्तर पर ताकत के इस्तेमाल से राजनीतिक सच को बदल सकता है.'
“तालिबान को विश्वास है कि सैन्य जीत हासिल की जा सकती है. अफगान सुरक्षा बलों को क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में लाने के लिए जूझना पड़ रहा है. तालिबान युद्ध के मैदान में बढ़त हासिल करेगा. अगर गठबंधन वापस आता है तो अफगान सरकार के लिए तालिबान को रोकना मुश्किल होगा.”वैश्विक खतरे पर एक रिपोर्ट
जो बात ये रिपोर्ट कहती है, बाइडेन के फैसले पर सवाल उठाने वाले भी यही तर्क देते हैं. अमेरिका की 20 साल मौजूदगी के बाद भी अफगान सरकार या सुरक्षा बल इतने आत्मनिर्भर नहीं हैं कि वो तालिबान का अकेला मुकाबला कर सकें. इसमें अफगान की बहुनस्लीय राजनीति की भी बड़ी भूमिका है.
द इकनॉमिस्ट के डिफेंस एडिटर शशांक जोशी कहते हैं कि तालिबान के बढ़त बनाने की आशंका है लेकिन 1996 की तरह काबुल पर दोबारा कब्जा आसान नहीं होगा.
“ये साफ नहीं है कि तालिबान दोबारा काबुल पर कब्जा करेगा या नहीं. पर समय बीतने के साथ संगठन शहरों का नियंत्रण ले सकता है. लेकिन 1990 की तरह ही इस बार भी गंभीर प्रतिरोध झेलना पड़ेगा और न सिर्फ अफगान सेना से बल्कि उन सशस्त्र समूहों से, जिन्हें रूस, ईरान और भारत जैसे देश समर्थन देते हैं.”शशांक जोशी
वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे भी मानते हैं कि तालिबान के लिए दोबारा काबुल पर कब्जा करना आसान नहीं होगा. प्रकाश कहते हैं कि तालिबान अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में मान्यता चाहेगा और वो शांति प्रक्रिया छोड़कर 2000 के दशक को शायद ही दोहराए.
“तालिबान बार-बार कह रहा है कि शांति प्रक्रिया में जो सहमति बनेगी उसे माना जाएगा. तालिबान को नजरअंदाज करके अफगानिस्तान में शांति मुमकिन नहीं है.”प्रकाश के रे, वरिष्ठ पत्रकार
भारत पर क्या असर होगा?
भारत अब तक अफगानिस्तान में 3 बिलियन डॉलर से ज्यादा का निवेश कर चुका है. ये निवेश ज्यादातर इंफ्रास्ट्रक्टर प्रोजेक्ट्स में हैं. लेकिन अफगानिस्तान की राजनीति में भारत का प्रभाव न के बराबर है.
भारत ने हमेशा तालिबान से बात करने में हिचक दिखाई है. दुनिया जानती है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI का पश्तून-बहुल तालिबान पर कितना प्रभाव है. इसके बावजूद अफगान शांति प्रक्रिया के एक अहम स्टेकहोल्डर से बात करने में भारत ने कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई. भविष्य में अगर तालिबान अफगान सरकार में हिस्सेदारी पाता है तो इसका पाकिस्तान और भारत के लिए क्या मतलब होगा, ये समझने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए.
अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान से वापसी के फैसले का असर क्षेत्रीय राजनीति पर पड़ना तय है. शशांक जोशी कहते हैं, "इससे अफगानिस्तान के आसपास क्षेत्रीय प्रतियोगिता बढ़ जाएगी. पाकिस्तान तालिबान पर अपना असर बनाए रखना चाहेगा. भारत तालिबान से बात करना चाहेगा लेकिन काबुल और विरोधी दलों को भी समर्थन देगा."
अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने पिछले महीने अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी को बाइडेन की एक योजना बताई थी. अमेरिका ने UN की अगुवाई में एक कॉन्फ्रेंस का प्रस्ताव रखा है, जिसमें रूस, चीन, पाकिस्तान, ईरान, भारत और अमेरिका के प्रतिनिधि शामिल होंगे. भारत के लिए अफगान समझौते में अपना हित खोजने का अच्छा मौका है.
प्रकाश के रे कहते हैं कि भारत सरकार शांति प्रक्रिया में बिना दिलचस्पी के बनी हुई है. प्रकाश ने क्विंट हिंदी से कहा, "अफगानिस्तान में स्थिरता भारत के लिए अच्छी बात है. हालांकि, हमें आगे बढ़कर बात करनी चाहिए. भारत पूरा मामला अशरफ गनी पर छोड़ देता है. भारत ने अच्छा-खासा निवेश किया है और आगे भी करना चाहिए, लेकिन बात भी करनी होगी."
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