भारत की आजादी का आंदोलन जब चरम पर था, तब 'ग्रेटेस्ट ब्रिटन' कहे जाने वाले चर्चिल (तब पूर्व प्रधानमंत्री, 1950 में फिर से बने) ने कहा था-
"अगर भारत को आजादी मिल गई, तो ताकत दुष्ट, नीच और लुटेरों के हाथ में चली जाएगी." इसके साथ-साथ चर्चिल ने भारतीय राजनेताओं को दोयम दर्जे के चरित्र वाला और पेशेवर तौर पर कमजोर बताया था.
'महान' चर्चिल के इस कथन के ठीक 75 साल बाद भारतीय मूल का एक राजनेता उनके महान देश की कमान संभाल रहा है. ऋषि सुनक अब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बन चुके हैं.
सुनक की उपलब्धि निश्चित ही काफी अहम है, लेकिन सुनक अकेले भारतीय मूल के राजनेता नहीं हैं, जो किसी दूसरे देश की राजनीति को खासा प्रभावित करने में कामयाब रहे हैं (Indian Origin Politicians In The World). 20 वीं सदी से ही यह सिलसिला शुरू हो चुका था.
खुद गांधी भारत में आंदोलन शुरू करने के पहले दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों की नस्लभेदी नीति के खिलाफ काफी सफल आंदोलन चला चुके थे. मतलब वे एक दमनकर्ता के खिलाफ सफल राजनेता की तरह जन आंदोलन खड़ा करने में कामयाब रहे थे.
फिलहाल दुनियाभर में देखें तो इन देशों में भारतीय मूल के शख्स राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के तौर पर राष्ट्राध्यक्ष या सरकार के मुखिया हैं.
इन देशों की राजनीति में रहा है भरतवंशियों का दखल
ब्रिटेन
अमेरिका
आयरलैंड
मॉरिशस
फिजी
सेशेल्स
सूरीनाम
गुयाना
मलेशिया
सिंगापुर
त्रिनिदाद एंड टोबैगो
पुर्तगाल
स्पेन
फ्रांस
रूस
पाकिस्तान और बांग्लादेश (17) जैसे देशों में भी कई राजनीतिज्ञों की पुश्तैनी जड़ें भारत में रही हैं.
गुलाम के तौर पर बाहर भेजे गए भारतीयों के वंशजों ने ली सत्ता में भागीदारी
19वीं सदी में अंग्रेज कई द्वीपों पर भारतीय मजदूरों को काम कराने ले गए. इन्हीं द्वीपों में कुछ आज के देश जैसे सेशेल्स, मॉरीशस, फिजी, कैरेबियाई देश और अन्य हैं. इन देशों में भारतीय मूल के प्रवासी नागरिक बाद में खासे प्रभावी रहे.
आजाद मॉरीशस के इतिहास में शिवसागर रामगुलाम का वही रुतबा रहा है, जो कभी 70 और 80 के दशक में इंदिरा गांधी का था. रामगुलाम 1968 से लेकर 1982 तक मॉरीशस के प्रधानमंत्री रहे.
इसके बाद भी मॉरीशस के प्रधानमंत्री भारतीय मूल के अनीरूद जगनाथ ही बने. वे पहले कार्यकाल में 1982 से 1995, फिर साल 2000 से 2003 और आखिरी बार 2014 से 2017 तक प्रधानमंत्री रहे. मॉरीशस के इतिहास में वे सबसे ज्यादा लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने वाले शख्स हैं. इसके अलावा अनिरूद साल 2003 से 2012 तक वहां के राष्ट्रपति भी थे. बता दें मॉरिशस में 65 फीसदी से ज्यादा भारतीय मूल के लोग हैं.
मॉरीशस में नवीन रामगुलाम भी एक बेहद अहम शख्सियत रहे हैं. वे 14 साल प्रधानमंत्री रहे हैं. बल्कि 1982 से अगले 35 साल तक सरकार उनके और अनिरुद जगनाथ के बीच ही घूमती रही. मॉ़रीशस के मौजूदा राष्ट्रपति पृथ्वीराजसिंग रूपुन भी भारतीय मूल के हैं.
सेशेल्स पूर्वी अफ्रीका में स्थित एक 115 द्वीप समूह का देश है. यहां भारतीय मूल के लोगों की आबादी महज 0.3 फीसदी ही है, लेकिन इसके बावजूद राजनीति में भारत वंशियों का खासा दबदबा रहा है. बता दें सेशेल्स की हिंद महासागर में रणनीतिक तौर पर अहम स्थिति है, ऐसे में कई बड़े देश, इस छोटे से देश को रिझाने की कोशिश करते रहे हैं.
मौजूदा राष्ट्रपति और भारतीय मूल के राजनेता वेवैल रामकलावन सेशेल्स की राजनीति में बीते तीन दशकों से एक अहम शख्सियत हैं. सेशेल्स को 1976 में ही आजादी मिली थी. 2020 में राष्ट्रपति बनने से पहले रामकलावन 1998 से 2011 तक विपक्ष के नेता थे.
फिजी प्रशांत महासागर में स्थित एक द्वीपीय देश हैं. यहां भारतीय मूल के लोग बड़ी संख्या में राजनीति में सक्रिय है. महेंद्र चौधरी पहले भारतीय मूल के शख्स थे, जो 1999 में फिजी में प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहे. बता दें फिजी के गन्ने के खेतों में काम करने के लिए अंग्रेज बड़ी संख्या में भारत से मजदूर लाते थे. महेंद्र चौधरी के दादा भी ऐसे ही हरियाणा से फिजी पहुंचे थे.
इसके अलावा फिजी में भारतवंशी अहमद अली कई बार कैबिनेट मंत्री रहे, आनंद सिंह अटॉर्नी जनरल, डोरासामी नायडू और जयराम रेड्डी नेशनल फेडरेशन पार्टी के प्रमुख, खुद महेंद्र चौधरी लेबर पार्टी के प्रमुख रहे हैं. यहां ज्यादातर भारतीय फिजी लेबर पार्टी या एफएलपी से संबंधित हैं.
दक्षिण अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र की राजनीति में भारतीय
सूरीनाम, दक्षिण अमेरिका में स्थित सबसे छोटा देश है. यहां भारतीय मूल के लोगों की आबादी करीब 28 फीसदी है. अंग्रेजों के राज में बड़ी संख्या में भारतीयों को वहां मजदूरी करने के लिए बसाया गया था. इसे पहले डच गुयाना भी कहा जाता था. 1975 में सूरीनाम को आजादी मिली.
1982 में पहली बार भारतीय मूल के फ्रेड रामदत मिशिर वहां अगले पांच सालों के लिए राष्ट्रपति बने. इसके बाद एरल अलीबक्स और प्रताप राधाकृष्णन भी 1983 से 87 के बीच अलग-अलग वक्त पर सूरीनाम के प्रधानमंत्री रहे. 1988 में सूरीनाम में रामसेवक शंकर राष्ट्रपति बने, वे सरकार और देश दोनों के ही प्रमुख थे. मतलब तब वहां प्रेसिडेंशियल सिस्टम लागू हो चुका था. रामसेवक करीब तीन साल से कुछ कम वक्त तक सूरीनाम के राष्ट्रपति रहे.
2020 में सूरीनाम में भारतीय मूल के चान संतोखी राष्ट्रपति बने, जो पिछले दो सालों से सूरीनाम के राष्ट्रपति हैं.
गुयाना- सूरीनाम का ही पड़ोसी देश है गुयाना. यहां भी करीब 38 फीसदी से ज्यादा भारतीय मूल के लोगों की आबादी है. यहां तक कि गुयाना की 6 आधिकारिक भाषाओं में गुयानीज़ हिंदुस्तानी सबसे पहली प्राथमिकता है, जो बहुत हद तक हिंदी-ऊर्दू के करीब है. दरअसल सूरीनाम की तरह ही गुयाना भी पहले डचों के नियंत्रण में था, लेकिन बाद में इसपर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया. 1966 में गुयाना को अंग्रेजों से स्वतंत्रता मिली.
बीते तीन दशकों में गुयाना की राजनीति में सबसे अहम शख्सियतों में से एक थे भारत जगदेव. वे 1999 से 2012 तक गुयाना के राष्ट्रपति रहे. बल्कि इनके बाद भारतीय मूल के ही डोनाल्ड रामवतार राष्ट्रपति बने, जिनका कार्यकाल 2015 तक रहा.
2020 में गुयाना के राष्ट्रपति इरफान अली बने. वे भी भारतीय मूल के हैं.
त्रिनिदाद एंड टोबैगो- यह एक कैरेबियाई द्वीपीय देश है. जैसा पहले बताया कि अंग्रेजों के जमाने में बड़ी संख्या में भारतवंशियों को मजदूरी कराने दूसरे द्वीपों पर ले जाया गया, इन्हें गिरमिटिया कहा जाता था. त्रिनिदाद एंड टोबैगो भी अंग्रेजों की ऐसी ही कॉलोनी थी, जो आज स्वतंत्र देश है. यहां की करीब 35 फीसदी आबादी भारतीय मूल की है. जबकि इतनी ही आबादी अफ्रीकी मूल के लोगों की भी है. 1976 में त्रिनिदाद एंड टोबैगो अपने मौजूदा स्वरूप में आ पाया.
1987 में यहां भारतवंशी नूर हसन अली राष्ट्रपति बने. वे अगले दस साल तक राष्ट्रपति रहे. हालांकि इस दौरान वास्तविक ताकत प्रधानमंत्री के ही हाथों में रही. असल मायनों में 1995 में एक भारतवंशी राजनेता बसदेव पांडे के हाथ में सत्ता आई और वे अगले 6 साल तक यहां के प्रधानमंत्री रहे.
एशियाई देशों की राजनीति में भारतवंशी
पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे भारत के कई पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों या प्रधानमंत्रियों का जन्म ब्रिटिश भारत में हुआ था. लेकिन इससे इतर भारतीय मूल के कुछ राजनेता सिंगापुर, मलेशिया जैसे देशों में सत्ता हासिल करने में कामयाब रहे हैं.
दुनिया के बड़े बंदरगाहों में से एक की मौजूदगी वाला सिंगापुर एक छोटा द्वीपीय देश है, लेकिन इसकी आर्थिक और रणनीतिक अहमियत काफी ज्यादा रही है. एथनिक नजरिए से देखें तो यहां सबसे बड़ा वर्ग चीनी लोगों का है, जिनकी करीब 75 फीसदी आबादी है. जबकि मलय आबादी 13.5 फीसदी और भारतीय मूल के लोगों की आबादी करीब 9 फीसदी है. 1965 में जाकर सिंगापुर स्वतंत्र देश बन पाया था.
अपनी स्वतंत्रता के शुरुआती दशकों में देवन नायर सिंगापुर की राजनीति की अहम शख्सियत थे. वे 1981 से 1985 के बीच करीब साढ़े तीन साल सिंगापुर के राष्ट्रपति रहे. लेकिन सबसे अहम भारतवंशी रहे एस आर नाथन. वे 1999 से लेकर 2011 तक करीब 12 साल तक सिंगापुर के राष्ट्रपति थे. पिछले पांच सालों से भारतवंशी हलीमा याकूब सिंगापुर की राष्ट्रपति हैं. हालांकि सरकार की मौजूदा ताकत प्रधानमंत्री के हाथ में होती है.
इसी तरह सिंगापुर के पड़ोसी देश मलेशिया की सरकार के मौजूदा प्रमुख महाथिर मोहम्मद भारतीय मूल के हैं. उनका मलेशिया की राजनीति में दबदबे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले 40 साल में महाथिर 24 साल मलेशिया के प्रधानमंत्री रहे हैं. मोहम्मद के पुरखे 19वीं सदी के आखिर में केरल से मलय गए थे.
यूरोप में भी भारतीय मूल के लोगों ने राजनीति में बनाया अहम मुकाम
यूरोप में भारतीय मूल के लोगों का राजनीति में दखल का लंबा इतिहास रहा है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी दादाभाई नौरोजी ब्रिटिश संसद का हिस्सा तक बने.
मौजूदा दौर में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक तो हैं ही, इस सरकार में गृह सचिव (मंत्री स्तरीय) सुएला ब्रेवरमैन भी भारतवंशी हैं. जबकि उनसे पहले इस पद पर बोरिस जॉनसन की सरकार में प्रीति पटेल थीं. यह सारे नेता कंजरवेटिव पार्टी से संबंधित हैं.
बता दें 2019 में हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए हुए चुनाव में 15 भारतवंशी चुनाव जीतकर संसद के निचले सदन में पहुंचे थे. इनमें लेबर पार्टी से दो भारतवंशी- नादिया व्हिटहोम और नवेंदु मिश्रा जीते थे. नादिया ब्रिटेन की सबसे युवा सांसद भी हैं. नवेंदु का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुआ था. जबकि उनकी मां गोरखपुर से हैं.
ब्रिटेन में भारतीयों की राजनीति में खासी भागीदारी है. 2019 में कई सीटों पर भारतीय चुनाव भी हारे. जैसे- टोरी कैंडिडेट संजॉय सेन वेल्स की एक सीट पर हारे. वहीं ब्रैडफोर्ट में नरेंद्र सिंह शेखों, टोरी कैंडिडेट, लेबर कैंडिडेट से हारे.
अब आते हैं पुर्तगाल के प्रधानमंत्री और एक दूसरे भारतवंशी राजनेता एंटोनियो कोस्टा पर. कोस्टा 2015 में प्रधानमंत्री बने. दरअसल कोस्टा आधे भारतीय मूल के हैं. उनके पिता का जन्म मोजाम्बिक में गोवा से आने वाले एक भारतीय परिवार में हुआ था. मतलब उनके दादा का परिवार भारतीय है. बता दें पुर्तगाल में भारतीयों की आबादी करीब 25,000 है.
आयरलैंड में लियो वर्दकर बड़ा नाम हैं. वे फिलहाल वहां के उप प्रधानमंत्री हैं. 2017 से 2020 तक उनके पास रक्षा मंत्रालय का चार्ज भी था. फिलहाल उनके पास वहां रोजगार, उद्योग और व्यापार मंत्रालय का प्रभार भी है.
इसके अलावा फ्रांस, आयरलैंड, रूस जैसे देशों में भारतवंशी चुनकर आते रहे हैं. फ्रांस में नादिया रामास्वामी 2017 में चुनाव जीतकर संसद का हिस्सा बनने में कामयाब रही थीं. हालांकि वे 2022 में चुनाव हार गईं.
इसी तरह रूस में कुर्स्क शहर में भारतीय मूल के अभय कुमार सिंह विधायक हैं. वे 1991 में डॉक्टरी करने भारत से रूस गए थे. स्विट्जरलैंड में कर्नाटक के रहने वाले निक गुग्गर स्विस संसद के पहले भारतवंशी सदस्य हैं. जबकि रॉबर्ट मशीहा नाहर स्पेन की संसद का हिस्सा हैं.
अमेरिका
अमेरिका में मौजूदा उपराष्ट्रपति कमला हैरिस तो भारतीय मूल की हैं ही, लेकिन उनके अलावा बॉबी जिंदल (गवर्नर बनने वाले पहले भारतीय, लूसियाना राज्य), प्रमिला जयपाल (वाशिंगटन की एक सीट से हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में प्रतिनिधि), निक्की हेली (दक्षिण कैरोलिना की पूर्व गवर्नर), विन गोपाल (सीनेटर) भी अहम नाम है.
जबकि हैरी आनंद मेयर बनने वाले पहले भारतवंशी हैं. वे लारैल हैरो नाम की नगर निगम के मेयर हैं.
इसके अलावा कई स्टेट जनरल असेंबली के भी सदस्य हैं (जैसे सुहाना सुब्रमण्यम- बर्जीनिया जनरल असेंबली, केविन थॉमस- न्यूयॉर्क स्टेट असेंबली, राज मुखर्जी- न्यूजर्सी जनरल असेंबली आदि).
कुल-मिलाकर अमेरिका में भारतीयों का बेहतरीन प्रतिनिधित्व है. यह वहां की मिली-जुली संस्कृति का भी परिचायक है.
बढ़ते ग्लोबलाइजेशन के दौर में भारतीय मूल के लोग दुनिया के लगभग हर कोने तक पहुंच चुके हैं और लगातार यह संख्या बढ़ रही है. जाहिर है कुछ जगह संख्याबल के चलते स्वाभाविक तौर पर भारतीयों को सत्ता में भागीदारी मिलेगी या कई जगह संघर्षों से हासिल होगी, जैसा दर्जन भर देशों में हुआ है.
पढ़ें ये भी: Rishi Sunak भारतीय मूल के हैं या नहीं? परिवार के इंग्लैंड पहुंचने की पूरी कहानी
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)