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चुनाव 'अ'व्यवस्था: एक कर्मचारी की जुबानी, मतदान से पहले EVM के बूथ पहुंचने की कहानी

लोकसभा चुनाव: जिन मशीनों पर लोकतंत्र की नींव टिकी है, पढ़िए उस ईवीएम के संघर्ष की कहानी.

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Lok Sabha Elextion 2024: चिलचिलाती धूप, उड़ती धूल, कंधों पर बैग लादे और हाथों में मशीन लिए चुनाव ड्यूटी में लगे कर्मचारी बॉर्डर पर तैनात किसी सिपाही की तरह बढ़े चले जा रहे हैं. अभी उसने सामग्री और मशीनें ली थीं लेकिन बसों तक पहुंचने की लड़ाई अभी बाकी थी. इस बार व्यवस्था एकदम चुस्त और शासन प्रशासन एकदम मुस्तैद था. पिछली बार से सबक लेते हुए इस बार सीधे मंडी से बसें उपलब्ध नहीं करवाई गईं. बल्कि विशेष व्यवस्था के तहत जहां से बसें मिलनी थी वहां तक पहुंचाने के लिए भी इस बार शटल बसों का इंतजाम किया गया था तो बस इन शटल बसों की खोज की यात्रा चालू हुई.

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लोगों का हुजूम बढ़ा चला जा रहा था. सब एक-दूसरे से पूछते हुए कदम बढ़ाते रहे. ये विशेष शटल बसें कहां से मिलेंगी किसी को रत्ती भर अंदाजा नहीं था, जिससे भी पूछा उसी ने कहा आगे से मिलेंगी.

खैर आगे चलते-चलते सब मंडी के बाहर जा पहुंचे. वहां तैनात लोगों ने बताया कि चलते जाइये आगे से मिल जाएगी. लोग चलते रहे. माथे से टपक रहे पसीने को बार बार रूमाल से पोंछते लेकिन बढ़ते रहे. कतारबद्ध, लयबद्ध. कथित रूप से हाई सिक्यॉरिटी में रखी जाने वाली चुनावी मशीनें सड़क की खाक छानने को मजबूर थीं. ऐसा शायद ही पहले कहीं कभी देखा गया हो कि हजारों की संख्या में मशीनें इस तरह सड़क के किनारे चल रही थीं. खैर वो भी मशीन है. खुली हवा में सांस लेने का मन तो उसका भी करता होगा लेकिन जिम्मेदार लोग न जाने क्यों बेवजह उसे कमरों में बंद करके 24 घंटे निगरानी में रखते हैं. दम न घुटता होगा उसका? जिन मशीनों पर लोकतंत्र की नींव टिकी है उसके अधिकारों का क्या?

अचानक चलते चलते एहसास हुआ कि मंडी से तो बहुत दूर निकल आये हैं. शटल बसें मिलेंगी भी या पैदल ही जाना है. लोग प्रशासन द्वारा की गई इस ऐतिहासिक, अभूतपूर्व, अद्भुत व्यवस्था को नमन कर रहे थे. थक कर चूर और गर्मी से निढाल हुए तो सड़क किनारे जिसको जहां छांव मिली वहीं मशीनें रखकर बैठ गया.

अब मंडी गेट से लेकर कई सौ मीटर तक यत्र तत्र सर्वत्र चुनाव कर्मचारी ही दिखाई दे रहे थे. सबकी निगाहें सड़क पर जमीं थीं कि शायद कहीं शटल बस की एक झलक मिल जाये और सबका जीवन धन्य हो जाये. भीड़ बढ़ रही थी. सूरज ऊपर से तमतमा रहा था. जैसे सारी गलती हम ही लोगों की हो. अधिकारियों की गाड़ियां आ रही थीं, जा रही थीं. चार पहिया गाड़ी जिस पर सवार एक अधिकारी और ड्राइवर यानी कुल जमा दो लोग. शाम होने को थी.

आखिरकार जमा भीड़ के सब्र का बांध टूट पड़ा. अधिकारी की गाड़ी निकलते देख सब बीच सड़क इकठ्ठा हो गये. खूब हो हल्ला हाय-हाय हुआ. अब बात अधिकारी की थी तो पुलिस वाले एकदम से एक्टिव मोड में आ गये. एक अधिकारी महोदय को चुनाव ड्यूटी में लगे कर्मचारियों की ये गुस्ताखी नाकाबिले बर्दाश्त हुई. उन्होंने अचानक से सिंघम का रूप धारण कर लिया और लगभग हवा में उड़ते हुए एक कर्मचारी की शर्ट पकड़कर उसे घसीटते हुए किनारे कर दिया. लेकिन दांव उल्टा पड़ गया. शायद वो भूल गये कि ये कानपुर है और ये सिंघम नहीं बल्कि दबंग का इलाका है. खैर उनके इस प्रयास के चलते भीड़ और ज्यादा आक्रोशित हो गई. हालांकि थोड़ी देर में भीड़ भी ठंडी पड़ गई.

शाम होते होते शटल बसों के दर्शन हुए तो उसमें चढ़ने के लिए मारा-मारी होने लगी. आश्रम तक के रास्ते में अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था थी. पूरा रास्ता लगभग वन-वे था. यानी अगर दो बसें आमने सामने आ जाएं तो जाम. कई जगह ऐसे ही जाम से जूझे. एक जगह प्रशासन द्वारा अनाउंस किया जा रहा था कि किसी गाड़ी को ओवरटेक न करें. तभी बगल से सांय-सांय करती एक अधिकारी की गाड़ी निकल गई. हालांकि अनाउंस करने वाले ने तब भी हिम्मत नहीं हारी. वो पूरी निष्ठा के साथ लगा रहा.

दूर तक सिर्फ जमीन ही जमीन जिस पर जमी मोटी धूल की परत, जिसमें से आधी हवा में उड़ उड़कर माहौल को बेहद खुशनुमा बना रही थी. यानी हम आश्रम पहुंच चुके थे. आश्रम में नाश्ते पानी का भी पूरा इंतजाम था. चाट, बताशे, आइसक्रीम से सुसज्जित ठेले सबकी सेवा में हाजिर थे. मिट्टी, धूल जैसे नेचरल इंग्रेडियंट्स मिल जाने की वजह से चाट बताशों का टेस्ट बढ़ा ही होगा. जिसको अपनी पाचन क्षमता की जांच करनी हो वो इनका स्वाद ले सकता था.

मरते क्या न करते दोपहर से भूखे लोग जो होगा देखा जायेगा सोचकर और ईश्वर पर भरोसा रखते हुए इनका स्वाद पूरे चाव से लेने को मजबूर थे. बस से उतरकर जैसे ही पैर जमीन पर रखे तो जैसे लगा रेगिस्तान में आ गये हों. जूते अंदर तक मिट्टी में धंस चुके थे. खैर बिना एक पल गंवाए हमने अपनी बस ढूंढी और चढ़ लिए. बस में बैठने वाली चार पार्टियों में से हम दूसरी ही पार्टी थे. यानी हम देर से पहुंचने के बावजूद जल्दी पहुंच गये थे. खैर जल्दी ही बाकी दोनों पार्टियां आ गईं और बस चल दी.

हमारे आगे की चलती हुई बसें हमारी सांसों में धूल का मोटा गुबार घोल रही थीं. समस्याएं तमाम थीं लेकिन जज्बे में कमीं नहीं थी. बदन थके थे लेकिन कंधे झुके नहीं थे. तमाम झंझावतों को झेलते हुए हम बढ़ चले थे रणभूमि की ओर...लोकतंत्र की आन बान और शान को बढ़ाने के लिए और लोकतंत्र के सबसे बढ़े पर्व को सफल बनाने के लिए...

सह लेंगे तमाम दिक्कतें और हजारों गम पर

लोकतंत्र के महापर्व को मिलकर सफल बनाएंगे हम

लेखक नितेंन्द्र वर्मा (चुनाव ड्यूटी में लगा एक मतदान अधिकारी) कानपुर में रहते हैं

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