अंधविश्वास के नाम पर कितनी जिंदगियां खत्म होती हैं, इसका कोई हिसाब नहीं. विज्ञान के आविष्कारों के बावजूद अंधविश्वासों के प्रति लोगों का लगाव कम नहीं होता दिखता. इसका ताजा उदाहरण आया है मध्य प्रदेश से जहां शहडोल जिले में बीमारी ठीक करने के लिए तीन महीने की बच्ची की कथित तौर पर गर्म लोहे से 20 बार दागने के बाद मौत हो गई. जिले में इस तरह की यह दूसरी मौत है. पुलिस ने मामले के सिलसिले में 40 वर्षीय महिला फेथ हीलर (आस्था के आधार पर ठीक करने का दावा करने वाले) के खिलाफ मामला दर्ज किया है.
'बच्चों को गर्म सरिया से दागते हैं'
मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में एक महिला आस्था चिकित्सक (faith healer) पारंपरिक तरीके के तहत बीमारियों का इलाज करती है. न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी ने बताया कि 3 महीने की एक बच्ची को पिछले 1 फरवरी को सरकारी मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया था. गर्म लोहे से 20 बार दागे जाने के बाद इलाज के लिए उसे एक निजी संस्थान में रेफर कर दिया गया था. 4 फरवरी की देर रात उसकी मौत हो गई. इससे पहले शुक्रवार को ढाई माह की बच्ची की ऐसी ही हालात में मौत के बाद शव कब्र से निकाला गया था.
सिंहपुर के कठौतिया गांव की निवासी शिशु की मां ने अधिकारियों को बताया था कि बच्चा बीमार था और वह उसे एक महिला आस्था चिकित्सक के पास ले गई, जिसने उसे गर्म लोहे के रॉड से 50 से अधिक बार दागा.
सिंहपुर थाना प्रभारी एमपी अहिरवार ने कहा कि 40 वर्षीय आस्था चिकित्सक के खिलाफ आईपीसी और ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज एक्ट के प्रावधानों के तहत मामला दर्ज किया गया है, लेकिन उसे अभी तक गिरफ्तार नहीं किया गया है.
ओडिशा के कुछ हिस्सों में भी बच्चों ठीक करने के लिए गर्म लोहे से दागने का अंधविश्वास कायम है. ढेंकानाल जिले के भुबन प्रखंड के थोरिया छंदा गांव से एक ताजा घटना हाल ही में सामने आई थी, जहां पेट की बीमारी को ठीक करने के लिए 25 से अधिक बच्चों को लोहे की गर्म छड़ से दागा गया. क्षेत्र के लोगों का मानना है कि मकर संक्रांति के एक दिन बाद अगर बच्चों को गर्म लोहे से दागा जाता है, तो उन्हें भविष्य में पेट की कोई अन्य बीमारी नहीं होगी.
'गुलामों की सजा के लिए इस्तेमाल होता था'
'ब्रैंड' (दागने) शब्द की उत्पत्ति 12वीं सदी में हुई बताई जाती है. 16वीं से 18वीं सदी के बीच अमेरिका, यूरोप, रोम और ब्रिटेन में विशेष रूप से गुलामों को सजा देने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता था. दक्षिण भारत के समुदाय के कुछ वर्गों द्वारा एक धार्मिक परंपरा के रूप में ब्रैंडिंग या दागने का इतिहास रहा है. वध के लिए कसाईखाने के लिए तैयार करने की प्रक्रिया के तहत पशुओं को भी दागा जाता है. 1990 के दशक में भारत के ग्रामीण हिस्सों से बड़े पैमाने पर नवजात शिशुओं को दागने की खबरें आई थीं.
इसका उपयोग पेट में ऐंठन, अन्य विकारों, और अक्सर पीलिया के उपचार के रूप में किया गया है. इस कठोर प्रथा के आधुनिक समय में भी बने रहने का मूल कारण अशिक्षा, अंधविश्वास और स्वास्थ्य सेवाओं तक आम आदमी की पहुंच की कमी है.
भारतीय दंड संहिता (324) के तहत एक आपराधिक अपराध है और यह गंभीर बाल शोषण का भी एक रूप है. इस अमानवीय प्रथा को बढ़ावा देने वाले अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए. जिस समुदाय में यह प्रथा सबसे अधिक है, उसे शिक्षित करने की भी आवश्यकता है. शायद तभी इसे समाप्त किया जा सकता है.
'चमत्कार को नमस्कार करना छोड़ें'
इधर चमत्कारों के जरिये इलाज की बातें भी काफी सामान्य हो चली है. कई हिंदू बाबा तो खुले आम चमत्कार का प्रचार करते हैं और हजारों की संख्या में उनके भक्त उनकी वाहवाही करते हैं. ये बाबा सनातन धर्म के नए पोस्टर बॉय बने बैठे हैं. इसके अलावा मौलवियों को ऊटपटांग हरकतों के जरिए और ईसाई पादरियों को भी प्रभु के नाम पर चंगा करने अक्सर देखा जा सकता है.
लोग इसे नाम तो आस्था का देते हैं, पर वास्तव में यह सही सोच के लिए असमर्थ होने की अवस्था को दर्शाता है. स्वामी विवेकानंद तो जम कर चमत्कारों का मखौल उड़ाते थे. शहरों में पढ़े-लिखे लोगों को इस तरह के चमत्कार के सामने लहालोट होते देखकर तो ताज्जुब ही होता है. पर गांव के लोगों के लिए अगर इसका मुख्य कारण मेडिकल सुविधाओं का उपलब्ध न होना है, तो यह बहुत गहरी चिंता की बात है. स्थानीय प्रशासन को किसी कारण से इस तरह की प्रथाओं को विकसित नहीं होने देना चाहिए और अधिकारियों को व्यक्तिगत रूप से लोगों को जागरूक बनाने का काम करना चाहिए.
(ये आर्टिकल क्विंट के मेंबर्स ओपिनियन के तहत पब्लिश हुआ है. इसमें लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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