पिस्टल कोच जसपाल राणा को इस साल द्रोणाचार्य पुरस्कार न देने के नेशनल स्पोर्ट्स अवार्ड्स कमेटी के फैसले पर विवाद बढ़ता जा रहा है. माना जा रहा था कि युवा पिस्टल निशानेबाजों के कोच के रूप में उन्हें ये पुरस्कार मिलना तय है. उनसे ट्रेनिंग पाकर युवा निशानेबाजों ने कॉमनवेल्थ खेलों, एशियाई खेलों और यूथ ओलिंपिक में कई मेडल जीते.
फैसले के बाद शुरु में कुछेक लोगों ने सवाल उठाए. लेकिन विवाद तब खड़ा हुआ, जब सेलेक्शन कमेटी के सदस्यों और स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के एक अनाम सदस्य ने जसपाल राणा को प्रतिष्ठित पुरस्कार नहीं देने के अपने फैसले पर सफाई दी.
अगर सभी सदस्य इस फैसले से सहमत थे, तो कम से कम उन्हें फैसले के कारणों पर भी एकमत होना चाहिए था. मीडिया के सामने भी वही कारण बताने चाहिए थे.
लेकिन जिन सदस्यों ने सफाई पेश की वो इस बात पर भी सहमत नहीं हैं कि इस अवॉर्ड के लिए भेजे गए तीनों नामों पर फैसला एकमत से लिया गया या उनपर वोटिंग हुई.
निश्चित रूप से फैसला लेना पैनल की सोच और अधिकार क्षेत्र में है. विवाद सिर्फ तब हुआ जब फैसले में शामिल सदस्यों ने अलग-अलग कारण बताने शुरू किए. जसपाल राणा को द्रोणाचार्य पुरस्कार न देने के मामले में भी यही हुआ. अलग-अलग सदस्यों ने अलग-अलग कारण गिनाए.
एक ने कहा कि उनके निशानेबाजों ने टॉप (टारगेट ओलंपिक पोडियम) स्कीम फॉर्म में निजी कोच के रूप में उनका नाम नहीं लिया. दूसरी सदस्य, अंजू बॉबी जॉर्ज का कहना था कि उन्होंने 180 दिनों तक लगातार एथलीट को कोचिंग का जरूरी मानदंड पूरा नहीं किया.
स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के एक अनाम अधिकारी का बयान तो हैरत में डालने वाला था. उन्होंने कहा कि म्यूनिख वर्ल्ड कप फाइनल में जब शूटर मनु भाकर की पिस्टल में खराबी आई तो जसपाल राणा वहां मौजूद नहीं थे.
कितने जायज हैं ये कारण?
द्रोणाचार्य पुरस्कार के मापदंडों में ये कहीं भी नहीं लिखा गया है (जैसा पुरस्कार के नियम कहते हैं) कि एथलीट को अपने टॉप स्कीम फॉर्म में किसी कोच का नाम लिखना जरूरी है. लिहाजा राणा के तहत कोचिंग ले रहे निशानेबाजों का कोच के तौर पर उनका नाम न लिखने को अवॉर्ड न देने का कारण बताना गले नहीं उतरता.
नियमों की बात करें, तो 80 फीसदी वजन इस बात का होता है कि किसी कोच के तहत ट्रेनिंग ले रहे खिलाड़ी ने पिछले 180 दिनों में अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में मेडल जीते हैं या नहीं. निश्चित रूप से मुख्य कोच के रूप में जसपाल राणा की निगरानी में ही तमाम पिस्टल शूटरों ने ट्रेनिंग ली और फिर 2018 में कॉमनवेल्थ, एशियाड और यूथ ओलंपिक में मेडल जीते.
इसकी संभावना भी कम है कि सेलेक्शन कमेटी के सदस्यों ने पिछले कुछ सालों में डॉक्टर करणी सिंह रेंज या दूसरी जगहों पर आयोजित नेशनल कैंप के अटेंडेंस शीट देखे होंगे. इनमें जसपाल राणा ने युवा पिस्टल निशानेबाजों को ट्रेनिंग दी.
इसके बाद भी अगर कोई सदस्य कहता है कि जसपाल ने 180 दिनों तक प्रशिक्षण देने का मापदंड पूरा नहीं किया, तो ऐसा लगता है कि स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के अधिकारियों ने उन्हें यही समझाया है कि सिर्फ नियमों का ही महत्त्व है.
ये बात सभी को अच्छी तरह मालूम हैकि अगर फाइनल में गड़बड़ी हो जाए, तो कोच कुछ नहीं कर सकता. और ऐसा भी नहीं है किजब मनु भाकर का पिस्टल खराब हो गया तो उनके साथ कोई कोच नहीं था.
सबसे अहम बात है कि अपने बयान से मीडिया को गुमराह करने वाले स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के अनाम अधिकारी इस बात से अनजान थे कि द्रोणाचार्य पुरस्कार के लिए आवेदन करने की अंतिम तारीख 30 अप्रैल थी, जबकि म्यूनिच में ISSF वर्ल्ड कप मई महीने में हुआ था.
क्या क्वालिफिकेशन समय से पहले ‘अनुशासन हीनता’ के लिए जसपाल राणा को दोषी ठहराया जा सकता है?
जिन्हें इस पुरस्कार के लिए चुना गया, उनका नाम इस विवाद में घसीटना सही नहीं है. लेकिन क्या सेलेक्शन कमेटी के सदस्य इस बात की गवाही दे पाएंगे कि चुने गए कोच इन सारे मानदंडो पर खरे उतरते हैं. जिन्हें पुरस्कार के लिए चुना गया है, उनमें कम से कम दो तो राष्ट्रीय कोच हैं ही नहीं. तो लगातार 180 दिनों तक अपने एथलीट के साथ रहने का सवाल ही पैदा नहीं होता.
दिलचस्प बात है कि इस फैसले के बाद कुछ अधिकारियों ने आरोप मढ़ने शुरु कर दिये. कमेटी के फैसले को सही बताने के लिए राणा के कोचिंग स्टाइल में खामियां निकालनी शुरु कर दीं. राणा ने एक आचार संहिता बनाई है, जो कुछ एथलीट्स को बेहद कठोर लगती है.
इसलिए अधिकारियों ने आरोप लगाया कि राणा कोच बनने के लिए सही उम्मीदवार नहीं हैं और अपने मिजाज के कारण द्रोणाचार्य पुरस्कार के लिए भी उपयुक्त नहीं हैं. अब नियमों की बात करें, तो ये मानदंड कहीं नहीं लिखे हुए हैं.
और भी हैं विवाद खेल पुरस्कार में
राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार के लिए कमेटी ने अपवाद के रूप में दूसरे एथलीट का चुनाव किया, लेकिन नियमों में भी इसका कोई जिक्र नहीं है. इस पुरस्कार के लिए नियमों के मुताबिक विचार-विमर्श के बाद पैनल ने एक नाम चुना. लेकिन ऐसा लगता है कि उनपर खास किस्म का दबाव पड़ा और पैनल को एक और नाम चुनना पड़ा.
सच्चाई ये है कि राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों में इस हद तक गिरावट के बावजूद एथलीट्स और कोच में इन सम्मानों की सूची में अपना नाम शामिल करने की होड़ लगी है.
वक्त आ गया है कि मंत्रालय उस प्वाइंट सिस्टम की समीक्षा करे, जिसे 2014 में दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के बाद लागू किया गया था. साल में एक बार दिए जाने वाले ऐसे उत्कृष्ट पुरस्कारों को निश्चित रूप से विवादों से परे होना चाहिए.
ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए, जिसमें आज के ‘अर्जुन’ द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेताओं का फैसला न करें. बॉक्सिंग लेजेंड एमसी मैरी कॉम ने अपने ‘निजी कोच’ के तौर पर छोटे लाल यादव को नामित किया था. ये उनका बड़प्पन था कि जब पुरस्कार कमेटी के सामने कोच का नाम आया, तो उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया था.
चूंकि इबोम्चा सिंह (2010) और सागर मल दयाल (2016) को पहले ही उनके कोच के तौर पर सम्मान दिया जा चुका था, कमेटी के पास छोटे लाल यादव का दावा खारिज करने उचित कारण थे.
वो उस कमेटी की अध्यक्ष थीं, जिसने 2016 में द्रोणाचार्य पुरस्कार के लिए सागर मल दयाल के नाम की सिफारिश की थी. अगर किसी दूसरे बॉक्सर ने छोटे लाल यादव को नामित किया होता, तो शायद उन्हें भी ये पुरस्कार हासिल हो चुका होता.
(जी राजारामन पिछले 35 सालों से खेल जगत पर लिख रहे हैं और कमेंट कर रहे हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके निजी हैं. इसमें क्विंट हिंदी की सहमति जरूरी नहीं है.)
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