वीडियो एडिटर: दीप्ति रामदास
राजस्थान का कांग्रेस का एक महीने पुराना संकट समाप्त हो गया. लेकिन जिस तरीके से समाप्त हुआ उसकी सिर्फ एक हेडलाइन है और वो है विचित्र किंतु सत्य. क्योंकि ऐसा कैसे हो सकता है कि गिरती हुई सरकार को बचाने में कांग्रेस कामयाब हो जाए. लेकिन दरअसल यही हुआ है.
सचिन पायलट का खेमा इस बात के लिए मान गया है कि वो पार्टी में बना रहेगा. इसके लिए प्रियंका गांधी, राहुल गांधी की सचिन पायलट से मुलाकात हुई. पायलट को आश्वासन दिया गया कि उनकी शिकायतों पर ध्यान दिया जाएगा. ये साफ कर दिया गया कि अभी राजस्थान में कोई नेतृत्व परिवर्तन नहीं होगा. जैसी स्थिति है वैसी ही बनी रहेगी. लेकिन एक कमेटी बना दी गई.
एक चीज और दिख रही है कि फिलहाल सचिन पायलट उपमुख्यमंत्री या प्रदेशाध्यक्ष के रूप में जयपुर वापस नहीं लौट रहे हैं. ये हो सकता है कि अभी या कुछ दिनों बाद उनके कुछ समर्थक मंत्री बना दिए जाए.
कांग्रेस ने सरकार बचाने के लिए अप्रत्याशित कदम उठाया है.लेकिन कई लोगों का मानना है कि पायलट खेमा और अशोक गहलोत खेमे में ये युद्धविराम है, समझौता नहीं. क्योंकि दोनों तरफ स्थिति थोड़ी असहज ही है.
कांग्रेस ने कैसे किया ये चमत्कार?
अशोक गहलोत को इस बगावत की भनक पहले ही मिल गई थी. जिसके बाद उन्होंने सरकार बचाने लिए कवायद शुरू कर दी थी. इस वजह से कांग्रेस पार्टी इनके साथ थी. इस बीच सचिन पायलट को जितने विधायकों की उम्मीद थी, वो उनके समर्थन में नहीं आए. पायलट ने हरियाणा में बीजेपी की मेहमानवाजी भी ली, लेकिन फिर भी उतने विधायक नहीं जुटा पाए.
इसके अलावा अशोक गहलोत के कहने के बावजूद राज्यपाल ने विधानसभा सत्र बुलाने में देरी की. समय मिलने की वजह से ऐसा लग रहा था कि बीजेपी और सचिन पायलट को मौका मिल गया है कि वो कुछ विधायको को तोड़ सकते हैं लेकिन वो नहीं हो पाया. राज्यपाल का 14 अगस्त को विधानसभा सत्र बुलाना गहलोत के लिए मददगार ही हुआ. अगर राज्यपाल ने उसी वक्त विधानसभा सत्र बुलाया होता, तो शायद आज स्थिति दूसरी भी हो सकती थी.
सीबीआई, ईडी, आयकर विभाग के परिदृश्य में आने के साथ ही, स्पीकर के हाथ बांधना, अदालतों में कार्रवाई का जाना, बोलने के अधिकार के सवाल पर देश के बड़े-बड़े वकीलों का सामने आना स्थिति को अलग ही रंग दे रहा था. बीजेपी आमतौर पर सत्तापलट के लिए जानी जाती है. लेकिन उनका गेमप्लान इसबार राजस्थान में नहीं चल पाया.
बीजेपी का अपने विधायकों को गुजरात ले गई. आमतौर पर ये होता आया है कि बीजेपी की वजह से विपक्षी पार्टियां अपने विधायकों को रिजॉर्ट में ले जाती हैं. यहां पर इसका उलटा ही देखने को मिला.
अशोक गहलोत के अनुभव और रणनीति से सरकार बची हो ऐसा ही नहीं है. कांग्रेस ने बहुत अच्छी कोई रणनीति लगाई हो ये भी कहना उतना सही नहीं है. इसमें कहीं न कहीं बीजेपी के अंदर नेतृत्व का भी मसला है.
वसुधंरा राजे कांग्रेस सरकार गिराने के पक्ष में नहीं थीं. वसुंधरा राजे की उदासीनता ने भी गहलोत सरकार को बचाने में मदद की. इसके अलावा बीजेपी नेता गजेंद्र सिंह शेखावत के विधायकों से बातचीत का कथित टेप सामने आने से भी नुकसान हुआ.
बीजेपी की आदत में नहीं कि उनका कोई ऑपरेशन फेल हो लेकिन लगभग सभी जगह से मदद के बावजूद राजस्थान में बीजेपी का ऑपरेशन कामयाब नहीं हुआ.
कांग्रेस पार्टी लगातार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के लिए, निर्णय नहीं ले पाने के लिए, बीजेपी के खिलाफ कोई बहुत बड़ी कहानी बनाकर अपना संदेश पहुंचा पाने में नाकामयाब रही है. ऐसे में अशोक गहलोत की लड़ाई ने एक छोटा सा रास्ता दिया है कि बीजेपी जो चाहेगी वो हमेशा नहीं कर पाएगी.
इस परिदृश्य में प्रियंका गांधी की भूमिका भी दिखी है. लेकिन आगे ये भूमिका कैसी होगी, राहुल गांधी कब दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष बनेंगे, ये सवाल बने हुए हैं.
इसमें राजस्थान के कल्चर की तारीफ करनी पड़ेगी. राजस्थान आमतौर पर इस तरह के आया राम, गया राम या छीनझपटी वाली राजनीति के लिए नहीं जाना जाता है.
राजस्थान के राजनीतिक भविष्य के बारे में बातें चलती ही रहेंगी, लेकिन मूल सवाल ये है कि लोकतंत्र कैसे चले, पार्टियां कैसे चलें? एक के बाद एक जीती हुई पार्टियों की सरकार गिराना, दलबदल कानून का दुरूपयोग करना, अदालतों का सहारा लेना ये एक गंभीर मसला बना हुआ है.
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