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चंद्रयान 2: क्या चांद के एक हिस्से पर हो सकता है भारत का हक?

क्या कोई फायदे के लिए चांद के प्राकृतिक संसाधनों का मालिक हो सकता है?

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वीडियो एडिटर: आशुतोष भारद्वाज

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1996 में कुमार सानू ने समझो दावा कर दिया था "मेरा चांद मुझे आया है नजर"

2019 में, भारत ने पूछा, "क्या उस चांद पर पानी और मिनरल्स भी नजर आ सकते हैं?"

तो अब, चंद्रयान-2 मिशन आखिरकार चांद की सतह को छू लेगा. ऐसे में सवाल ये उठता है कि चांद का भी कोई मालिक हो सकता है क्या?

क्या भारत चांद के साउथ पोल पर अपना झंडा गाड़कर ये दावा कर सकता है कि "भाई ये तो अब हमारा है?" क्योंकि, अब तक तो जमीन के एक टुकड़े पर राष्ट्रीय झंडा लगाकर उस पर मालिकाना हक का दावा किया जाता रहा है.तो मिसाल के तौर पर अगर आम्रपाली वहां घर बना ले तो क्या वो उस जमीन पर हक जता सकती है? पहले धरती पर तो बना लो, फिर चांद की सोचेंगे.

इसका संक्षेप में जवाब है-नहीं. न तो भारत और न ही कोई और चांद को आपस में बांट सकता है.  हालांकि इसका लंबा जवाब 1967 में संयुक्त राष्ट्र की 'आउटर स्पेस ट्रीटी' से मिलता है. शीत युद्ध के चरम दौर में अमेरिका, ब्रिटेन सोवियत संघ और भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर किया था.

इसमें खास तौर से चांद को लेकर ये कहा गया था कि कोई भी देश चांद पर हक नहीं जता सकता है.

इसी वजह से 50 साल पहले जब नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर अमेरिकी झंडा लगाया तो इसका मतलब ये नहीं था कि चांद अमेरिका का हो गया. आर्मस्ट्रांग के चांद पर उतरते समय का शब्द “A small step for man, a giant leap for mankind” यानी “इंसान का एक छोटा कदम, मानव जाति के लिए एक बड़ी छलांग”साफ-साफ समझाता है कि ये न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरी इंसानी समुदाय के लिए एक बड़ी बात थी.  

समझौते में ये भी कहा गया था कि चांद पर "सभी राज्यों को खोज और उपयोग करने की इजाजत है" लेकिन ये "सभी देशों के हितों में किया जाएगा". आसान शब्दों में, चांद सभी का है और इसलिए किसी का नहीं है. 1967 में बड़ी अंतरिक्ष शक्तियों ने इस पर हस्ताक्षर किया क्योंकि तब उन्हें लगता था कि चांद के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन असल में मुमकिन नहीं है.

चांद में अचानक नए सिरे से दिलचस्पी बढ़ी है. चाहे वो अमेरिका हो, NASA हो, अमेजन के जेफ बेजोस, टेस्ला के एलोन मस्क, चीन और रूस सभी ने हमारे इस  आसमानी पड़ोसी पर अपनी नजरें गड़ा दी हैं.  पर क्यों? वजह वही है जिसके लिए चंद्रयान - 2 मिशन लॉन्च किया गया.

चंद्रयान - 2 पर सरकार ने 978 करोड़ रुपये खर्च किए हैं ताकि ये पता लगाया जा सके कि पानी, ऑक्सीजन और आइसोटोप हीलियम -3 जो ईंधन के लिए काफी अहम हैं, वो वहां मौजूद हैं क्या?अगला कदम इन संसाधनों को हासिल करना होगा.

चांद पर कोलोनाइजिंग, बसावट सबसे बड़ा सवाल नहीं है. दुनिया ये जानना चाहती है कि क्या कोई फायदे के लिए चांद के प्राकृतिक संसाधनों का मालिक हो सकता है?

जाहिर सी बात है, अमेजन हमारी ऑनलाइन शॉपिंग से मिले पैसे को अंतरिक्ष में खोज पर ऐसी ही तो नहीं लगा रहा. 1979 में संयुक्त राष्ट्र की "मून ट्रीटी" में कहा गया था कि "चांद और उसके प्राकृतिक संसाधन मानव जाति की साझा विरासत हैं."

"मानव जाति की साझा विरासत?"

अमेरिका और सोवियत ने कहा "शुक्रिया, लेकिन माफ करो भाई." उन्होंने चांद को साझा विरासत मानने से इनकार कर दिया क्योंकि अब चांद पर मौजूद संसाधन को हासिल करना मुमकिन दिख रहा है. तो, हम 2019 में कहां खड़े हैं?

इस पर दुनिया 2 तरह के विचारों में बंटी है. अमेरिका और यूरोप जैसे देश 'फाइंडर्स कीपर्स' नीति में विश्वास करते हैं. यानी जिसने ढूंढा वो ही रखे. 2015 में, अमेरिका ने 'कमर्शियल स्पेस लॉन्च कॉम्पिटिटिवनेस एक्ट' पारित किया. जो मूल रूप से अपने नागरिकों को अधिकार देता है कि वो कानूनी तौर पर उन संसाधनों को बेच सकते हैं. जो उन्हें एस्टेरॉयड्स से मिलते हैं. जबकि रूस और ब्राजील जैसे देशों को लगता है कि चांद के संसाधन पूरी मानव जाति के लिए हैं.

और जहां तक हम भारतीयों का सवाल है, अगर हमें ऐसे जगह माइग्रेट करना पड़े, जहां बड़े-बड़े गड्ढे, जहरीली धूल, साफ पानी और तापमान की कोई गारंटी नहीं हो.जहां तापमान 150 डिग्री सेल्सियस तक जाता हो तो कोई बात नहीं...ये तो हमें बिल्कुल घर जैसा ही फील देगा.

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