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कट्टरता-क्रूरता के खिलाफ इन 4 हिंदुस्तानियों की बात गौर से सुनिए

‘मौजूदा वक्त आजादी के बाद का सबसे काला दौर है’

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वीडियो एडिटर: मोहम्मद इरशाद\पूर्णेन्दु प्रीतम

कैमरा : नीरज गुप्ता

कठुआ और उन्नाव के बलात्कार मामलों के बाद देश के बुद्धिजीवी वर्ग में बेचैनी है. उन्हें लग रहा है कि आजादी के बाद यह देश का सबसे काला दौर है. क्विंट ने मौजूदा माहौल पर देश के 4 पूर्व नौकरशाहों से बात की. ये लोग देश में बढ़ती कट्टरता और क्रूरता के लिए सीधे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार मानते हैं.

रिटायर्ड IAS, IPS, IFS और कई दूसरी केंद्रीय सेवाओं के 49 अफसरों ने हाल में पीएम मोदी को एक खुला खत भी लिखा. खत की कड़ी भाषा में उनका गुस्सा झलकता है लेकिन हमसे बातचीत में उनकी नाराजगी अलग रूप में सामने आई.

अगर एक समुदाय को लगता है कि वो सुरक्षित नहीं हैं. अगर एक जाति विशेष को लगता है कि उन्हें टॉर्चर किया जाएगा. अगर माहौल ऐसा ही रहा तो पूछना पड़ेगा कि एक बंटवारा 1947 में हुआ था, और कितने बंटवारे आप चाहते हैं? 
मीरा बोरवणकर, रिटायर्ड आईपीएस
जो अपराध कर रहे हैं , सरकार उन्हीं के साथ मिली हुई है. यानी नारा तो था ‘बेटी बचाओ’ लेकिन लगता है कि असल में है ‘रेपिस्ट बचाओ’.
एन सी सक्सेना, रिटायर्ड आईएएस
नफरत का जो वातावरण बना है वो उनकी (बीजेपी की) राजनीति का अहम हिस्सा है. उसी के आधार पर चुनाव लड़े जाते हैं और जीते जाते हैं.
हर्ष मंदर, रिटायर्ड आईएएस
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सीधे प्रधानमंत्री को संबोधित करने को लेकर इन अफसरों का कहना है कि बीजेपी में ऊपर के दो लोग ही एजेंडा तय करते हैं लिहाजा उन्होंने सीधे पीएम को ही लिखना ठीक समझा. खत लिखने वालों में से ज्यादातर 1999 में बनी वाजपेयी सरकार का हिस्सा रहे हैं लेकिन उनका कहना है कि इस सरकार के कार्यकाल में सांप्रदायिकता, महिलाओं के खिलाफ अपराध और दलितों पर अत्याचार जैसी घटनाएं बढ़ी हैं.

ये एक बेहद काला दौर है जिसमें समाज को, देश को बांट दिया गया है. जाति पर, धर्म पर विभाजन हो रहा है, महिलाओं पर अत्याचार बढ़ रहा है. उसके बाद (कठुआ और उन्नाव मामलों में) आरोपियों को संरक्षण देना, ये एक ऐसा प्वाइंट था जब हमें लगा कि हमें आगे आकर बोलना चाहिए.
मीरा बोरवणकर, रिटायर्ड आईपीएस
पिछले 2-3 साल में दलितों पर अत्याचार और अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपराध जैसे मामलों में कमी आने के बजाए बढ़ोतरी हुई है.
एन सी सक्सेना, रिटायर्ड आईएएस
हमारा निजाम नाकाम साबित हुआ है. अगर ऐसी (कठुआ और उन्नाव) घटनाएं हमारे जिलों में हुई होती तो हम उसेअपनी नाकामी मानते.
वजाहत हबीबुल्ला, रिटायर्ड आईएएस
एक पैटर्न सा बना है जिसमें ना सिर्फ आप किसी को मार रहे हैं और रेप कर रहे हैं बल्कि बहुत क्रूरता से कर रहे हैं. आजादी की लड़ाई और संविधान में जिस तरह के भारत की कल्पना की गई थी उससे हम बहुत दूर होते जा रहे हैं.
हर्ष मंदर, रिटायर्ड आईएएस
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पूर्व नौकरशाहों के मुताबिक कठुआ और उन्नाव की घटनाएं सामान्य अपराध नहीं हैं. उनके मुताबिक यह समय हमारे अस्तित्व के संकट का समय है. प्रधानमंत्री को कठुआ और उन्नाव के पीड़ित परिवारों से माफी मांगने, मामलों की फास्ट ट्रैक जांच करवाने जैसी कई सलाह भी दी गई हैं.

जब सरकार के कैबिनेट मंत्री, बीजेपी के सीनियर नेता नफरत की बात करते हैं.अखलाक के तथाकथित हत्यारे को तिरंगे में लपेटा गया. ऐसे समय में भी उनका (पीएम मोदीका) हस्तक्षेप नहीं हुआ. तो वो जिन चीजों पर बोलते हैं या नहीं बोलते हैं वो बहुत मायने रखता है. सबको दिख रहा है कि नफरत का जो वातावरण बना है वो उनकी राजनीति का अहम हिस्सा है. उसी के आधार पर चुनाव लड़े जाते हैं और जीते जाते हैं. 
हर्ष मंदर, रिटायर्ड आईएएस
प्रधानमंत्री ने कहा है, अच्छी बात है. महबूबा मुफ्ती ने एक्शन भी लिया है. लेकिन कितने दिन बाद. कठुआ का मामला तो 17 जनवरी का है. 
वजाहत हबीबुल्ला, रिटायर्ड आईएएस
देश में जो बहुसंख्यक और ताकतवर समुदाय है उन्हें संगठित होने की क्या जरूरत है. सशक्तिकरण की जरूरत को दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को है. ये चिंता की बात है. आरएसएस जैसे संगठन जर्मनी की नाजी हुकूमत की याद दिला रहे हैं.
एन सी सक्सेना, रिटायर्ड आईएएस
हमने जमीनी हकीकत दिखाई है. जो हिंदुत्व के विरोध में तार्किक बात करता है उसका मर्डर पुणे में, बंगलुरू में हुआ है. हमने हवा-हवाई बात नहीं की है. सरकार अगर इन बलात्कार, हत्याओं को रोकने के बजाए संरक्षण दे रही है तो हमारा गुस्सा कहीं तो निकलेगा.
मीरा बोरवणकर, रिटायर्ड आईपीएस

साफ है कि बरसों तक देश के प्रशासनिक ढांचे का हिस्सा रहे इन नौकरशाहों की नाराजगी चरम पर है. क्विंट से बातचीत में उन्होंने ये भी साफ कर दिया है कि सिर्फ एक चिट्ठी लिखकर वो चुप नहीं बैठने वाले. उनमें से ज्यादातर लोग देश के अलग अलग हिस्सों में यात्राएं कर रहे हैं, लोगों से मिल रहे हैं और उनके सरोकार दर्ज कर रहे हैं.

तो चुनाव के आखिरी साल में क्या प्रधानमंत्री इसे एक चेतावनी के तौर पर लेंगे या मुफ्त की सलाह मानकर नजरअंदाज कर देंगे?

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