एडिटर: वरुण शर्मा, अभिषेक शर्मा
प्रोड्यूसर:स्मृति चंदेल
नोटबंदी के बाद मध्यप्रदेश के भोपाल -सीहोर के पास बडि्झरी गांव को एमपी के पहले कैशलेस गांव का दर्जा दिया गया था. लेकिन यहां के लोगों की सीमित आय के कारण कैशलेस ट्रांजेक्शन एक सपना बनकर रह गया है. कई तरह के एप्लीकेशन और स्वाइप मशीन होने के बावजूद लोग अब सिर्फ कैश का इस्तेमाल करते हैं.
स्वाइप मशीन रखनेवाले दुकानदारों का कहना है कि मशीन के इस्तेमाल करने से उन्हें नुकसान का सामना करना पड़ता है. उनका मानना है कि स्वाइप मशीन के जरिए ग्राहकों से पैसे लेने पर दुकानदार का पैसा ज्यादा कटता था.
एक दुकानदार अनिल तिलक का कहना है 100 रुपये के ट्रांजेक्शन पर 98.50 उनके खाते में आते हैं. अनिल के मुताबिक से साफ देखा जा सकता है दुकानदार को स्वाइप मशीन या एप्लीकेशन से पैसे लेने में नुकसान का सामना करना पड़ता है.
खाद-बीज बेचने वाले कुछ ही लोग स्वाइप मशीन से पेमेंट करते हैं. किसानों का मानना है कि कैश का इस्तेमाल करने पर उन्हें नुकसान नहीं होता और पैसे भी नहीं कटते. यहां पर स्वाइप मशीन के बदले बायोमेट्रिक मशीनें भी लगाईं गईं. लेकिन इससे भी सिर्फ 10 परसेंट ही लेन देन किया जाता है. यही नहीं अधिकतर दुकानदारों ने स्वाइप मशीने बैंकों को लौटा दी है.
इस गांव में दो पीढ़ियों के विचार भी अलग-अलग नजर आए. जहां पुराने लोग अभी भी कैश पर भरोसा करते हैं, वहीं युवा पेमेंट के नए-नए साधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन जब थोक में सामान बेचा जाता है तो सारा लेन-देन कैश में ही किया जाता है.
लोहे का काम करने वाले रामप्रसाद के पास 'जन धन' खाता है, लेकिन राप्रसाद का कहना है कि बिना पैसों के कार्ड का क्या करें. ऐसे में सवाल ये उठता है कि रोजाना 200 रुपये की आमदनी वाले परिवार के लिए कैशलेस लेबल के क्या मायने हैं. ये कहना भी गलत नहीं होगा की नोटबंदी के वक्त देश को कैशलेस बनाने का सपना अब हवा-हवाई साबित हो रहा है.
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