कहते हैं पुलिस चाह ले तो मस्जिद या मंदिर के बाहर से चप्पल भी चोरी नहीं हो सकता, लेकिन एक स्लोगन और है- जब-जब सत्ता डरती है, पुलिस को आगे करती है.. और अब हाल ऐसा है कि पुलिस सत्ता के साथ ता थैया ता थैया करती दिख रही है.
दरअसल, असम पुलिस की चोरी पकड़ी गई है. असम पुलिस मैन्युफैक्चर्ड केस बनाती है, झूठे एफआईआर लिखती है, नियम कायदे कानून सब ताक पर. ये मैं नहीं असम की एक अदालत ने कहा है. क्योंकि असम पुलिस ने गुजरात से इंडिपेंडेंट MLA जिग्नेश मेवाणी (Jignesh Mevani) को फर्जी केस में गिरफ्तार किया था और ये भी मैं नहीं अदालत ने कहा है. अब पुलिस वालों ने जिस कानून के पालन की शपथ ली है अगर वही भूल जाएंगे तो हम पूछेंगे जनाब ऐसे कैसे?
असम के बारपेटा की अदालत ने गुजरात की वडगाम विधानसभा सीट से विधायक जिग्नेश मेवाणी को महिला कांस्टेबल पर कथित हमले के मामले में जमानत दे दी है.
अपने फैसले में बारपेटा जिला एवं सत्र न्यायाधीश अपरेश चक्रवर्ती ने असम पुलिस को फटकार लगाई, असम पुलिस पर "झूठी FIR" दर्ज करने और "अदालत की प्रक्रिया और कानून का दुरुपयोग करने" की बात कही.
अदालत ने क्या कहा है वो भी बताएंगे लेकिन उससे पहले पुलिस की पुलिसगिरी के बारे में आपको बताते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर ट्वीट करने के आरोप में असम पुलिस ने बीजेपी के एक नेता की शिकायत पर 20 अप्रैल की देर रात गुजरात के पालनपुर के सर्किट हाउस से जिग्नेश मेवाणी को गिरफ्तार किया. फिर पुलिस जिग्नेश को लेकर असम चली गई. जिग्नेश को पीएम पर ट्वीट के मामले में बेल मिल गई, लेकिन जमानत के तुरंत बाद 25 अप्रैल को असम पुलिस ने दोबारा गिरफ्तार कर लिया.
पुलिस ने आरोप लगाया कि जिग्नेश मेवाणी ने महिला पुलिस को गाली दी, धक्का दिया, गलत तरीके से छूआ. लेकिन यहीं असम पुलिस फंस गई.
अदालत ने अपने फैसले में कहा है, "अगर तत्काल मामले को सच मान लिया जाता है और मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज महिला के बयान के मद्देनजर ... जो नहीं है, तो हमें देश के आपराधिक न्यायशास्त्र को फिर से लिखना होगा."
कोर्ट ने कहा,
"FIR के विपरीत, महिला कॉन्स्टेबल ने मजिस्ट्रेट के सामने एक अलग कहानी बताई है. महिला की गवाही को देखते हुए ऐसा लगता है कि आरोपी जिग्नेश मेवाणी को लंंबे समय के लिए हिरासत में रखने के उद्देश्य से तत्काल मामला बनाया गया है. यह अदालत की प्रक्रिया और कानून का दुरुपयोग है."
पुलिस ने नहीं किया कोड ऑफ मॉडल कंडक्ट का पालन
यही नहीं अदालत ने असम पुलिस के बारे में जो-जो कहा है उससे उसका सिर शर्म से झुक जाना चाहिए. लेकिन इससे पहले आपको असम पुलिस की कारिस्तानी की एक और कहानी सुनाते हैं. पीएम मोदी पर ट्वीट करने के आरोप में जिग्नेश को गिरफ्तार करने के लिए असम की पुलिस फुल स्पीड में गुजरात पहुंच गई. और यहां भी कानूनी गड़बड़ियां की गई. असम पुलिस ने कोड ऑफ मॉडल कंडक्ट का पालन नहीं किया है, जो सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में अरुणेश कुमार फैसला के तहत तय किया था.
मूल रूप से, जहां किसी व्यक्ति पर ऐसे अपराधों का आरोप लगाया गया है जहां अधिकतम सजा सात साल की कैद या उससे कम है, पुलिस को पहले सीआरपीसी की धारा 41 ए के तहत प्रक्रिया का पालन करना चाहिए. मतलब उन्हें नोटिस भेजकर सवालों का जवाब देने और जांच में सहयोग करने के लिए कहना चाहिए, लेकिन न.. पुलिस ने ऐसा नहीं किया.
पुलिस ने धारा 41 की कोई भी पूर्व शर्त नहीं मानी. मेवाणी निर्वाचित विधायक हैं, इसलिए उनके फरार होने की आशंका कम है. अपराध उनकी एक ट्वीट से संबंधित है, इसलिए गवाहों को धमकाने/डराने का कोई सवाल ही नहीं है. चूंकि ट्वीट्स को एडिट नहीं किया जा सकता है, इसलिए गवाहों के साथ छेड़छाड़ का भी सवाल नहीं है. इसलिए असम के कोकराझार में पुलिस को मेवाणी को नाटकीय रूप से गिरफ्तार करने से पहले थोड़ा कानून पढ़ना चाहिए था.
अब आते हैं जिग्नेश मेवाणी के बेल ऑर्डर में अदालत ने और क्या-क्या कहा है.
जगहंसाई करने वाली असम पुलिस को अदालत ने "राज्य में चल रही पुलिस ज्यादतियों" का हवाला देते हुए गुवाहाटी हाई कोर्ट से पुलिस बल को "खुद में सुधार" करने का निर्देश देने का आग्रह किया है.
अदालत ने कहा,
"हमारी मेहनत से कमाए गए लोकतंत्र को पुलिस राज्य में बदलना अकल्पनीय है और अगर असम पुलिस भी ऐसा ही सोच रही है, तो यह विकृत सोच है."
असम पुलिस ही नहीं देश के कुई और राज्यों की पुलिस भी ऐसे ही काम कर रही है
ये मामला तो नेता से जुड़ा था.. सोचिए आम आदमी के साथ पुलिस क्या और कैसे करती होगी. पुलिस ताकत का कैसे गलत इस्तेमाल करती है इसका सबूत हमने डॉक्टर कफील खान के केस में भी देखा था.
कफील खान को भड़काऊ भाषण देने के आरोप में यूपी पुलिस ने गिरफ्तार किया था. 7 महीने जेल में रहना पड़ा, जमानत मिली तो NSA लगा दिया. 7 महीने बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने NSA निरस्त करते हुए कहा था कि कफील खान का भाषण राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बढ़ावा देने वाला है.
यही हाल दिल्ली दंगे के आरोप में आसिफ तन्हा, नताशा नरवाल और देवांगना कालिता के साथ भी देखने को मिला. दिल्ली हिंसा मामले में इन लोगों पर Unlawful Activities (Prevention) Act यानी के UAPA लगाया गया था. लेकिन 5 जून 2021 को दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और जस्टिस अनूप जे. भंभानी की बेंच ने कहा,
“हमारे सामने कोई भी ऐसा विशेष आरोप या सबूत नहीं आया है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि याचिकाकर्ताओं ने हिंसा के लिए उकसाया हो, आतंकवादी घटना को अंजाम दिया हो या फिर उसकी साजिश रची हो, जिससे कि UAPA लगे.”
कोर्ट ने ये भी कहा कि सरकार का विरोध और आतंकवाद अलग चीजें हैं.
क्विंट ने अभी हाल ही में पुलिस के गुनाहों की सच्चाई सामने लाने के लिए 'हिरासत में हत्या' नाम की एक सीरीज की थी. पुलिस किस हद तक कानून को धज्जियां उड़ा रही है, लोगों की जिंदगी छीन रही है, ये जानने के लिए आप लिंक पर क्लिक कर वीडियो देख सकते हैं.
NHRC के आंकड़ों के मुताबिक देश में हर दिन औसतन 7 लोगों की हिरासत में मौत रिपोर्ट होती है.
अब सवाल है कि क्यों इस देश में पुलिस रिफॉर्म की बात नहीं हो रही है. पुलिस सुधार पर जूलियो रिबेरो, के पद्मनाभैयाह और वीएस मलिमथ की रिपोर्ट्स पर क्यों नहीं अमल हो रहा. सितंबर 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पुलिस रिफॉर्म के लिए 7 मुख्य निर्देश दिए थे. लेकिन वो भी आजतक जमीनी हकीकत बनते नहीं दिखा.
पुलिस रिफॉर्म पर अदालत के सुझाव
जिग्नेश मेवानी के केस में सेशन कोर्ट के जज ने कहा कि हाई कोर्ट को
"कानून और व्यवस्था की ड्यूटी में लगे हर पुलिस कर्मी को बॉडी कैमरा पहनने, किसी आरोपी को गिरफ्तार करते समय या किसी आरोपी को किसी स्थान पर ले जाते समय गाड़ियों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का निर्देश देने पर विचार करना चाहिए."
साथ ही सभी थानों के अंदर सीसीटीवी कैमरे भी लगाए जाने चाहिए.
क्या पुलिस अपने अवैध ताकतों का इस्तेमाल करने के लिए रिफॉर्म से दूर रह रही है? क्यों बार-बार अदालतें पुलिस के एक्शन पर कड़ा रिएक्शन दे रही हैं? क्यों पुलिस पब्लिक की पुलिस न बनकर सत्ता की पुलिस बनने को तैयार है? भले ही सिंघम, दबंग जैसी फिल्मों के जरिए सुपरकॉप की ईमेज गढ़ने की कोशिश हो रही हो लेकिन पुलिस बार-बार झूठी कहानी गढ़ते पकड़ी जा रही है. इसलिए हम ऐसे हर झूठ पर पूछेंगें जनाब ऐसे कैसे?
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