वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के दोनों गुटों के रहनुमा मौलाना अरशद मदनी और मौलाना महमूद मदनी ने हाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तारीफ की और कुछ अहम मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना समर्थन भी दिया. पहले दोनों मौलानाओं ने पीएम मोदी को लेकर कुछ तीखे बयान दिये थे. 2014 में महमूद मदनी ने कहा था कि "मोदी को 2002 गुजरात दंगों के लिए सजा मिलनी चाहिए" और "मुसलमान कभी मोदी का साथ नहीं देंगे"
2014 में ही मौलाना अरशद मदनी ने कहा था कि मोदी सत्ता में आए तो देश बंट जाएगा. तो अब 5 साल बाद मोदी को लेकर इनकी सोच में ये बदलाव क्यों?
ये जानने के लिए हमें जमीयत के सियासी नजरिए को समझना पड़ेगा. जमीयत उलेमा-ए-हिंद का ताल्लुक दारुल उलूम देवबंद से है, जो दक्षिण एशिया की अहम मुस्लिम संस्थाओं में माना जाता है. जमीयत की सियासी सोच का सबसे बुनियादी उसूल है ‘मुत्तहिद कौमियत’ जिसका मतलब है ‘समग्र राष्ट्रवाद’
1938 में मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने किताब लिखी थी 'मुत्तहिद कौमियत और इस्लाम'. उनका कहना था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग मजहब जरूर हैं पर एक ही कौम, एक ही वतन का हिस्सा हैं.
हुसैन अहमद मदनी की मुत्तहिद कौमियत की बात मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की सियासत के बिल्कुल खिलाफ थी. मुस्लिम लीग का मानना था कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग मजहब ही नहीं दो अलग कौम भी हैं.
हुसैन अहमद मदनी ने मदीने में हजरत मुहम्मद के दौर की मिसाल दी. उन्होंने कहा कि
“जिस तरह उस वक्त मदीने में मुसलमान और यहूदी एक कौम का हिस्सा बने, उसी तरह आजाद हिंदुस्तान में हिंदू और मुसलमान भी एक कौम का हिस्सा बन सकते हैं.”
जब भारत आजाद हुआ तो जमीयत का ये मानना था कि ‘हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक समझौता हुआ है, जिसके तहत भारत में एक सेकुलर जम्हूरियत कायम हुई है और इस समझौते का सबसे बड़ा सबूत भारत का संविधान है. जमीयत का कहना था कि, भारत के संविधान की हिफाजत करना हिंदुस्तान के हर मुसलमान का फर्ज है. जमीयत की सियासी सोच यही है.
अब आज के दौर पर वापस आते हैं. मौलाना अरशद मदनी और मौलाना महमूद मदनी ने अब RSS से जो बातचीत कायम की वो इसी मुत्तहिद कौमियत की सोच का नतीजा है.
उनका मानना है कि जिस तरह आजादी के वक्त हिंदुओं की नुमाइंदगी कांग्रेस कर रही थी, आज वो दर्जा बीजेपी और आरएसएस का है. इस हिसाब से हिंदुओं के रहनुमा हुए पीएम मोदी और आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत. ऐसे में जमीयत की राय में इनसे बातचीत करना जरूरी है.
जमीयत की इस मुहिम के पीछ एक और वजह है और वो है, भारत के मुसलमानों में एक कशमकश का माहौल. 2014 और खास कर 2019 चुनाव के बाद कई मुसलमानों के जेहन में एक बड़ा सवाल है.
‘मोदी के भारत में कैसे अपना वजूद बरकरार रखा जाए?’
आजादी से अब तक मुसलमानों ने कांग्रेस, जनता दल और बीएसपी जैसी 'सेकुलर' पार्टियों का साथ दिया, पर अब तो सभी पार्टियों की बीजेपी के हाथों शिकस्त हुई है. इस हार की बहुत बड़ी वजह है हिंदुओं में पीएम मोदी की लोकप्रियता.
इस हकीकत के मद्देनजर, कुछ मुसलमानों का मानना है कि बीजेपी और आरएसएस से बातचीत करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. जमीयत की भी यही सोच लगती है, लेकिन क्या इस बातचीत से कुछ हासिल हो रहा है?
मौलाना अरशद मदनी और मौलाना महमूद मदनी शायद ये भूल रहे हैं कि मुत्तहिद कौमियत एकतरफा समझौता नहीं है.
बीजेपी और आरएसएस की तरफ उनकी नरमी के बावजूद मुसलमानों की हालत में कोई तब्दीली नहीं आई है, बल्कि अल्पसंख्यकों पर जुल्म बढ़ा है. क्या जमीयत ने 1947 में पाकिस्तान का विरोध ये दिन देखने के लिए किया था कि 70 साल बाद उन्हें 'मुसलमानों पाकिस्तान जाओ' के ताने सुनने पड़े?
मुत्तहिद कौमियत के लिए बीजेपी और आरएसएस की तारीफ करना जरूरी नहीं. इसके लिए जरूरी है हुकूमत को अपने फर्ज याद दिलाना और अल्पसंख्यकों के हक की हिफाजत करना.
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