वीडियो एडिटर: पुनीत भाटिया
लेखक, गीतकार और कॉमेडियन वरुण ग्रोवर शुरू से ही नागरिकता कानून और एनआरसी का विरोध कर रहे हैं. ट्विटर से लेकर मुंबई में होने वाले विरोध प्रदर्शनों में वरुण को इसका विरोध करते देखा जा सकता है. एनआरसी पर उनकी कविता 'हम कागज नहीं दिखाएंगे' काफी वायरल भी हुई थी. क्विंट से खास बातचीत में वरुण ग्रोवर ने इस मुद्दे पर खुलकर रखी अपनी बात.
क्या फिल्मों का लोगों पर होता है असर?
फिल्म के दो काम होते हैं. एक काम होता है कहानी कहना और कहानी से ही हम चीजें याद रखते हैं. आज आप ‘होलोकॉस्ट’ की बात करें तो, नं बर सब जानते हैं या सब नहीं भी जानते हैं. आप कह सकते है कि हमेशा याद तो नहीं रहेगा, लेकिन फिल्म की बात करेंगे, आप पूछेंगे कि आपने ‘शिंडलर्स लिस्ट’ देखी है क्या? एकदम से आपको वो नरसंहार की त्रासदी का इमोशन समझ आएगा, तो फिल्म का एक वो काम है, कहानी कहना और कहानियों में इमोशन को जिंदा रखना.
दूसरा जो काम है टाइम को डॉक्यूमेंट करना. उसमें मैं मानता हूं कि इस्लामोफोबिक फिल्में हों या सरकार की प्रोपगैंडा फिल्में, जो एक साथ तीन-चार आ गई थीं हमारे प्रधानमंत्री पर, उनकी उम्र के हर दौर पर फिल्म बन गई थी, वो जरूरी है. वो भी जरूरी है क्योंकि वो होंगी, वो हमारे वक्त को डॉक्यूमेंट कर रही हैं. जैसे ‘गोदी मीडिया,’ जिसे हम कहते हैं, वो हमारे टाइम को डॉक्यूमेंट कर रही हैं. अगर कोई उल्कापिंड हमारे धरती से नहीं टकराया, और सब टेप बर्बाद नहीं हो जाता, तो 100 साल बाद कोई ना कोई जरूर देखेगा कि ये हाल था हिंदुस्तान का और ये हुआ था. देश का संविधान खत्म होने से पहले हम इस हालत में थे, हम खड़े हुए थे एक चोटी के किनारे पर और कूदने के लिए तैयार थे और पीछे से लोग चिल्ला रहे थे- ‘कूदो-कूदो-कूदो’ और ये लोग चिल्ला रहे थे. ये जरूरी है मेरे ख्याल में, उनमें आज उनकी वैल्यू नहीं लग रही है या आज वो माचिस और तिल्ली और पेट्रोल लेकर खड़े हैं, लेकिन वो माचिस और तीली को पता नहीं है कि वो माचिस और तीली खुद माचिस और तीली को भी डॉक्यूमेंट कर रही है, ये बहुत जरूरी है.
क्या वर्तमान हालात पर कोई फिल्म लिखेंगे?
नहीं-नहीं! अगर मैं आज कहानी लिखना शुरू करूं, तो फिल्म 2022-2023 में आएगी. वो भी संभव हो पाया तो, तब तक पता नहीं दुनिया कहां होगी? देश कहां होगा? हम कहां होंगे?
सेल्फ सेंसरशिप के बारे में क्या सोचते हैं?
किसी भी कलाकार के लिए सेल्फ सेंसरशिप मेरे खयाल से सबसे घटिया आइडिया है. इसका एक उदाहरण ये है कि जब गुरमेहर कौर सिर्फ एक तख्ती लेकर खड़ी थी कि ‘शांति को चांस दो’, शांति जरूरी है दुनिया में’ सिर्फ इतना ही लिखा था, अब इसमें क्या काट-छांट हो सकती थी? क्या सेंसरशिप हो सकती थी? और उसमें और कितनी सेंसरशिप हो सकती थी? जब उसको गाली पड़ सकती है, जब गुलजार साहब ने किसी बात पर कमेंट कर दिया... उनका काम देख लो, उन्होंने कुछ बोल दिया था लिंचिंग के संबंध में, पूरे राइट विंग ट्विटर पर गुलजार साहब की अच्छी-अच्छी नज्में निकाल-निकाल कर उसका मजाक बनाया जा रहा था कि ये क्या लिखा है? ये क्या है? जिस आदमी को शायरी नहीं आती वो लिख रहा था, इंदौर का पप्पू हार्डवेयर स्टोर का मालिक लिख रहा था कि ‘गुलजार को शायरी नहीं आती’. तो अब क्या सेंसर करोगे? कहां कर सकते हो? तो एक ही तरीका है आप भूल जाओ सेंसरशिप नाम की चीज, सेंसरशिप करने के लिए बोर्ड है, ठीक है... हम क्यों करें?
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