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मायावती ने 2024 चुनाव के लिए NDA-INDIA दोनों को कहा 'ना', ये गलती या मास्टर स्ट्रोक?

BSP प्रमुख मायावती ने अकेले 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है. उन्होंने कहा- "NDA और INDIA के साथ गठबंधन का कोई सवाल ही नहीं"

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बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती (Mayawati) ने 30 अगस्त को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर कहा, "NDA और INDIA में ज्यादातर वो गरीब विरोधी, जातिवादी, सांप्रदायिक और अमीरों के समर्थन वाली पार्टियां हैं" और कहा कि उनके साथ गठबंधन का कोई सवाल ही नहीं है.

हाल ही में, उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी ने अगले साल होने वाला लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश में अकेले लड़ने का फैसला किया है, क्योंकि पुराने अनुभवों से पता चलता है कि गठबंधन में जाने से ज्यादा फायदा नहीं है.

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उन्होंने पहले कहा था, "हम चुनाव अकेले लड़ेंगे. हम राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और हरियाणा में चुनाव लड़ेंगे." उन्होंने इसी के साथ ये भी कहा था कि वो पंजाब और हरियाणा में क्षेत्रीय पार्टियों के साथ लड़ेंगे, "बशर्ते उनका किसी और गठबंधन के साथ कोई डील या गठबंधन न हो."

BSP पंजाब में शिरोमणी अकाली दल के साथ गठबंधन में है. 2019 में एक गठबंधन जननायक जनता पार्टी के साथ भी हुआ था, लेकिन वो विधानसभा चुनाव के बाद टूट गया.

जैसे 2007 में लड़े थे, वैसे ही लड़ेंगे: मायावती

मायावती ने पार्टी के फैसलों को लेकर मीडिया से 'फेक न्यूज' न फैलाने की अपील की. अपने अगले बयान ने उन्होंने लिखा, "बीएसपी, विरोधियों के जुगाड/जोड़तोड़ से ज्यादा समाज के टूटे/बिखरे हुए करोड़ों उपेक्षितों को आपसी भाईचारा के आधार पर जोड़कर उनके गठबंधन से साल 2007 की तरह अकेले आगामी लोकसभा तथा चार राज्यों में विधानसभा का आमचुनाव लडे़गी. मीडिया बार-बार भ्रान्तियां न फैलाए."

मायावती का ये कदम विपक्ष पर तीखा हमला बोलने के कुछ दिनों बाद सामने आया है. उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी को ट्रांसफर वोट नहीं मिलते.

एक बयान में उन्होंने कहा था, "गठबंधन में जाने से बीएसपी को उत्तर प्रदेश में फायदे से ज्यादा नुकसान हो गया, क्योंकि हमारे वोट गठबंधन के सहयोगी को चले जाते हैं, लेकिन दूसरी पार्टियों के पास वो क्षमता नहीं है कि वो अपने हमें दिलवा सकें."

उन्होंने आगे कहा, कांग्रेस और बीजेपी की गठबंधन सरकारों ने दिखाया है कि उनकी विचारधारा, इरादे और राजनीति- दलितों, आदिवासी, मुसलमानों और अन्य पिछड़े समूहों के हितों के खिलाफ है.

कुछ दिन पहले बीएसपी के बड़े नेताओं को मीटिंग के लिए पार्टी ऑफिस में बुलाया गया था.

BSP को 'B-टीम' का तमगा हटाने की कोशिश करनी चाहिए

राजनीतिक विश्लेषक और पिछले आम चुनावों के आंकड़े दोनों इस ओर इशारा करते हैं कि अकेले चुनाव लड़ना BSP के लिए अच्छा फैसला नहीं है.

राजनीतिक रणनीतिकार अमिताभ तिवारी ने क्विंट हिंदी से कहा, "किसी तरह बीएसपी बीजेपी की 'बी-टीम' के रूप में दिखने लगी है, और ये बीजेपी विरोधी मतदाताओं के दिमाग में बैठ चुका है. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को ऐसा करवाने में बड़ी सफलता मिली है. मायावती के खुद के फैसले भी उन्हें इसी ओर ले गए हैं."

उन्होंने आगे कहा कि BSP को 2022 में जो नुकसान हुआ उसका 70% समाजवादी पार्टी और 30% बीजेपी के पास गया है. जो ज्यादातर वोट ट्रांसफर हुए हैं वो मुसलमानों के हैं, इसके अलावा कुछ हिस्सा, गैर-जाटव, लोवर ओबीसी और अन्य पिछड़े समूहों का है.
अगर वो अपने 10 सीट बचाना चाहती हैं जो उन्हें समाजवादी पार्टी के साथ चुनाव लड़ना चाहिए, खासकर इसलिए क्योंकि इस बार करीब 80% अल्पसंख्यक वोट समाजवादी पार्टी की तरफ जा सकता हैं, और ऐसा करने से बीजेपी के साथ 'साठगांठ' वाला तमगा भी गिर जाता.
अमिताभ तिवारी , राजनीतिक रणनीतिकार
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BSP का रिपोर्ट कार्ड

15 साल पहले पार्टी ने 206 विधायकों के साथ राज्य में बहुमत वाली सरकार बनाई थी. उस दौरान 30.4% वोट शेयर मिला था. 2022 के विधानसभा चुनावों में वोट शेयर महज 12.7% था और बीएसपी सिर्फ एक सीट जीतने में कामयाब रही.

2019 के आम चुनावों में, बीएसपी और एसपी का जोड़कर कुल वोट शेयर 37% था, जिसमें समाजवादी पार्टी को 17.96% जबकि बीएसपी को 19.26% वोट मिले थे. समाजवादी पार्टी ने पांच सीटें जीतीं, तो बीएसपी ने दस.

बीएसपी ने यूपी विधानसभा में अपनी पहली एंट्री 1989 के विधानसभा चुनाव में दर्ज कराई थी. 1989 से 2007 तक, 1991 को छोड़कर हर विधानसभा चुनाव में बीएसपी की सीटें बढ़ती रही.

हालांकि, अब जब यूपी में मुख्य मुकाबला बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच ही नजर आता है तो बीएसपी के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं. अगर लोकसभा चुनाव के पहले 'INDIA' खेमे में एसपी-कांग्रेस-आरएलडी के बीच ठीक-ठाक समझौता हो जाता है, तो बीएसपी के लिए मुश्किलें और बढ़ जाएंगी.

तार्किक रूप से , अगर वो अपनी पार्टी को फिर से मुकाबले में लाना चाहती हैं तो उन्हें 'B-टीम' वाला टैग हटाना होगा. आज, राजनीति में सिर्फ 2 वोट होंगे, एक बीजेपी के लिए और दूसरा बीजेपी के खिलाफ, लेकिन बीजेपी को आपकी जरूरत नहीं है. उसे वैसे भी 60-65% मिल रहा है, तब जब आप विपक्ष में बैठी हैं. बीजेपी को वोटों का बंटवारा करवाने के लिए आपकी जरूरत है.
अमिताभ तिवारी, राजनीतिक विश्लेषक
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वोट ट्रांसफर ने पिछली बार उनकी मदद की थी

अपने बयान में मायावती ने ये भी कहा था, "गठबंधन में जाने से बीएसपी को उत्तर प्रदेश में फायदे से ज्यादा नुकसान हो गया, क्योंकि हमारे वोट गठबंधन के सहयोगी को चले जाते हैं, लेकिन दूसरी पार्टियों के पास वो क्षमता नहीं है कि वो अपने हमें दिलवा सकें."

यहां ये जरूर याद रखना चाहिए कि बीएसपी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में, जब एसपी और आरएलडी के साथ चुनाव लड़ा, 80 में से 10 सीटें जीती थीं, लेकिन 2022 के विधानसभा चुनावों में अकेले लड़ने पर 403 में से सिर्फ एक सीट पर जीत मिली.

समाजवादी पार्टी के समर्थकों का कहना है कि ये बीएसपी है जो अपने वोट ट्रांसफर नहीं करती. वे इस तर्क का हवाला देते हैं कि बीएसपी ने एसपी से दोगुनी सीटें जीती थीं.

'BSP अभी भी अंबेडकर और कांशीराम के विचारों को मानती है'

बीएसपी के सुधींद्र भदौरिया कहते हैं कि मायावती की घोषणा पार्टी की विचारधारा के अनुसार है.

उन्होंने क्विंट हिंदी से बातचीत में कहा, "चाहे पहले की बात की हो या अब की, बीएसपी अंबेडकर और कांशीराम के विचारों को मानती है. उनके सपने दशकों तक दलितों, महिलाओं और अन्य लोगों के लिए किए गए पार्टी के राजनैतिक कामों में झलकते हैं."

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि पार्टी के लिए सबसे जरूरी चीज इसकी विचारधारा और संविधान है.

भले ही इस समय, हम NDA और INDIA दोनों से समान दूरी पर हों, पर हम इस देश का एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक ढांचा चाहते हैं. ये सब बातचीत और पार्टी प्रमुख क्या निर्णय लेते हैं, उस पर निर्भर करता है
सुधींद्र भदौरिया, नेता, बीएससी

हालांकि, अमिताभ कहते हैं कि अगर बीएसपी अकेले चुनावों में जाती है तो ये पार्टी के लिए ज्यादा फायदेमंद नहीं है. वे कहते हैं कि अगर मायावती विपक्ष को पड़ने वाले वोटों का कुछ हिस्सा चाहती हैं तो उन्हें जरूर विपक्ष के साथ जाना चाहिए.

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वे आगे कहते हैं, "यूपी-बिहार में लोग 'वोट कटवा' कहते हैं तो वो आप ही होंगे."

इसके अलावा वो कहते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियों की एक अघोषित आयु-सीमा होती है. 1950 से 77 तक कई क्षेत्रीय पार्टियों ने चुनाव लड़े, लेकिन अब उनका अस्तित्व नहीं है, इसकी उम्र 30-40 साल रहती है.

अमिताभ ने कहा कि बहुत कम क्षेत्रीय दल आज भी हैं क्योंकि वे खुद में बदलाव करते आए हैं. क्षेत्रीय दल बंट सकते हैं, खत्म हो सकते हैं और शानदार प्रदर्शन भी कर सकते हैं. युवाओं के बीच मायावती को चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी से भी चुनौती मिल रही है.

अमिताभ कहते हैं, "गैर-जाटव दलितों के लिए बीजेपी पहली पसंद है और एसपी दूसरे नंबर पर, बीएसपी तीसरे नंबर पर आती है. मायावती के पास करीब 60% जाटव वोटर हैं. सवाल ये है कि जाटव वोटर बीएसपी को चुनते हैं, एसपी या बीजेपी को?"

'NDA बनाम INDIA' की इस जंग में खुद को एक व्यवहार्य राष्ट्रीय विकल्प के रूप में पेश करना, BSP के लिए मुख्य चुनौती होगी.

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