वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता
वीडियो प्रोड्यूसर: सोनल गुप्ता
कैमरापर्सन: सुमित बडोला
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में कोई नया पॉलिटिकल एक्रोनिम नहीं दिया है. उनका अंदाज कुछ बदला हुआ सा है. उन्होंने‘एम यानी म’ शब्द का दिलचस्प इस्तेमाल करते हुए कहा कि मजबूत (काम में यकीन रखने वाली उनकी अपनी मजबूत सरकार) और मजबूर (कांग्रेस की अगुवाई वाला गठबंधन, जो कमजोरी और सीमाओं से बंधा होगा) के बीच लड़ाई है. इसी तरह से उन्होंने दार (पहचान का प्रतीक) शब्द का इस्तेमाल करते हुए कामदार (मिट्टी से जुड़ा हुआ, जिस पर काम करने का जुनून हो, यहां वह अपना जिक्र कर रहे थे) बनाम नामदार ( महलों में पैदा हुए राहुल गांधी) का जिक्र किया.
एक‘एम’ यानी मगरूर (अहंकारी) शब्द का जिक्र उन्होंने नहीं किया है, जो मोदी के चुने हुए टीवी चैनलों पर हर शाम दिखता है. इन पर न्यूज एंकर और बीजेपी के प्रवक्ता शोर मचाने, चिल्लाने, विरोधियों को अपमानित करने और उनका मजाक उड़ाने के लिए आपस में होड़ करते हैं.
इधर, एक दिन देश के दो ‘ताकतवर’ चैनल गर्व से कह रहे थे कि ‘अमेठी में स्मृति ईरानी से डरकर राहुल गांधी तीन लोकसभा सीटों से’ चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं. जरा भी संपादकीय सूझबूझ दिखाई गई होती तो ये ‘ताकतवर’ चैनल ऐसी गलती नहीं करते. जनप्रतिनिधि कानून, 1951 के सेक्शन 33(7) के मुताबिक एक प्रत्याशी अधिकतम दो सीटों से ही चुनाव लड़ सकता है. खैर, इन दोनों चैनलों में किसी ने इसे चेक करने की जहमत नहीं उठाई. इतना ही नहीं, इतनी बड़ी गलती करने के बाद उन्हें अपने दर्शकों से माफी मांगनी चाहिए थी. माफी तो जाने दीजिए, उलटा वे अपने झूठ पर इतराते रहे. जी हां, ऐसे हैं ये लीडर्स!
पिछले हफ्ते प्रियंका गांधी नाम की एक युवा महिला तूफान की तरह ‘इन तीन एम’ की आरामतलब दुनिया में घुसीं, जिससे वे muddled (कन्फ्यूज) और muddied (कीचड़ में सने हुए) नजर आने लगे. (हे भगवान, ये मेरे ‘एम’ के साथ आज क्या हो रहा है? मुझे इस ‘M’odi-isms से छुटकारा पाना होगा...उफ!फिर वही गलती).
अब मजबूत कांग्रेस पर लौटते हैं
प्रियंका के आने से अचानक ‘मजबूर’ कांग्रेस फ्रंट फुट पर दिखने लगी. वह यूपी में 2009 जैसी सफलता (2014 के ब्लैक स्वान चुनाव से पहले वाला चुनाव) दोहराना चाहती है, जिसमें उसे राज्य में 20 पर्सेंट वोट और 21 सीट (उस वक्त कांग्रेस से अधिक सीटें सिर्फ एक पार्टी को मिली थीं) मिले थे. इनमें से 15 सीटें पूर्वी उत्तर प्रदेश में थीं. कांग्रेस अब आक्रामक हो गई है और उसमें आत्मविश्वास दिख रहा है.
वैसे भी, ओपिनियन पोल में यूपी में कांग्रेस को पहले ही 6 पर्सेंट वोटों का फायदा दिखाया जा रहा है. इनमें कहा गया है कि कुल 12 पर्सेंट वोट कांग्रेस को मिलेंगे. प्रियंका गांधी अगर 8 पर्सेंट और वोट खींचने में सफल रहीं तो कांग्रेस 2009 का प्रदर्शन दोहरा सकती है. मेरे मन में एक और दिलचस्प ख्याल आ रहा है- अगर प्रियंका पहली चुनावी रैली लखनऊ में करें और कार्यकर्ताओं से पूछें कि ‘How’s the josh’? मोदी उरी फिल्म से प्रेरित इस डायलॉग का इस्तेमाल अपने भाषण में कर चुके हैं. जरा कल्पना करिए, हजारों कार्यकर्ता प्रियंका के इस सवाल के जवाब में कहें- High, ma’am. क्या तब कांग्रेस मजबूत ग्राउंड पर नहीं होगी. तब बीजेपी के कथित राष्ट्रवाद का क्या होगा?
अब मजबूर बीजेपी की बात करते हैं
प्रियंका के मामले में बीजेपी की घबराहट लोकसभा की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के बयान से सामने आ गई. उनका पद दलगत राजनीति से परे है. सीजर की पत्नी की तरह, उन्हें निरपेक्ष दिखना चाहिए. इसलिए उन्हें दलगत राजनीति में नहीं कूदना चाहिए या वो ऐसी सियासत नहीं कर सकतीं. उनका यह कहना कि “राहुल ने मान लिया है कि वह अकेले अपने दम पर राजनीति नहीं कर सकते और इसलिए वह प्रियंका की मदद ले रहे हैं. मेरे लिए यह बड़ी बात है कि राहुल को आखिरकार समझ में आ गया है कि वह अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभा सकते.”
सुमित्रा महाजन सुधबुध खो बैठीं तो फॉर्म के मुताबिक, योगी आदित्यनाथ का नॉकआउट पंच यह था- “राहुल+प्रियंका=जीरो+जीरो.” मुझे लगता है कि वह वैदिक गणित का बुनियादी सबक भूल गए हैं क्योंकि जीरो को साइंस के क्षेत्र में भारत की देन माना जाता है. उन्होंने + साइन के इस्तेमाल में भी गलती की. असल में प्रियंका बीजेपी की ताकत को डिवाइड करने आई हैं. आप तो जानते होंगे योगी जी कि जब जीरो से डिवाइड करते हैं तो क्या होता है? जीरो से भाग देने पर जवाब मिलता है इनफिनिटी यानी असीमित ताकत!
इनके साथ कुछ और बीजेपी नेताओं के बयान देखने से लगता है कि प्रियंका गांधी के राजनीति में आने के ऐलान से बीजेपी कितनी घबराई हुई है. बताइए, अब कौन मजबूर दिख रहा है?
जब भी कन्फ्यूजन हो, टीवी पर गाली-गलौज शुरू
जब भी confusion (भ्रम), consternation(कुछ न सूझे) और chaos यानी खलबली मची हो ( उफ, मैंने फिर अनुप्रास अलंकार का इस्तेमाल कर दिया), बीजेपी प्रवक्ता इसका जवाब गाली-गलौज से देते हैं. संकेत मिलते ही पिट्ठू चैनल उनकी इस बेहयाई में शामिल हो जाते हैं. प्रियंका के राजनीति में आने के ऐलान वाले दिन प्राइम टाइम की ग्राफिक हेडलाइंस देखकर आपको इसका पता चल जाएगा.
"राहुल गांधी हर मोर्चे पर फेल हो चुके हैं. वह भले ही प्रियंका की भूमिका पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित रखना चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस में उन्हें राहुल से बेहतर माना जा रहा है. प्रियंका को राजनीतिक भूमिका देने की बात को राहुल ने कुछ साल पहले खुद ही खारिज कर दिया था. इसका मतलब यह है कि उन्हें अब दबाव में राजनीति में लाया गया है. कोई भी कांग्रेस के साथ नहीं जाना चाहता.”
"वंशवाद को वह शहादत नहीं बता सकतीं. उनके पति पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं. अगर प्रियंका में इतना ही दम है तो कांग्रेस ने उन्हें राजनीति में लाने में 20 साल की देरी क्यों की? क्या कांग्रेस आज इसलिए प्रियंका को राजनीति में ला रही है क्योंकि उसे पता चल गया है कि राहुल अकेले 2019 में पार्टी को चुनाव नहीं जीता सकते?”
- ‘प्रियंका का मतलब क्या राहुल गांधी का फेल होना है?’
- ‘मोदी के मारे, प्रियंका के सहारे?’
- ‘प्रियंका आ गई, बस इत्ते से हो गई कांग्रेस?’
- ‘मजबूरी का नाम प्रियंका गांधी’
- ‘राहुल की मजबूरी, प्रियंका गांधी जरूरी?’
- ‘कांग्रेस प्रियंका गांधी की राजनीति में एंट्री को कम करके क्यों दिखा रही है? यह ऐलान ऐसे समय में हुआ, जब प्रियंका देश से बाहर थीं.’
यह Hysterical (उन्मादी), Hyperbolic (बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हुआ), Horrible (भयानक) था (देखिए, मैं फिर से भाषा के उसी खेल में उलझ गया.)
ये मूर्खतापूर्ण बातें बीजेपी के प्रवक्ताओं ने नहीं कथित ‘स्टार जर्नलिस्टों’ ने कही हैं. उनके लिए तथ्य मायने नहीं रखते. पेशे की मर्यादा का भी उन्हें ख्याल नहीं है. प्रियंका का आना बड़ी राजनीतिक घटना है. इसका विश्लेषण करने की कोशिश नहीं की गई. टीवी चैनलों के एंकर बस तोहमत पर तोहमत लगाते गए.
हिंदीभाषी राज्यों में कुछ ही समय पहले राहुल गांधी ने बीजेपी को 3-0 से हराया है. इसके बावजूद उन्हें बार-बार लूजर कहा गया. हर ओपिनियन पोल में कांग्रेस के पक्ष में करीब दोहरे अंकों में वोट स्विंग दिखाया जा रहा है, लेकिन इन टीवी चैनलों की नजर में पार्टी वजूद बचाने का संघर्ष कर रही है. सच तो यह है कि मोदी सरकार के पांच साल के कार्यकाल के दौरान प्रियंका के पति के खिलाफ एक भी एफआईआर दर्ज नहीं हुई. इसके बावजूद उन्हें भ्रष्ट बताया जा रहा है.
मेरे साथी टेलीविजन एंकरों की घटिया स्तर से भी तुलना करें तो लगता है कि इस मामले में वे रसातल में चले गए.
सावधान हो जाइए सर, इन लोगों से कुछ तो अक्ल का इस्तेमाल करने को कहिए
जनता सरकार के शाह आयोग ने 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी का रास्ता तैयार किया था. वाजपेयी सरकार का इंडिया शाइनिंग कैंपेन सोनिया गांधी के कांग्रेस के लिए 2004 में संजीवनी बन गया था. मोदी सरकार के भौंडे पत्रकार राहुल गांधी के लिए वही कर रहे हैं. सर, मेरी ये बात याद रखिएगा.
माननीय प्रधानमंत्री, आप कम से कम समझदार प्रोपगैंडा करने वालों को तो चुन ही सकते हैं
पीएसः इस लेख को पूरा करने के बाद गणतंत्र दिवस पर मैं शाम को प्राइम टाइम टीवी शोज के लिए खुद को तैयार कर रहा था. मोदी के चुने हुए एंकर्स ‘26 जनवरी 2015 को शुरू हुई इस शानदार परेड के पांचवें संस्करण’ पर दिल-ओ-जान कुर्बान करने पर आमादा दिखे, आखिर मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भारत अफ्रीका के किसी गांव जैसा था (जहां गणतंत्र दिवस की परेड बैलगाड़ियों पर धूल भरी सड़क पर निकला करती थी, जिसका नाम राजपथ था.) मोदी सरकार के कार्यकाल में ही तो हमें बेमिसाल सैनिक, बंदूकें,टैंक और लड़ाकू विमान मिले हैं.
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