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महबूबा, उमर समेत करीब 500 लोग हिरासत में, लेकिन किस कानून  के तहत?

जानिए कि इस हिरासत का आधार क्या है? क्या इसे चुनौती दी जा सकती है?

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कैमरा - सुमित बौध

कांग्रेस सांसद गुलाम नबी आजाद को श्रीनगर एयरपोर्ट से ही वापस दिल्ली भेज दिया गया. सिर्फ इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर में पिछले कुछ दिन में कम से कम 500 लोगों को हिरासत में लिया गया है. ग्रेटर कश्मीर न्यूज पेपर के मुताबिक, तो ये आंकड़ा 550 के करीब है.

हिरासत में लिए गए लोगों में उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती ही नहीं मुबीन शाह जैसे बिजनेस लीडर. कश्मीर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष मियां कयूम जैसे लोग भी शामिल हैं.

हालांकि, इन लोगों को किसी अपराध के आरोप में हिरासत में नहीं रखा गया है. जैसे कि जम्मू-कश्मीर की विशेष राज्य की स्थिति को खत्म करने पर दंगे भड़काने या विरोध प्रदर्शन करने के आरोप में ये हिरासत में नहीं लिए गए. बता दें कि महबूबा और उमर को तो सरकार के ऐलान से एक दिन पहले ही हिरासत में ले लिया गया था. ऐसे में ये लोग ऐहतियात के तौर पर हिरासत (प्रिवेंटिव डिटेंशन) में लिए गए हैं.

जानते हैं कि इस हिरासत का आधार क्या है? क्या इसे चुनौती दी जा सकती है और कब तक हिरासत में रखा जा सकता है?

जम्मू-कश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1978 के तहत प्रिवेंटिव डिटेंशन (नजरबंदी) कब हो सकता है?

इस एक्ट के सेक्शन 8 के तहत, जम्मू-कश्मीर सरकार किसी भी व्यक्ति को तब डिटेन कर सकती हैं, जब उसे लगता हो कि ये उस व्यक्ति को ‘पब्लिक ऑर्डर या राज्य की सुरक्षा के खिलाफ काम करने से रोकने के लिए जरूरी’ है.

क्या डिटेन किए गए व्यक्तियों को डिटेंशन की वजह बतानी होती है?

एक्ट के सेक्शन 13 के तहत, डिटेन किए गए व्यक्तियों को डिटेंशन के 5 दिन के अंदर उसकी वजह बतानी होती है (जो कि लिखित में दर्ज होनी चाहिए). असाधारण या विशेष हालातों में, वजह 10 दिन के अंदर भी बताई जा सकती है. इसका मतलब है कि सरकार अब्दुल्ला और मुफ्ती को बिना वजह बताए 14 अगस्त तक डिटेन कर सकती है. हालांकि, सरकार अगर मानती है कि वजह बताना जनहित की सुरक्षा के खिलाफ है तो वो बताने से इनकार भी कर सकती है.

क्या डिटेन किए गए व्यक्ति डिटेंशन को चुनौती दे सकते हैं?

एक्ट का सेक्शन 13 कहता है कि किसी भी डिटेन किए गए व्यक्ति को “इस आदेश को चुनौती देने का जल्द से जल्द मौका” दिया जाए.
वास्तव में, ऐसी चुनौती तभी सुनी जाएगी जब ये मामला एक्ट के तहत एडवाइजरी बोर्ड सुने. सरकार को डिटेंशन के 4 हफ्तों के अंदर डिटेंशन का हर आदेश समीक्षा के लिए एडवाइजरी बोर्ड के सामने पेश करना होता है. डिटेंशन की तारीख से 8 हफ्तों के अंदर बोर्ड को तय करना होता है कि व्यक्ति को डिटेन करना चाहिए या नहीं.

यहां तक कि जब डिटेन किए गए व्यक्ति को एडवाइजरी बोर्ड के सामने अपना केस रखने का मौका मिलता है, उन्हें वकील की मदद नहीं मिल सकती. 

एक्ट के तहत कब तक डिटेन किया जा सकता है?

अगर एडवाइजरी बोर्ड डिटेंशन को मंजूरी देता है तो एक्ट का सेक्शन 18 डिटेंशन की ज्यादा से ज्यादा अवधि बताता है
अगर डिटेंशन सार्वजनिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचने से रोकता है तो व्यक्ति को 3 महीने तक डिटेन किया जा सकता है. ये 1 साल तक बढ़ाया जा सकता है.
अगर डिटेंशन की वजह राज्य की सुरक्षा है तो व्यक्ति को 6 महीने तक डिटेन किया जा सकता है. ये 2 साल तक बढ़ाया जा सकता है.
सरकार अपने विवेक से कभी भी इन आदेशों को वापस ले सकती है. वरना डिटेन किया गया व्यक्ति कम से कम 3 महीने सलाखों के पीछे बिताएगा.

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क्या इसे किसी अन्य तरीके से चुनौती दी जा सकती है?

बंदियों के मित्र और परिजन जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट (जो अभी भी चालू है) या सुप्रीम कोर्ट में उनकी रिहाई की कोशिश करने करने के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर सकते हैं, लेकिन जब तक कि अदालतें यह नहीं मानती हैं कि हिरासत में लिया जाना गलत या अनुचित था, तो उनकी रिहाई के लिए जम्मू एंड कश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत उन्हें प्रक्रिया का पालन करने को कहा जा सकता है.

यह गैर-राजनीतिक लोगों के लिए आसान साबित हो सकता है, क्योंकि उन्हें हिरासत में लिए जाने का बहुत कम कारण है, खासकर जब से सरकार का दावा है कि स्थिति शांत है और ऐसे लोगों से बहस करना मुश्किल होगा, और ऐसी परिस्थितियों में ये सार्वजनिक आदेश के लिए खतरा होगा.

क्या यह भी गुलाम नबी आजाद के राज्य में प्रवेश से रोकने का कारण है?

जम्मू एंड कश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट में प्रावधान शामिल हैं जो सरकार को ‘संरक्षित’ या ‘निषिद्ध’ के रूप में क्षेत्रों को नामित करने की अनुमति देता है. एक बार यह हो जाने के बाद, सभी या किसी विशिष्ट लोगों के इन क्षेत्रों में प्रवेश को नियमित किया जा सकता है.

हालांकि, यह साफ नहीं है कि कैसे उन्होंने पूरे राज्य को संरक्षित या निषिद्ध के रूप में नामित किया है और जिससे आजाद (जो कश्मीरी हैं), को हवाई अड्डे पर रोका. यह कुछ ऐसा है जिसे वे अपने आंदोलन की स्वतंत्रता पर एक अनुचित प्रतिबंध के तौर पर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकते हैं.

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