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देश में सारे चुनाव एक साथ कराने की बात इसलिए हजम नहीं होती...

क्या 5 साल में एक बार चुनाव हर मर्ज की दवा है?

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वीडियो एडिटर- विवेक गुप्ता

कैमरापर्सन- अभय शर्मा

महीनों से चर्चा है कि लोकसभा और विधानसभा के सारे चुनाव एक साथ कराए जाएं. कई फायदे गिनाए जा रहे हैं. दावा किया जा रहा कि इससे चुनावी खर्च में भारी कमी आएगी. और दूसरा कि लगातार चल रहे चुनावी साइकल और ‘मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट’ की वजह से कई बड़े फैसले अटके रहते हैं. इसलिए अगर 5 साल में एक बार चुनाव होते हैं, तो सरकार की कार्य-कुशलता बढ़ेगी.

लेकिन क्या 5 साल में एक बार चुनाव हर मर्ज की दवा है? मेरे हिसाब से बिल्कुल ही नहीं. क्या चुनाव कराने के खर्च में कमी आएगी? शायद वो भी नहीं होगा.

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इकनॅामिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे देश में सारे चुनाव एक साथ कराने के लिए 23 लाख ईवीएम मशीन और 25 लाख वीवीपैट यूनिट की जरूरत होगी. इस पर कुल 10,000 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे. और इतना ही खर्च हर 15 साल में करना होगा, क्योंकि इन मशीनों की लाइफ इससे ज्यादा नहीं है.

इससे अलावा एकसाथ चुनाव कराने के लिए सिक्योरिटी फोर्स में भी इजाफा करना होगा. कुल मिलाकर, एकसाथ चुनाव कराने पर अनुमान से कहीं ज्यादा खर्च होगा. ये खबर कानून मंत्रालय के नोट के आधार पर लिखी गई है.

मंत्रालय के नोट में कहा गया है कि लगातार चुनाव से सरकारी काम में भी कोई खास असर नहीं पड़ेगा. दरअसल मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट की वजह से नए प्रोजेक्ट की घोषणा में थोड़ी देरी हो सकती है, लेकिन इससे चालू प्रोजेक्ट पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

खर्च और सरकारी कामकाज को छोड़ भी दें, तो भी लगातार चुनाव लोकतंत्र को मजबूत करता है. लोकतंत्र मतलब पीपुल्स विल, इसकी झलक तो चुनाव में ही मिलती है. पीपुल्स विल की वजह से ही नेता हमेशा चौकन्ने रहते हैं. और पीपुल्स विल की जानकारी नेताओं को लगातार मिलती रहनी चाहिए, जो लगातार चुनाव से ही संभव है.

इसका उदाहरण देखिए.

जीएसटी लागू होने के बाद तीन महीने के अंदर ही इसमें 100 से ज्यादा बदलाव किए गए. क्यों? क्योंकि कुछ ही महीने में गुजरात में चुनाव होने थे और सरकार को लगा कि मूल जीएसटी व्यवस्था में कुछ अजीबो-गरीब नियम बन गए थे, जिनको तत्काल बदलने की जरूरत है. अगर गुजरात में चुनाव नहीं होना होता, तो सरकार इतनी फ्लेक्सिबल नहीं होती. उसी तरह कर्नाटक चुनाव से पहले पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़नी बंद हो गई थीं. इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं, जहां नेताओं को चुनाव से पहले जनता के मूड के डर से फैसले पलटने पड़े.
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ऐसे में अगर 5 साल में एक बार ही चुनाव होते हैं, तो अड़ियल सरकार कोर्स करेक्शन करने में काफी देरी करेगी और नुकसान हम सबका होगा.

अभी के चुनावी साइकल के हिसाब से:

  • 6 राज्यों में विधानसभा चुनाव लोकसभा से 1 साल पहले होता है.
  • 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के 2 साल के अंदर होता है, 5 राज्यों में दो लोकसभा चुनावों के बीच में होता है.
  • बाकी राज्यों में विधानसभा चुनाव या तो लोकसभा के साथ ही या कुछ महीने के अंदर होता है.

इस व्यवस्था की खासियत है कि लोगों का फीडबैक नेताओं को लगातार मिलता रहता है और यही लोकतंत्र का सबसे बड़ा स्टेटमेंट है. इसको खत्म करना लोकतंत्र को कमजोर करना है.

इसके साथ हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारे संविधान में मिड टर्म चुनाव रोकने की कोई व्यवस्था नहीं है.

क्या हम लोकसभा और सारे विधानसभा के लिए 5 साल के फिक्स्ड टर्म के लिए तैयार हैं? फिर अविश्‍वास प्रस्ताव का क्या होगा?

कोई सरकार अपना बहुमत खो देती है और दूसरी कोई पार्टी या गठबंधन के पास बहुमत वाला आंकड़ा नहीं है. ऐसे हालात में चुनाव ही विकल्प होता है.

इन सब में बदलाव लाने के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत होगी. क्या इन सब मुद्दों पर सारे पक्षों को ठीक से विचार करने की जरूरत नहीं है?

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