पिछले शनिवार को एक अजीब,वाकई अजीब घटना हुई. हमारे नीति निर्माता IAS अफसर,जो आमतौर पर धूल भरी,पीली पड़ चुकी और लाल डोरियों में बंधी फाइलों से घिरे रहते हैं,अचानक किसी WWE पहलवान की तरह आक्रामक हो गए और 'या तुम नहीं, या हम नहीं' वाले अंदाज में चुनौती देते नजर आए. वो अधिकारी जिनका काम हमारे टेलिकॉम और प्रसारण इंफ्रास्ट्रक्चर को सुरक्षित रखना है,अचानक पश्चिमी दुनिया की पुरानी कहानियों की तरह "काउबॉय काउबॉय" खेलने के चक्कर में पड़ गए.
उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल पर लॉगइन किया (ठीक वैसे ही जैसे पुराने जमाने में कमर में बंधे होल्स्टर को खोलकर रिवॉल्वर निकाली जाती थी) और गोली की तरह ये चैलेंज दाग दिया, “ये रहा मेरा आधार यानी बायोमेट्रिक आईडी नंबर - अब मैं तमाम हैकर्स को चुनौती देता हूं कि हिम्मत है तो मुझे नुकसान पहुंचाकर दिखाएं.”
हारने पर नहीं दिखाई जरा भी विनम्रता या शालीनता
हैकर्स ने उनकी इस चुनौती का जिस तरह करारा और मुंहतोड़ जवाब दिया, वो वाकई IAS बिरादरी को शर्मसार करने वाला था. महज कुछ घंटों के भीतर उनकी बेटी की ईमेल आईडी,उनके अपने डीमैट/बैंक एकाउंट, एयरलाइन का फ्रीक्वेंट फ्लायर नंबर,सब्सक्रिप्शन एकाउंट्स, इनकम टैक्स यूनीक नंबर और डेमोग्रैफिक ब्योरा - सब कुछ हैक और छेड़छाड़ का शिकार हो चुका था (उनके सेविंग्स एकाउंट में बिना मांगे एक रुपया जमा करा दिया जाना साइबर सिक्योरिटी के उल्लंघन का एक खतरनाक नमूना था).
लेकिन क्या उन्होंने इस हार को विनम्रता और शालीनता के साथ स्वीकार किया? क्या उन्होंने ये कहा कि”ओह,क्या बात है, आपको धन्यवाद कि आपने हमें उन लाखों गड़बड़ियों से परिचित कराया, जिन्हें दूर करके हम अब अपने सिक्योरिटी फीचर्स को और मजबूत बनाएंगे?”
नहीं सर. उनका जवाब "बिलकुल IAS जैसा" ही था. उन्होंने इस चुनौती में खुद को जीता हुआ दिखाने के लिए एक नया चैलेंज खोज निकाला: "लेकिन बायोमेट्रिक डेटाबेस तो हैक नहीं हो सका है."
भला ये क्या बात हुई ! चुनौती तो ये थी कि "मुझे नुकसान पहुंचाकर दिखाओ," ये नहीं कि "किला तोड़कर दिखाओ". लेकिन जब हैकर्स ने "नुकसान" पहुंचाकर साफ-साफ दिखा दिया,तो चुनौती बदल दी गई. अब कहा जाने लगा कि "किला तोड़कर तो दिखाओ!"
दर्द की तरह,आलोचना भी दवा का काम करती है
नाकामी के बाद उनके इस बर्ताव पर मुझे बुरी तरह उबकाई आने लगी. महात्मा गांधी ने एक बार कहा था, "कोई भी विचारधारा सही फैसले पर अपने एकाधिकार का दावा नहीं कर सकती. गलतियां हम सबसे होती हैं और कई बार में हमें अपने फैसलों में बदलाव भी करने पड़ते हैं."उनके कट्टर विरोधी विंस्टन चर्चिल भी कुछ ऐसा ही मानते थे: "आलोचना भले ही सहमत होने लायक न हो,लेकिन वो जरूरी है. ये वही काम करती है,जो शरीर में दर्द करता है. अगर इस पर वक्त रहते ध्यान दिया जाए, तो खतरे को टाला जा सकता है;लेकिन अगर इसे दबा दें, तो जानलेवा बीमारियां हो सकती हैं."
भगवान से डरने वाला 63 साल का एक ब्यूरोक्रेट, जिसका परिचय शानदार है - आईआईटी कानपुर से गणित की डिग्री और यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया से कंप्यूटर साइंस में मास्टर डिग्री. ऐसा शख्स अगर अचानक डेटिंग वेबसाइट टिंडर पर वक्त काटने वाले बिगड़ैल टीनेजर जैसा बर्ताव करने लगे, तो इसका मतलब यही है कि हमारे मौजूदा राजनीतिक माहौल में भी जरूर किसी ‘‘जानलेवा” बीमारी ने जड़ जमा ली है.
1986 में उन्होंने पहली बार एक ऐसा DBASE सर्च प्रोग्राम विकसित किया था,जिससे रायफल-बंदूक-पिस्तौल जैसे घातक हथियार चुराने वाले 22 चोरों को 30 दिनों के भीतर पकड़ने में मदद मिली थी. लेकिन अब वो खुद ही एक अपराध कर बैठे हैं - याद रहे कि अपना आधार नंबर जगजाहिर करना एक दंडनीय अपराध है,जिसके लिए 3 साल की जेल हो सकती है - क्यों?
आलोचक को आज धमकियां मिलती हैं,उसे दुश्मन समझा जाता है
तभी अचानक एक बात मेरे दिमाग में कौंध गई. एक आलोचक के साथ आज दुश्मन जैसा बर्ताव होता है. वो एक ऐसा विरोधी है,जिसका नामोनिशान मिटा देना जरूरी है.
आप उससे तथ्यों और तर्कों के आधार पर बहस नहीं करते. आप ये नहीं चाहते कि वो आपकी दमदार दलीलों को सुनकर आपसे सहमत हो जाए. आपके पास गांधी की इस सलाह के लिए वक्त नहीं है कि “विरोधी के दृष्टिकोण को समझने की कोशिश करना,न सिर्फ उसके लिए जरूरी है,बल्कि खुद अपने प्रति हमारी जिम्मेदारी है और अगर हम उसे स्वीकार नहीं कर सकते,तो भी उसका उतना ही सम्मान करें,जितना हम उससे अपने दृष्टिकोण का सम्मान करने की उम्मीद रखते हैं.”
सच तो ये है कि आज धमकी ही आपसी संवाद की खास पहचान है:
- "कांग्रेस के नेता कान खोलकर सुन लें, अगर सीमाओं को पार करोगे, तो ये मोदी है, लेने के देने पड़ जाएंगे" - 6 मई 2018 को हुबली की रैली में दिए प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान को सुनकर लगता है कि कोई लोकतांत्रिक नेता अपने विरोधियों के खिलाफ हिंसा की इससे ज्यादा खुली वकालत शायद ही कर सकता है.
- "मैं कश्मीरी युवाओं को बताना चाहता हूं कि आजादी मुमकिन नहीं है. लेकिन अगर आप हमसे लड़ना चाहते हैं तो हम अपनी पूरी ताकत के साथ आपसे लड़ेंगे. कश्मीरियों को ये समझना चाहिए कि सुरक्षा बल उतने निर्दयी नहीं रहे हैं - सीरिया और पाकिस्तान को देखिए. ऐसे ही हालात में वो टैंकों और हवाई हमलों का इस्तेमाल करते हैं" - दिल को दहलाने वाली ये धमकी (जो बड़े पैमाने पर होने वाले नरसंहारों की याद दिलाकर डराती है) भारतीय सेना के चीफ बिपिन रावत ने एक इंटरव्यू में दी थी,वो भी प्रधानमंत्री के ऊपर जिक्र किए गए भाषण के महज 4 दिन बाद.
- यहां तक कि किसी को नुकसान न पहुंचाने वाले पॉपुलर फिक्शन यानी काल्पनिक कहानियों को भी बख्शा नहीं जा रहा. फन्ने खान एक टैक्सी ड्राइवर की जिंदगी और उसके सपनों पर बनी सीधी-सादी फिल्म है, जिसमें एक गाना था, "मेरे अच्छे दिन कब आएंगे". ये प्रधानमंत्री मोदी के 2014 के उस चुनावी नारे पर हल्का-फुल्का व्यंग्य था,जिसमें देश के लोगों के लिए"अच्छे दिन"लाने का वादा किया गया था. 10 दिन के भीतर ही फिल्म-निर्माताओं को मजबूर कर दिया गया कि वो इस गाने की लाइनें बदल कर "मेरे अच्छे दिन अब आए रे" कर दें.
- इतना ही नहीं,हाल ही में एबीपी न्यूज के तीन पत्रकारों को नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर किया गया. उनकी गलती क्या थी? सरकारी प्रचार की आलोचना करना.
मैं भी ऐसे ही गुस्से का सामना कर चुका हूं
8 नवंबर 2016 को,जब प्रधानमंत्री मोदी ने 4 घंटों के भीतर देश की 86 फीसदी करेंसी को अवैध घोषित करके सारी दुनिया को चौंका दिया था,आम लोग ठीक से समझ नहीं पा रहे थे कि इस "नोटबंदी" का क्या असर होने वाला है. कुछ लोगों ने इस फैसले का स्वागत किया.
उन्हें "सिस्टम की सफाई और सरकार को भारी फायदा" होने की सरकारी थ्योरी पर यकीन था, जिसमें बताया जा रहा था कि इससे काला धन बेकार हो जाएगा और सरकार को 4 लाख करोड़ रुपये का जबरदस्त मुनाफा होगा, (यकीन करना मुश्किल है कि ये बात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कानूनी तौर पर पेश की थी!), कहा गया कि ये रकम देश की जीडीपी के 3 फीसदी के बराबर है,जिसे भारत के गरीबों पर खर्च किया जाएगा. लेकिन मैंने इन खोखले दावों की असलियत को उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. "नोटबंदी" के तीन हफ्तों के भीतर मैंने इसकी तीखी आलोचना करते हुए तीन लेख लिखे,जिसके कुछ अंश यहां पेश हैं:
"हम बात शुरू करेंगे 8 नवंबर की रात पौने नौ बजे से, जब प्रधानमंत्री मोदी के सनसनीखेज भाषण के बाद पसीने से तरबतर रामभाई अपनी फूलती हुई सांसों को संभालते हुए इस फैसले को कोस रहे हैं.
रामभाई उन लाखों लोगों में शामिल हैं, जो बड़ी तेजी से ये सोच रहे हैं कि उन 4 लाख करोड़ रुपयों को कैसे बचाया जाए, जो लाखों तहखानों, गद्दों, सूटकेसों, लॉकर्स और घर के बर्तनों तक में छिपाकर रखे गए हैं. क्या आपको लगता है कि ये लोग सिर्फ करवटें बदलते हुए मर जाएंगे और अपनी जीवनभर की “कमाई” चुपचाप एक “बेहद लालची और खूंखार इनकम टैक्स अफसर” के हवाले कर देंगे? नहीं सर,वो ऐसा नहीं करेंगे.
अपना कैश बचाने के लिए वो हर मुमकिन जुगाड़ आजमाएंगे,अच्छी,बुरी,बदनुमा,चालाकी भरी या आपराधिक - हर तरकीब अपनाएंगे.... और यही इस फैसले की विडंबना है.
ये लोग 1 लाख करोड़ रुपये की रकम अपने साथ मिलीभगत में शामिल बैंकों के ब्रांच मैनेजरों,पोस्ट मास्टरों,दलालों,कूरियर एजेंसियों,तरह-तरह के बिचौलियों और ठेकेदारों को"सुविधा शुल्क"देने में खर्च कर देंगे...नए स्वच्छ भारत में आपका स्वागत है....
सरकारी दलील : प्रधानमंत्री मोदी देश के गरीबों के लिए "रामराज्य" ले आए हैं...अब वो इस धन का इस्तेमाल ज्यादा स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और गांवों में सड़कें बनाने में करेंगे...वो भारत के गरीबों की हर जरूरत पूरी करेंगे.
हकीकत: बहुत बुरी खबर है... अगर "नोटबंदी" में अवैध घोषित किया गया कैश इसी रफ्तार से सिस्टम में आता रहा - 40% हिस्सा सिर्फ 10 दिन में आ चुका है - तो सारी कवायद भयानक रूप से नाकाम साबित होगी. क्यों? क्योंकि सरकार को उसी के खेल में मात देकर घोटालेबाज अपना सारा काला धन सफेद करने में सफल होंगे!
इस तरह 15 लाख करोड़ रुपये की पूरी रकम वापस आ जाएगी. बात खत्म. इति सिद्धम. (यही साबित करना था)."
मैंने ये भविष्यवाणी 1 दिसंबर 2016 को की थी. मैं अपनी तारीफ नहीं करना चाहता, लेकिन दो साल बाद ये साफ हो चुका है कि मैंने तब जो कहा था,वो पूरी तरह सच निकला. प्रधानमंत्री मोदी कई बार कह चुके हैं कि आलोचना करने के लिए रिसर्च करनी पड़ती है, सही तथ्य जुटाने पड़ते हैं. दुख है कि अब ऐसा नहीं होता. ऐसा करने की जगह सिर्फ आरोप लगाए जाते हैं.
तब तो सर,आपके अपने ही पैमाने के हिसाब से मेरा सम्मान होना चाहिए था,ठीक है न? मैंने "रिसर्च और सही तथ्यों" का इस्तेमाल किया था, क्या नहीं किया था? फिर भी मुझे लगातार ट्रोल किया गया, गालियां दी गईं और आलोचना के लिए कभी माफ नहीं किया गया.
तो प्रिय प्रधानमंत्री, ये बेहद दुर्भाग्य और दुख की बात है कि समझदारी भरी (और आखिरकार सच साबित हुई) आलोचना को भी आज के पोस्ट-ट्रुथ इंडिया में लगातार "आरोप" कहकर खारिज किया जाता है. दुश्मनी की ये संस्कृति ही एक ईश्वर से डरने वाले, शालीन ब्यूरोक्रेट को भी अपने आलोचकों को "चुनौती" देने और धिक्कारने-फटकारने के लिए प्रेरित करती है, उन्हें गले लगाने और उनसे सीखने के लिए नहीं.
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