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यौन उत्पीड़न से डरी-सहमी लड़कियां कैसे मेडल लाएंगी?

सहमी-डरी लड़कियां क्या देश को मेडल दिलवा पाएंगी

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2016 में बेंगलुरु के कांतिरवा स्टेडियम के रेस्ट रूम में लगे अश्लील संदेश ने महिला एथलीट्स को अचंभे में डाल दिया था. यह संदेश था- प्रैक्टिस से पहले फिंगरिंग (मास्टरबरेशन) जरूर करें. इससे आपको खेल में थकान नहीं होगी. साथ में ग्राफिक निर्देश भी दिए गए थे. दुखद यह था कि यह किसी शरारती की कारस्तानी नहीं थी- स्पोर्ट्स अथॉरिटी का किया-धरा था. पर किसी ने अथॉरिटी से सवाल नहीं किए. हाल ही आरटीआई से पता चला है कि स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया यानी SAI के अंतर्गत आने वाली 24 संस्थाओं में पिछले दस सालों में यौन शोषण के 45 मामले सामने आए हैं. इस खबर से चार साल पुरानी यह घटना याद आ गई.

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यूं आरटीआई के खुलासे के बाद SAI की पूर्व महानिदेशक ने कहा है कि यह संख्या बहुत ज्यादा हो सकती है. चूंकि बहुत सी लड़कियां शिकायत करती ही नहीं. शिकायत करती हैं तो उसे वापस ले लेती हैं या अपने बयान को बदल देती हैं. उन्हें अपने करियर की चिंता होती है. दिलचस्प ये है कि 45 में से 29 शिकायतें तो कोच के खिलाफ ही की गई हैं. 2010 में हॉकी के मशहूर खिलाड़ी एम. के. कौशिक के खिलाफ हॉकी टीम की 31 सदस्यों ने यौन शोषण का आरोप लगाया था.

कौशिक को इस्तीफा देना पड़ा था, पर ऐसे ज्यादातर मामलों में कार्रवाई होती नहीं. लड़कियां घबरा जाती हैं. खेल की दुनिया के शक्तिशाली निजाम के सामने पस्त हो जाती हैं. यौन हिंसा का सबसे ज्यादा, सबसे ताकतवर और कारगर हथियार किसके पास है- किसके पास एक संगठित शक्ति है जो वैध तरीके से हिंसा कर पाती है.
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सहमी-डरी लड़कियां क्या देश को मेडल दिलवा पाएंगी

बेशक, यह संभव नहीं कि सहमी-डरी लड़कियां खुलकर खेलें. मेडल जीतकर लाएं. मई 2015 में केरल के अलपुजा में 15 साल की एक महिला एथलीट ने खुदकुशी कर ली थी. उसने अपने सीनियर्स पर यौन शोषण के आरोप लगाए थे. तीन दूसरी लड़कियों ने भी ऐसा ही करने की कोशिश की थी. ऐसा एक मामला 2009 में भी हुआ था जब 21 साल की बॉक्सर ए. अमरावती ने हैदराबाद में जहर खाकर अपनी जान दे दी थी क्योंकि उसके कोचर ओंकार यादव उसका लगातार शोषण करते थे. बाद में उस केस को यह कहकर रफा-दफा कर दिया गया था कि लड़की आत्मविश्वास की कमी से जूझ रही थी.

हाल फिलहाल की आरटीआई में कहा गया है कि ज्यादातर यौन शोषण के मामलों की जांच लंबे समय तक लटकी रहती है और कोई निष्कर्ष नहीं निकलता. ऐसे में उन लड़कियों का क्या, जो पहले ही तमाम तरह के लैंगिक भेदभाव से उबरकर यहां तक पहुंचती हैं. ज्यादातर के लिए गरीबी से निकलने का एकमात्र रास्ता यही होता है कि वे खेल की दुनिया में थोड़ा बहुत नाम कमाएं और एक सरकारी नौकरी अपने नाम कर लें. इसीलिए चुपचाप प्रताड़ना सहती रहती हैं. SAI के पूर्व महानिदेशक का खुद यही कहना है.
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लड़कियों के लिए खेल की दुनिया तक पहुंचना पहले ही मुश्किल

अधिकतर लड़कियों के लिए खेल की दुनिया में कदम रखना पहले ही काफी मुश्किलों भरा होता है. घर की चारदीवारी से निकलकर स्कूल जाने, या खेल के मैदान में पहुंचने के लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ता है. अगर परिवार में लड़का है तो लड़कियों से दोयम दर्जे का बर्ताव किया जाता है. उनके लिए वित्तीय संसाधनों को व्यय करना घर वालों को बेकार लगता है. फिर खेलना-कूदना अलग बात है, और पेशेवर खेल को चुनना अलग बात.

इस दोनों में फर्क करना मुश्किल होता है. पेशेवर खेल के लिए अलग तरह की मानसिक अवस्था और पारिवारिक सहयोग की जरूरत होती है. फिर अगर किसी तरह पेशेवर खेल को चुनने का फैसला कर भी लिया तो स्रोतों की कमी रहती है. अकादमियों में पूरी सुविधाएं नहीं होतीं- अपनी जेब भी खाली होती है.

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राज्य की ओर से खेल की स्थिति काफी खराब है. हालांकि 2019-20 के बजट में युवा मामले और खेल मंत्रालय को 2,216 करोड़ रुपए का आबंटन किया गया था. लेकिन स्थिति यह है कि युवा मामलों का विभाग पूरी आबंटित राशि को खर्च ही नहीं करता. 2018-19 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय संबंधी स्थायी समिति ने इस संबंध में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. कमिटी का कहना था कि विभाग ने 2017-18 में आबंटित राशि में 150 करोड़ रुपए खर्च ही नहीं किए. इसके अलावा विभाग किसी दूसरे मंत्रालय से कोई समन्वय स्थापित नहीं करता. खेलों में लड़कियों को प्रोत्साहित करने के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से समन्वय किया जाना चाहिए जिस पर किसी का ध्यान नहीं है.

शोषण से बच भी गए तो लैंगिक भेदभाव के बोझ से कैसे बचेंगे

खेल की दुनिया में सिर्फ यौन शोषण एक समस्या नहीं. अधिकतर महिला खिलाड़ियों को हर मोर्चे पर लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है. कमिटियों में उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. जैसे भारत में नेशनल ओलंपिक कमिटी में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ 3.5% है. स्विमिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया, वॉलिबॉल फेडरेशन ऑफ इंडिया, इंडिया रग्बी यूनियन जैसे आठ राष्ट्रीय खेल परिसंघों में एक भी महिला सदस्य नहीं. बाकी के परिसंघों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 2% से 8% के बीच है.

सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व हॉकी परिसंघ में है जोकि 34% है. इसके अलावा महिला खिलाड़ियों को पुरुष खिलाड़ियों से कम मेहनताना और पुरस्कार राशि भी दी जाती है. देश में ए प्लस कैटेगरी के पुरुष क्रिकेटर्स को BCCI 7 करोड़ रुपए सालाना देता है और इसी श्रेणी की महिला क्रिकेटर्स को 50 लाख रुपए सालाना. प्राइज मनी भी अलग-अलग होती है. कई साल पहले दीपिका पल्लीकल के प्राइज मनी के मुद्दे पर पांच साल तक नेशनल स्कवॉश चैंपियनशिप का बायकॉट किया था. जब प्राइज मनी बराबर हुई तब 2016 में उन्होंने जोशना चिनप्पा को हराकर चैंपियनशिप का खिताब अपने नाम किया.

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यौन शोषण का जवाब क्या है

मुद्दा फिर वही है. महिला खिलाड़ियों को उत्पीड़न का सामना कब तक करना पड़ेगा. जवाब भी मुश्किल है, पर पहल की जा सकती है. स्थितियों में भी सुधार किया जा सकता है. परिसंघों में इंटरनल कंप्लेन कमिटी के साथ-साथ सेंट्रल हेल्पलाइन नंबर शुरू किया जा सकता है. सबसे पहले तो जांच में तेजी लाई जा सकती है. दरअसल 2011 के राष्ट्रीय खेल विकास संहिता के परिशिष्ट में यौन उत्पीड़न के निवारण की धारा तो है, पर उस पर अमल नहीं किया जाता. इस संहिता को भी 2013 के कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध और निदान) अधिनियम के अनुरूप नहीं तैयार किया गया है. वैसे खेल परिसंघों में यौन शोषण से निपटने के लिए 2016 में भाजपा के अनुराग ठाकुर एक प्राइवेट मेंबर बिल भी लाए थे- नेशनल स्पोर्ट्स एथिक्स कमीशन बिल, लेकिन उस पर अब तक विचार जारी है.

तो, SAI को लेकर यह विवाद जरूर नया है, लेकिन उत्पीड़न वही पुराना है. अक्सर यौन उत्पीड़न के मामलों में जिस एक उसूल को ठोकर मारी जाती है, वह बराबरी का उसूल होता है. SAI को भी इस बराबरी के उसूल को याद रखना चाहिए, खासकर तब जब उसकी साख दांव पर लगी हो.

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