नागरिक उड्डयन मंत्री हरदीप सिंह पुरी को अपनी नियति के साथ साक्षात्कार के लिए अभी दो महीने और इंतजार करना होगा. क्योंकि एयर इंडिया के लिए बोली की समय सीमा अब 30 अक्टूबर तक बढ़ा दी गई है. अगर एयर इंडिया का निजीकरण सफल होता है तो यह राजनीतिक रूप से रणनीतिक विनिवेश के तौर पर इतिहास बनाएगा और भविष्य भी तय करेगा. इससे पहले एयर इंडिया के निजीकरण की दो बार कोशिश हो चुकी है. पहला वाजपेयी सरकार के दौर में और दूसरा मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में.
देश की संपत्ति को बचाने का यह आखिरी मौका हो सकता है. इस बार मोदी सरकार को भाग्यशाली होना चाहिए.
एयर इंडिया: क्या इस महामारी के बीच होगी डील?
ताजा आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है. भारत समेत पूरी दुनिया सदी की सबसे खतरनाक महामारी से प्रभावित है. कोविड-19 में तबाह हुए कई सेक्टर में से एविएशन इंडस्ट्री का सबसे बुरा हाल है. एयरलाइन बिजनेस को नियमित रूप से लाभ में चलाना सबसे कठिन काम होता है. खासकर महामारी के दौर में यह नामुमकिन है. दुनियाभर में कई एयरलाइंस ने दिवालिया होने के लिए आवेदन दिया है और कई अन्य एयरलाइंस को सरकार से आर्थिक मदद भी मिली है.
इस महामारी का कोई हल नहीं है, ऐसे में क्या कोई निवेशक ऐसी एयरलाइन को खरीदने का जोखिम उठाएगा, जो हमेशा से ही नुकसान में हो?
सरकार ने 2002-03 के बाद पहली बार किसी सार्वजनिक क्षेत्र के बिजनेस का निजीकरण करने के अपने प्रयास में एयर इंडिया को सही दिशा में लाने में भी बहादुरी दिखाई है. अगर एक कम जटिल और अधिक लाभदायक बिजनेस का निजीकरण करने की पहले कोशिश होती तो शायद अच्छा होता. इससे अफसरों को प्रक्रिया और इसे अमल में लाने के लिए अधिकारियों के बीच विश्वास जगता. दूसरी तरफ, अगर सरकार पहली कठिन परीक्षा पास कर लेती है तो बाकी की राह उसके लिए आसान हो जानी चाहिए. दांव पर बहुत कुछ लगा है कि क्योंकि सरकार को विनिवेश की लंबी प्रक्रिया चलानी है.
इस महामारी का कोई हल नहीं है, ऐसे में क्या कोई निवेशक ऐसी एयरलाइन को खरीदने का जोखिम उठाएगा, जो हमेशा से ही नुकसान में हो?
सरकार इस बार एयर इंडिया के निजीकरण को लेकर कई चीजें सही कर रही है.
अब ये पूछना उचित होगा कि एक से अधिक खरीददार आर्थिक संकट के माहौल में भी नुकसान में चल रही एयरलाइन को खरीदने में दिलचस्पी क्यों दिखाएंगे?
एयरलाइन को मुनाफे में न चला पाने में सरकार की विफलता का मुख्य कारण इन परिसंपत्तियों का बेहतर ढंग से उपयोग न कर पाना है.
एयर इंडिया पहेली: इस बार सरकार क्या सही कर रही है
इस विनिवेश को बेचने के लिए सरकार कई चीजें सही कर रही है:
पिछले प्रयासों से अलग, इस बार इच्छुक निवेशक को एयर इंडिया की 100% इक्विटी बेचने का प्रस्ताव है.
सरकार ने गैर-मूल परिसंपत्तियों जैसे एयर इंडिया के रियल एस्टेट और उसके कला के अनमोल कलेक्शन को अलग कर दिया है. ताकि बाद में इन परिसंपत्तियों को बेचने को लेकर विवाद खड़ा न हो.
सरकार ने भारी भरकम कर्ज को एयर इंडिया के खाते से निकाल दिया है. सीधी बात है कि इस भारीभरकम कर्ज के ब्याज के भुगतान के कारण किसी भी ऑपरेटर के लिए मुनाफा निकालना नामुमकिन होगा.
इसके अलावा हाल के वर्षों में एयरलाइन की ऑपरेशनल परफॉर्मेंस में सुधार हुआ है और कई लाभदायक मार्गों को भी जोड़ा गया है. इसके अलावा मैनेजमेंट पोजिशन पर भर्तियां बंद करके कर्मचारियों की संख्या पर भी अंकुश लगाया है. ज्यादातर सीनियर मैनेजमेंट सरकार के अलग-अलग हिस्सों से प्रतिनियुक्ति पर हैं और निजीकरण के बाद इन्हें आसानी से बाहर किया जा सकता है.
अब ये पूछना उचित होगा कि एक से अधिक खरीददार आर्थिक संकट के माहौल में भी नुकसान में चल रही एयरलाइन को खरीदने में दिलचस्पी क्यों दिखाएंगे?
सरकार एयर इंडिया को लाभ में क्यों नहीं चला सकी?
इसका जवाब एयर इंडिया की संपत्तियों में छिपा है. इसकी तीन प्रमुख संपत्ति की कैटेगरी हैं:
एयरक्राफ्ट
द्विपक्षीय उड़ान के अधिकार/उतरने का अधिकार/देश-विदेश के प्रमुख एयरपोर्ट पर स्लॉट
अत्यधिक कुशल/ प्रशिक्षित पायलट/ केबिन क्रू
एयरलाइन को मुनाफे में न चला पाने में सरकार की विफलता का मुख्य कारण इन परिसंपत्तियों का बेहतर ढंग से उपयोग न कर पाना है. सभी मुनाफे वाली एयरलाइंस ये सुनिश्चित करती हैं कि उनके एयरक्राफ्ट ज्यादा समय तक हवा में रहें. जमीन पर रहने से इस संपत्ति को नुकसान पहुंचता है. इस कारण से लौटने में कम समय और कई रास्तों पर रात-दिन एक ही एयरक्राफ्ट के इस्तेमाल से मुनाफा ज्यादा होता है.
इंडिगो की तुलना में एयर इंडिया के एयरक्राफ्ट एक तिहाई समय हवा में गुजारते हैं. इंडियो इस मामले में मानक है. इसी प्रकार, प्रमुख निजी एयरलाइंस नियामकों द्वारा तय की गई सीमा का भरपूर उपयोग करती है और अपनी फ्लाइट और केबिन क्रू को उड़ान भरने के लिए तैनात करती हैं. एयर इंडिया का मैनपावर अधिक महंगा है और उनके काम के घंटे कम हैं. सबसे जरूरी बात, एयर इंडिया अपनी बेशकीमती संपत्तियों को ढंग से उपयोग नहीं करता: जैसे द्विपक्षीय उड़ान के अधिकार (इंटरनेशनल), उतरने का अधिकार और देश-विदेश के प्रमुख एयरपोर्ट पर स्लॉट का ठीक से इस्तेमाल न करना.
ऐसा दो कारणों से है:
पहला, एयरक्राफ्ट का न होना
दूसरा, हम दिल्ली या मुंबई को ग्लोबल हब के रूप में विकसित करने में विफल रहे हैं, क्योंकि अधिकांश यात्री प्वाइंट से प्वाइंट नहीं, बल्कि इन्हीं हब से उड़ान भरते हैं.
इसी मॉडल को अपनाकर छोटे यूरोपीय और एशियाई देशों की एयरलाइंस ग्लोबल प्लेयर्स बन गई हैं.
अगर कोई प्राइवेट प्लेयर इन सभी संपत्तियों का बेहतर इस्तेमाल करने में सक्षम है तो एयर इंडिया उसके लिए बेहद आकर्षक प्रस्ताव हो सकता है.
एयर इंडिया को बचाने के लिए बेहद जरूरी है निजीकरण
अब जैसे-जैसे प्रक्रिया समाप्त होती जा रही है, सरकार को दो जाल से बचने के लिए सावधान रहना चाहिए:
बोली लगाने वालों की संख्या के बारे में नहीं सोचना चाहिए.
और इस बिक्री से होने वाले राजस्व को लेकर भी परेशान नहीं होना चाहिए.
घाटे में चल रही एयर इंडिया का निजीकरण सरकार के लिए बेहद जरूरी है और ये राष्ट्रीय एयरलाइन और इससे जुड़े लोगों को जीवित रखने की उम्मीद है. इसका सीधा मकसद राष्ट्रीय संपत्ति को बचाना है. अगर ये खरीदी सफल होती है तो यह अन्य सरकारी स्वामित्व वाली संपत्तियों की प्रोडक्टिविटी को खोलने का रास्ता बन सकता है. तब यह मोदी सरकार की वास्तविक आर्थिक विरासत को परिभाषित कर सकता है.
(लेखक वेदांता में मुख्य अर्थशास्त्री हैं. यह एक ओपनियन लेख है और लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं.)
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