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भ्रष्टाचार से जुड़े नए कानून में कहां-कहां रह गया है लोचा

अब ईमानदारों के साथ कुछ बेईमान अधिकारी भी चैन की नींद सो सकेंगे.

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संसद ने भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 में संशोधनों को आखिरकार पारित कर दिया. इसकी कवायद 2013 से ही चल रही थी. बैंकरों और भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के संघों ने इसका स्वागत किया है, जबकि प्रशांत भूषण और संतोष हेगड़े जैसे भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं ने इनका समर्थन किया है.

ज्यादा दिन नहीं हुए, जब भ्रष्टाचार आम चर्चा का विषय था और इसके कारण एक सरकार को जाना पड़ा था. अब ऐसा महसूस होता है कि एक महत्वपूर्ण कानून में व्यापक संशोधनों पर ठंडी प्रतिक्रिया सामने आई है, तो लोग किस बात पर वाहवाही कर रहे हैं और किस बात पर नाखुश हैं?

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रिश्वत देने वाले की जवाबदेही

कुल तीन तरह के विवादित प्रावधान हैं, जिनकी मैं क्रमबद्ध चर्चा करना चाहूंगा. सबसे पहले, रिश्वत देने वालों की जवाबदेही. भारतीय कानून में पहली बार रिश्वत देने को स्वतंत्र रूप से एक दंडनीय अपराध बनाया गया है- किसी संबद्ध कारक के बिना, किसी सरकारी कर्मचारी को रिश्वत के लिए उकसाने भर को ही नहीं.

हालांकि इससे जुड़ा एक सहज सवाल है-उनका क्या होगा, जिन्हें रिश्वत देने के लिए बाध्य किया जाता है? विधेयक के पूर्व के प्रारूप में सिर्फ उनको संरक्षण दिया गया था, जिन्होंने पुलिस जांच के दौरान किसी सरकारी कर्मचारी को रिश्वत (संभवत: दिखावे के लिए) देने की पेशकश की हो.

राज्यसभा की प्रवर समिति को इस समस्या का अंदाजा था और इसने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया कि रिश्वत देने वालों को वैसी स्थिति में दंडित नहीं किया जाना चाहिए, जब उसे रिश्वत के लिए 'बाध्य' किया जाता हो, या उसने घटना के सात दिनों के भीतर रिश्वत के लिए बाध्य किए जाने की रिपोर्ट दर्ज कराई हो. इरादा भले ही अच्छा रहा हो, पर इस अपवाद की व्यवस्था बुरी तरह की गई है.

आम नागरिकों की दृष्टि से देखें, तो यह कई सवालों को अनुत्तरित छोड़ता है:

  • क्या बाध्य किए जाने पर रिश्वत देने के बावजूद पुलिस मेरे खिलाफ मामला दर्ज कराएगी?
  • क्या जेल जाने से बचने के लिए कोर्ट में मुझे ही बाध्य किए जाने वाली बात साबित करनी होगी?
  • क्या पुलिस में मेरी शिकायत को स्वीकारोक्ति के रूप में लिया जाएगा?
  • और यदि परिस्थितियां वास्तव में बाध्यकारी हैं, तो क्या मेरे लिए शिकायत दर्ज करा आगे और परेशानी मोल लेने से बढ़िया नहीं होगा रिश्वत देकर परेशानी से बचना?

ऐसे संदेहों के कारण अधिक संख्या में लोग पुलिस के पास जान से हिचकेंगे (जो खुद भ्रष्ट होने के लिए बदनाम और भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई को लेकर गैरभरोसेमंद हैं) और इस कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई बुरी तरह बाधित होगी.

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अब ईमानदारों के साथ कुछ बेईमान अधिकारी भी चैन की नींद सो सकेंगे.
सांकेतिक तस्वीर
(फोटोः Twitter)
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आपराधिक कदाचार’ को परिभाषित करना

दूसरे, यह विधेयक सरकारी कर्मचारियों के संदर्भ में 'आपराधिक कदाचार' की परिभाषा को सिर्फ दो विशिष्ट कारकों में सीमित करता है-पहला, अपने हितों के लिए दूसरे की संपत्ति का दुरुपयोग करना (उदाहरण के लिए किसी पुलिस अधिकारी का जब्त किए किसी वाहन का निजी इस्तेमाल करना), और दूसरा, नौकरी की अवधि में 'अवैध रूप से' खुद को मालामाल करना.

योगेंद्र यादव 2016 में ही इस संशोधन की आलोचना करने वालों में शामिल थे. उनका कहना था कि यह 'सहमति से भ्रष्टाचार', जो कि बड़े पदों पर भ्रष्टाचार का प्रचलित तरीका है, इसके खिलाफ लड़ाई एक अहम प्रावधान को गंभीर रूप से कमजोर करता है.

इस कानून के पहले के मसौदे की एक अन्य कमी को इस विधेयक में दूर कर दिया गया है. कमी ये थी कि आय से अधिक संपत्ति पाए जाने पर सबूत देने की, धन का स्रोत बताने की जिम्मेदारी सरकारी कर्मचारी पर छोड़ने की बात कही गई थी. अब इसे सुधार दिया गया है.
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प्रवर समिति की रिपोर्ट ने सुनिश्चित किया कि इस आलोचना को प्रभावी तरीके से दूर कर दिया जाए, और संशोधनों में इससे संबंधित पहले के दृष्टिकोण को फिर से जगह मिल सके.

एक तरह से योगेंद्र यादव की आलोचना भी अब वैध नहीं रही, क्योंकि रिश्वत किसे कहा जाए, सेक्शन 7 के तहत इस परिभाषा में भी संशोधन किया गया है. सरकारी कर्मचारी को रिश्वत देने के अपराध की नई परिभाषा अब इतनी व्यापक है कि उसमें ऐसे व्यवहार भी समाहित हो गए हैं, जो पहले 'आपराधिक कदाचार' के तहत दंडनीय थे.

दरअसल एक ही चीज को 'आपराधिक कदाचार' की श्रेणी में भी डाल देने से सिर्फ भ्रम की स्थिति ही बनती. इस कानून के मसौदे में और जो भी समस्याएं हों, ‘रिश्वत’ और ‘आपराधिक कदाचार’ के बीच सैद्धांतिक अंतर अब पहले से कहीं ज्‍यादा स्पष्ट है.

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अब ईमानदारों के साथ कुछ बेईमान अधिकारी भी चैन की नींद सो सकेंगे.
योगेंद्र यादव 2016 में ही इस संशोधन की आलोचना करने वालों में शामिल थे. 
(फोटो: PTI)
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सबसे जटिल प्रावधान

तीसरा, और शायद सर्वाधिक विवादास्पद प्रावधान बिल के अनुच्छेद 17-ए से जुड़ा है, जिसमें व्यवस्था है कि इस कानून के तहत अपराधों के लिए किसी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ कोई जांच-पड़ताल हो, इसके लिए उच्चतर अधिकारी (आरोपी कर्मचारी का निरीक्षण करने वाला) की पूर्वानुमति ली जानी होगी. पर यह फायदा हर सरकारी कर्मचारी के लिए नहीं है. इसके तहत सिर्फ वे आएंगे, जिनकी 'सिफारिशें' या 'फैसले' रिश्वत के आरोपों के घेरे में हैं.

पहली नजर में यह एक समस्या पैदा करने वाला प्रावधान है. पहले ही इस कानून के सेक्शन 9 के तहत सरकारी कर्मचारियों को प्रक्रिया संबंधी संरक्षण प्राप्त हैं, जिसके अनुसार बिना आधिकारिक स्वीकृति के अदालतें संज्ञान नहीं ले सकती हैं.

तो फिर अतिरिक्त संरक्षण क्यों? वह भी कुछ निश्चित श्रेणी के अपराधों के लिए?

कुछ लोगों को संदेह है कि ऐसा सुब्रह्मण्‍यम स्वामी बनाम सीबीआई निदेशक मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए किया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली स्पेशल पुलिस स्थापना कानून, 1949 के सेक्शन 6-ए को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि सिर्फ संयुक्त सचिव से ऊपर के स्तर के सरकारी कर्मचारियों को दिया गया.

इसी तरह का एक संरक्षण, कानून के समक्ष समानता के अधिकार के विरुद्ध होने के कारण असंवैधानिक है. इस प्रावधान ने अदालत के फैसले के आधार को नजरअंदाज करते हुए, दूसरे चरम को अपनाने का काम भर किया है-सबको यह संरक्षण देकर.

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'सिफारिश' या 'फैसले' की परिभाषा की अनुपस्थिति में, हम कैसे जान पाएंगे कि किन परिस्थितियों में इस प्रक्रिया संबंधी अपेक्षा को पूरा किया जाना चाहिए? क्या इसे उस परिस्थिति में लागू किया जाना चाहिए, जब ट्रैफिक पुलिस का एक सिपाही रिश्वत लेकर चालान नहीं काटने का फैसला करता है?

क्या इसे उस परिस्थिति में लागू किया जाना चाहिए, जब एक रजिस्ट्री कर्मचारी रिश्वत लेकर कागजात स्वीकार करने का फैसला करता है, नियमों के विरुद्ध जाकर.

मैं ये दो उदाहरण सिर्फ इसलिए दे रहा हूं कि सरकारी व्यवस्था से काम लेने के दौरान लोगों को इस तरह की परेशानियों का ही सर्वाधिक सामना करना पड़ता है. इस कानून में इस पर बिल्कुल रोशनी नहीं डाली गई है कि रिश्वत की रिपोर्ट दर्ज कराते समय हमें आपराधिक न्याय प्रणाली से क्या उम्मीद करनी चाहिए?

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ईमानदार और बेईमान, दोनों तरह के अधिकारियों को राहत

उच्च अधिकारियों से मांगे जाने के अधिकतम चार महीनों के भीतर स्वीकृति या अस्वीकृति मिल जानी चहिए, पर कोई जवाब नहीं मिलने पर क्या होगा? सुप्रीम कोर्ट ने सुब्रह्मण्‍यम स्वामी बनाम मनमोहन सिंह मामले में सेक्शन 19 के संदर्भ में स्पष्ट किया था कि अगर कोई जवाब नहीं मिलता हो, तो इसे स्वीकृति के रूप में लिया जाए. क्या यहां भी यही सिद्धांत लागू होगा? हमें पता नहीं और इसे लेकर कोई स्पष्टता नहीं है.

कुल मिलाकर देखा जाए तो इन संशोधनों ने एक तरह से अपराध की सीमाओं पर विचार किए बिना रिश्वत के अपराध की रिपोर्ट करने, उसकी जांच करने और दोषियों को दंडित करने को और भी मुश्किल बना दिया है.

शिकायतकर्ता हतोत्साहित होंगे, दोषियों को बचाया जाएगा तथा अस्पष्टता और अनिश्चितता के कारण बहुतों को अपराध के परिणामों से ‘बचने का प्रावधान’ मिल जाएगा. यह निचले स्तर के अधिकारियों के लिए अनुचित प्रोत्साहन देता है कि वे रिश्वत की अपनी साजिशों में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को शामिल करें और इसी तरह वरिष्ठ अधिकारी अपने नीचे के लोगों को.

जैसा कि कई बार कहा जा चुका है, इन संशोधनों के कारण ईमानदार अधिकारी परेशान किए जाने के भय के बिना चैन की नींद सोएंगे, पर अनेक बेईमान अधिकारी भी ऐसा ही करेंगे.

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(आलोक प्रसन्ना कुमार बेंगलुरु में एडवोकेट हैं. उनसे @alokpi पर संपर्क किया जा सकता है. इस लेख में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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