लिंचिंग को लेकर भारत सरकार कोई अलग से आंकड़ा नहीं रखती है. ये बात केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने राज्यसभा के जरिये देश को बताई. इस बयान को अविश्वसनीय और उपहास के लायक माना गया.
शायद इस पर सबसे अच्छी प्रतिक्रिया हिन्दुस्तान टाइम्स के पूर्व एडिटर-इन-चीफ बॉबी घोष की ओर से आई थी. उन्होंने समाचार पत्र पर एक शानदार ‘हेट ट्रैकर’ सेट किया था (और उनके छोड़ने के बाद इसे नीचे जाते देखा गया).
द क्विंट भी 2015 से लिंचिंग से जुड़ी घटनाओं के रिकॉर्ड्स रख रहा है.
लेकिन ये निजी पहल जितने भी अच्छे हैं, तथ्य यही है कि सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जिसके आधार पर दो समस्याओं पर कुछ कहा जा सके- एक तुलनात्मक रूप से छोटा और एक बड़ा.
लिंचिंग की कोई कानूनी परिभाषा नहीं
तुलनात्मक रूप से एक छोटे व्यक्ति को इस बात से खास मतलब नहीं है कि लिंचिंग की कोई कानूनी परिभाषा नहीं है. निश्चित रूप से यह गैर इरादतन हत्या न होने की स्थिति में आईपीसी के तहत हत्या के रूप में दंडनीय है.
लेकिन जैसी कि अपराध की कानूनी परिभाषा है, उसमें यह अपराध की विशेष प्रकृति का ध्यान नहीं रखती है.
परिभाषा के अनुसार लिंचिंग लोगों के एक समूह का अचानक जमा हो जाना और फिर गायब हो जाना नहीं है, बल्कि इसके नतीजे में किसी इंसान की मौत होती है.
वे हिंसा के ही उद्देश्य से एक जगह जमा होते हैं और इस हिंसा का उद्देश्य खास है. उनके लिए यह सामाजिक नियंत्रण का साधन है. हालांकि मंत्री से जो सवाल पूछा गया वो चीजों को लेकर भ्रम में डालने वाला है, क्योंकि उसमें हर प्रकार की भीड़ की हिंसा को लिंचिंग कहा गया. जैसा कि वास्तव में है नहीं. बच्चा चोरी की अफवाह में बच्चे को उठाने वाले की हत्या और वास्तव में लिंचिंग की घटना में अहम फर्क है.
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पहली घटना में शिकार बना व्यक्ति समाज के किसी भी हिस्से से होता है. मसलन- शहरी, ग्रामीण, पैसे वाला या फिर गरीब. जबकि दूसरे मामले में ज्यादातर शिकार गरीब मुसलमान या दलित बनते हैं (यहां तक कि समृद्ध मुस्लिम और दलित भी नहीं).
जहां तक पहली किस्म की घटना का सवाल है, तो उसमें पुलिस वालों का सपोर्ट नहीं होता (यहां तक कि कई बार पुलिस वाले भी भीड़ के टारगेट पर आए), जबकि दूसरे मामले में अकसर पूरी रणनीति के साथ पुलिस का सपोर्ट देखा गया. और ऐसा कई बार स्थानीय और प्रभावशाली समूहों के दबाव में होने की बात सामने आई.
इस तरह की घटनाओं से निपटने के लिए जो सबसे सटीक कानून है वो प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट 1955 और अनुसूचित जाति-जनजाति एक्ट 1989 है. ये दोनों कानून जाति या संप्रदाय के आधार पर होने वाले अत्याचार को बड़े अपराध की तरह देखते हैं.
लेकिन ये दोनों ही कानून नफरत की वजह से होने वाली हिंसा को पर्याप्त तरीके से डील नहीं कर पाते, जिनमें सामाजिक नियंत्रण के लिए किसी खास समुदाय को टारगेट कर लिंचिंग की घटनाएं शामिल हैं.
भले ही देश के कानून के तहत लिंचिंग की परिभाषा अच्छी तरह से बताई गई होती, फिर भी देश में अपराध से जुड़े आंकड़ों को सहेजने में एक अलग ही समस्या है.
देश में अपराध से जुड़े आंकड़े पुलिस की ओर से दर्ज एफआईआर के आधार पर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) जमा करता है. इसका साफ अर्थ यही है कि आंकड़ों की स्थिति पुलिस की एफआईआर दर्ज करने की इच्छा पर निर्भर है. और एफआईआर दर्ज करने की वास्तविक स्थिति कुछ और ही है. खासकर लिंचिंग जैसी घटनाओं को लेकर, जिनमें अकसर घटनाओं की गंभीरता को कम करके दिखाने की कोशिश होती है.
लिंचिंग पर आंकड़ों का न होना
इसके अलावा सच तो यही है कि अगर पुलिस सही-सही अपराध में भी एफआईआर दर्ज करे, तो भी आंकड़ों को जमा करने का मौजूदा प्रावधान हमें समाधान नहीं दे पाता है. क्योंकि इसके तहत केवल ‘मूल अपराध’ की गणना की जाती है. सहायक अपराधों की गणना इसके तहत संभव ही नहीं है.
मसलन, एक लिंचिंग की घटना भी सिर्फ अन्य हत्याओं के साथ हत्या के रूप में गिना जाता है, न कि अपराधों की अलग-अलग श्रेणी के रूप में. जाहिर है लिंचिंग से जुड़े आंकड़ों का अलग से न होना देश में अपराध से जुड़े आंकड़ों में मौजूद खामियों की ओर ध्यान दिलाता है.
खासतौर से जब बात कानून और व्यवस्था की होती है. यानी हम एक प्रकार से मान रहे हैं कि हमारे पास इससे ज्यादा कुछ नहीं है और हम जो कुछ भी करते हैं वह अधूरा और विरोधाभासी होता है. इस स्थिति में जब हम कानून और व्यवस्था को दुरुस्त करने की बात करते हैं, तो हम खुद को निराशा में पाते हैं और हमारे पास समस्याओं के लिए आधा-अधूरा समाधान होता है, जिसका जमीनी स्तर पर कोई खास प्रभाव नहीं होता.
लेकिन आंकड़ों की गुणवत्ता और लिंचिंग की परिभाषा एक समस्या है और जैसा कि मंत्री के बयान से निकलकर आया, ये एक अपेक्षाकृत छोटी समस्या है. लेकिन जो एक बड़ी समस्या है, वो ये कि हम इस स्थिति को लेकर चिंतित हों.
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लिंचिंग पर आंकड़े जमा करने की कोई कोशिश नहीं
जब केंद्र सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है और कहती है कि उसके पास उस चीज के आंकड़े नहीं हैं, जो इन दिनों सबसे ज्यादा पब्लिक डिबेट में है, तो इसका संदेश यही है कि या तो सरकार परवाह नहीं करती है या फिर जो कुछ हो रहा है उसके साथ पूरी तरह से सहमत है (जो कि वास्तव में एक ही चीज है). इसमें कोई संदेह नहीं कि कानून-व्यवस्था और पुलिस राज्यों के विषय हैं, लेकिन ये बात चौंकाने वाली है कि केंद्र की सरकार ने तीन साल में आखिर क्यों नहीं ये सोचा कि लिंचिंग की घटनाओं के अलग से आंकड़े रखे जाएं?
केंद्र सरकार ने अब लिंचिंग और भीड़ की हिंसा से निपटने के लिए एक पैनल का गठन किया है. पैनल को अपनी सिफारिशें देनी हैं. लेकिन आश्चर्य होता है कि वो सिफारिशें कैसी होंगी, जब तक केंद्रीय मंत्री लिंचिंग के आरोपियों के साथ सार्वजनिक मंच पर साथ-साथ दिखेंगे?
अगर सरकार पर आंकड़ों को इकट्ठा करने के लिए दबाव नहीं बनाया जा सकता और वे लिंचिंग की सही परिभाषा के साथ सामने नहीं आते हैं तो फिर उनसे एक समस्या के रूप में इसके समाधान की उम्मीद भी नहीं की जा सकती. क्या जैसा कि भारत में कई बार बीमारी का इलाज होता है, वैसे ही इस बीमारी के लक्षणों का इलाज करेंगे और इसके तहत व्हाट्सएप को प्रतिबंधित या नियंत्रित करेंगे? या सबसे बदतर समाधान- देश भर में गोमांस और मवेशियों के वध पर बैन की शक्ल में लेकर आएंगे?
अब यहां बड़ी समस्या ये है कि- केंद्र की सरकार ने जला दिया है, जबकि भारत जला दिया गया है.
और तुच्छ स्वार्थों के लिए इसे हवा देने से अब जबकि आग नियंत्रण से बाहर निकल रही है, तो बताया जा रहा है कि इसे नियंत्रित करने की कोई योजना नहीं है.
जब केंद्र सरकार ये कहती है कि उसके पास लिंचिंग को लेकर अलग से कोई आंकड़ा नहीं है, तो ऐसा कहते हुए सरकार न सिर्फ देश में कानून-व्यवस्था को लेकर आंकड़ों के संग्रह की दयनीय स्थिति बता रही है, बल्कि वो अपनी खुद की जटिलता के बारे में भी बता रही है.
(आलोक प्रसन्ना कुमार बेंगलुरु में एडवोकेट हैं. उनसे @alokpi पर संपर्क किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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