प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बंगाल में गुरुवार को जब यह ऐलान किया कि कोलकाता में समाज सुधारक और शिक्षाविद ईश्वरचंद्र विद्यासागर की विशाल प्रतिमा लगेगी तो यह टीएमसी और बीजेपी के बीच चल रही चुनावी जंग में एक वैचारिक दांव था. उन उदारवादी वोटरों को अपनी ओर लाने के लिए जो कट्टर हिंदुत्व के तो खिलाफ हैं. लेकिन ममता बनर्जी के शासन और तौर तरीकों से भी खुश नहीं हैं.
ध्रुवीकरण और पैसे के दम पर ममता को घेर रही है बीजेपी
ममता बनर्जी और उनकी पार्टी का हर नेता पिछले 3 दिनों से ईश्वरचंद विद्यासागर के आदर्शों और बंगाल की संस्कृति की दुहाई दे रहा है और मोदी और अमित शाह समेत बीजेपी नेताओं को ‘बाहरी’ और बांग्ला सभ्यता से ‘अनजान’ बता रहा है. लेकिन इस बाहरी और भीतरी की लड़ाई में भी बीजेपी के शस्त्रागार में इतना गोला बारूद है कि वह ममता बनर्जी की नींद उड़ाने के लिए काफी है.
लोकतंत्र की दुहाई दे रही बीजेपी के पास बंगाल में मजबूत संगठन भले न हो लेकिन वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और पैसे की ताकत के दम पर ममता बनर्जी को घेर रही है. जहां नरेंद्र मोदी और अमित शाह बंगाल में बार-बार मुस्लिम तुष्टीकरण, गो तस्करी, हिंदुओं के उत्पीड़न और सीमापार घुसपैठ का मुद्दा उठा रहे हैं वहीं कभी ममता के साथ मिलकर तृणमूल कांग्रेस को खड़ा करने वाले मुकुल रॉय जैसे उनके भरोसमंद अब बीजेपी के साथ हैं और टीएमसी में लगातार सेंध लगा रहे हैं.
बीजेपी तृणमूल का झंडा और डंडा दोनों उड़ा ले जाना चाहती है?
ममता की चिन्ता इस वक्त दो मोर्चों पर हैं. उनकी पहली फिक्र के बारे में तृणमूल के ही एक नेता ने कोलकाता में बताया- बीजेपी हमारी पार्टी का झंडा और डंडा ही उड़ा कर ले जाना चाहती है. वह हमारे विधायकों और संगठन के लोगों के साथ लगातार ‘टच’ में है. दीदी इसे समझती हैं और इसके बारे में लगातार पार्टी कार्यकर्ताओं को चेता रही हैं.
बंगाल के पूरे प्रचार में इस चिंता के स्पष्ट प्रमाण दिखे हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने श्रीरामपुर में हुई रैली में टीएमसी के 40 विधायकों के अपने संपर्क में होने की बात कही तो मुकल रॉय ने कहा कि सवा सौ से अधिक टीएमसी विधायक उनके संपर्क में हैं. बैरकपुर से टीएमसी नेता दिनेश त्रिवेदी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे अर्जुन सिंह ने पार्टी छोड़ते वक्त यही बात कही.
बीजेपी नेताओं के ऐसे बयान टीएमसी के भीतर ‘पैनिक बटन’ दबाने के लिए हैं. निश्चित रूप से टीएमसी में दो-फाड़ करने के लिए बीजेपी आलाकमान के पास एक ‘सीक्रेट प्लान’ की बात होती रही है. अगर केंद्र में मोदी की वापसी होती है तो अगले विधानसभा चुनावों से पहले तृणमूल संकट में होगी. राजनीतिक जानकार और द स्टेट्समैन के वरिष्ठ संपादक उदय बसु कहते हैं.
अगर ऐसा होता है तो बंगाल में अगले विधानसभा चुनावों में टीएमसी का वजूद ही खतरे में होगा. इसलिए ममता के लिए यह लड़ाई सिर्फ लोकसभा चुनाव नहीं बल्कि 2021 का विधानसभा चुनाव भी है. वित्तमंत्री अरुण जेटली समेत तमाम केंद्रीय नेताओं का बार-बार बंगाल में संवैधानिक मशीनरी के फेल हो जाने का आरोप लगाना टीएमसी में यह डर भी फैला रहा है कि कहीं केंद्र में मोदी की वापसी हुई तो राज्य में ममता सरकार भंग कराकर विधानसभा चुनाव हो जाएंगे. ऐसे में लोकतंत्र का क्या होगा किसी को नहीं मालूम.
लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस के वोट बीजेपी की ओर जाना ममता की बड़ी चिंता
टीएमसी की दूसरी बड़ी फिक्र है लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस के वोट का टूटकर बीजेपी की ओर जाना. बंगाल में आज टीएमसी, बीजेपी, लेफ्ट और कांग्रेस के बीच चतुष्कोणीय लड़ाई हो रही है. पिछले लोकसभा चुनावों में तृणमूल को लगभग 40% वोट मिला जबकि बीजेपी के पास 17% वोट था लेकिन तब लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस के पास कुल 35% से अधिक वोट था.
वोटों का यह विभाजन टीएमसी के पक्ष में है क्योंकि यह उसे लगभग 90% सीटों में निर्णायक बढ़त देता है. लेकिन इन लोकसभा चुनावों में अगर लेफ्ट और कांग्रेस का वोट टूट कर बीजेपी की ओर जाता है – जिसकी प्रबल संभावना है - तो यह ममता बनर्जी के लिये बड़ा संकट है और इसीलिए वह काफी परेशान दिख रही हैं.
कांग्रेस बंगाल में हर जगह फैली हुई पार्टी नहीं है इसलिये उसका वोट बीजेपी की ओर जाना टीएमसी के लिये उतना बड़ा संकट नहीं होगा. लेकिन अगर बीजेपी सीपीएम के वोट का बड़ा हिस्सा अपनी ओर खींचने में कामयाब हुई और उसके साथ टीएमसी का थोड़ा बहुत वोट भी टूटा तो चुनाव के नतीजे काफी चौंकाने वाले हो सकते हैं.रिसर्चर और चुनाव विश्लेषक आशीष रंजन कहते हैं
त्रिपुरा में ढाई दशकों से जमी सीपीएम के पराभव के पीछे यही वजह रही. वहां 2018 विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने कांग्रेस के सारे वोट पर कब्जा कर लिया और सीपीएम का किला ध्वस्त हो गया. तो सवाल है कि ममता बनर्जी के पास रास्ता क्या है या उन्होंने इस लोकसभा चुनाव में इस लड़ाई को अब तक कैसा लड़ा है
ममता की जंग को समझने के लिए लालगढ़ की वो रैली याद करनी होगी
टीएमसी और बीजेपी के बीच बंगाल में चल रही वर्तमान जंग को समझने के लिये अगस्त 2010 में ममता बनर्जी की लालगढ़ में की गई वह रैली याद करना जरूरी है जो उस वक्त सीपीएम के साथ उनके तात्कालिक संघर्ष में एक बड़ा मोड़ थी. तब ममता ने पुलिस द्वारा माओवादी नेता चेरुकुरी राजकुमार उर्फ आज़ाद के मारे जाने का खुलकर विरोध किया था.
उस वक्त छत्तीसगढ़ के बस्तर में माओवादियों ने 3 महीने के भीतर ही सुरक्षा बलों पर ताबड़तोड़ हमले कर सीआरपीएफ के 100 से अधिक जवानों को मार डाला था और केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम पर नक्सलियों को काबू में लाने का भारी दबाव था. जवाबी कार्रवाई में 2 जुलाई 2010 को आंध्र प्रदेश पुलिस ने आंध्र-महाराष्ट्र सीमा पर आदिलाबाद के जंगलों में हुई एक “मुठभेड़” में आजाद को मार गिराया. उस वक्त स्वामी अग्निवेश आजाद के जरिये सरकार और माओवादियों के साथ शांतिवार्ता की कोशिश कर रहे थे.
तभी ममता बनर्जी ने न केवल केंद्रीय कैबिनेट में आजाद की “ फर्जी मुठभेड़” का मामला उठाया बल्कि बंगाल में अपनी राजनीतिक रैलियों में भी खुले आम उनकी वकालत भी की. एक केंद्रीय मंत्री रहते ममता के बयान काफी विवादित थे लेकिन ममता बनर्जी को उस वक्त सीपीएम के काडर और बुद्धदेव सरकार की प्रशासनिक मशीनरी से लड़ने के लिए बाहुबल की जरूरत थी. ऐसे में जहां ममता लोगों के बीच जाकर लेफ्ट के खिलाफ जनमत तैयार कर रही थी वहीं उन पर आरोप लगे कि उन्हें नक्सलियों के काडर से भी लगातार ताकत मिलती रही जिसका इस्तेमाल उन्होंने सीपीएम के संगठन के भिड़ने में किया.
बीजेपी के खिलाफ पुरानी रणनीति से नहीं लड़ पाएंगी ममता
हालांकि ममता के सत्ता में आने के बाद माओवादी नेता किशन जी को मार दिया दिया और बंगाल से नक्सलियों का सफाया हो गया लेकिन सीपीएम के तंत्र से लड़ने के लिए ममता ने जो रणनीतिक चाल चली वह कामयाब रही. आज बीजेपी के खिलाफ जंग में ममता जानती हैं कि चुप बैठकर सिर्फ जनवादी तरीके से वह बीजेपी के हमले को रोक नहीं सकतीं. यह बात उन्हें पिछले साल हुई पंचायत चुनावों में समझ आ गई थी और राज्य में उस वक्त जो हिंसा हुई कई लोगों की जानें गईं वह इसका सबूत है.
इसीलिए जहां लेफ्ट और कांग्रेस टीएमसी और बीजेपी के भी “मिलीभगत” का आरोप लगाते हैं वहीं बीजेपी इस वक्त तृणमूल काडर पर “गुंडागर्दी” करने और “वोट लूटने” का आरोप लगा रही है. पंचायत चुनावों में करीब 35% सीटों पर विपक्षी पार्टियां नामांकन ही नहीं भर पाईं और टीएमसी प्रत्याशी निर्विवाद जीते.
आज केंद्रीय चुनाव आयोग के रवैये पर गंभीर सवाल हैं और टीएमसी चुनाव आयोग पर पक्षपात करने और बीजेपी की मदद करने का लगातार आरोप लगा रही है. लेकिन पंचायत स्तर पर संगठन की जो ताकत ममता बनर्जी के पास है वह उन्हें अपने वोटरों को बूथ तक लाने में मदद करती है. जानकार और स्थानीय लोग कहते हैं कि राज्य पुलिस की मदद से टीएमसी ग्रामीण इलाकों में विपक्षियों के वोटरों को डराने और पोलिंग बूथ तक पहुंचने से रोकने में इस ताकत का राज्य इस्तेमाल कर रहा है.
हालांकि टीएमसी के नेता इसे विपक्षियों का डर और छटपटाहट बताते हैं. लेफ्ट की सरकार के खिलाफ ममता बनर्जी के संघर्ष में सहभागी रहे और अब उनके खिलाफ खड़े बीजेपी नेता मुकुल रॉय कहते हैं, “सवाल यह है कि क्या बंगाल में लोकतंत्र बचेगा? हम इसी के लिए लड़ रहे हैं.” लेकिन मुकुल रॉय भी जानते हैं कि बंगाल में बाहुबल की ताकत ही लोकतंत्र पर हमेशा हावी रही है और उनकी वर्तमान पार्टी बीजेपी ने इसमें धनबल और साम्प्रदायिक उन्माद का तड़का लगाकर लोकतंत्र को और कमजोर करने का ही काम किया है.
(हृदयेश जोशी स्वतंत्र पत्रकार हैं. उन्होंने बस्तर में नक्सली हिंसा और आदिवासी समस्याओं को लंबे वक्त तक कवर किया है.)
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