भारत के सामाजिक इतिहास में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर एससी-एसटी के स्वत: स्फूर्त आंदोलन ने सबको चौंका दिया है. राज्य या इलाकाई स्तर पर कई छिटपुट आंदोलन पिछले दस साल में हुए हैं. खैरलांजी में दलित उत्पीड़न और बलात्कार का विरोध, विएना में रविदासिया गुरु रामानंद दास की हत्या का पंजाब में विरोध, रोहित वेमुला सांस्थानिक हत्या के खिलाफ आंदोलन और ऊना में गोरक्षकों के अत्याचार के खिलाफ आंदोलन आदि का खासा असर रहा.
रोहित वेमुला मामले के बाद केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी का मंत्रालय बदल गया और ऊना कांड के बाद गुजरात की तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को पद छोड़ना पड़ा. लेकिन इस बार के आंदोलन का जो भौगोलिक विस्तार नजर आया और जितनी बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए, वह अभूतपूर्व है.
ज्ञात इतिहास में ऐसी कोई और मिसाल नहीं है, जब दलित और आदिवासी इतनी बड़ी संख्या में और इतने एकजुट तरीके से आंदोलन में उतरे. अंबेडकर और लोहिया, दोनों ने इस बारे में लिखा है कि भारत में कभी कोई सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई और यह इतना मुर्दा देश क्यों हैं, लेकिन अगर वे 2018 के इस उभार को देखते, तो शायद वे अपनी थीसिस को बदलते.
मेनस्ट्रीम मीडिया ने अपनी सामाजिक संरचना और सीमित दृष्टि के कारण इस आंदोलन को नकारात्मक नजरिए से देखा है और हिंसा की घटनाओं को कवरेज का मुख्य बिंदु बना लिया, इसलिए जरूरी है कि इस आंदोलन की एक समग्र समीक्षा हो.
2018 के दलित-आदिवासी उभार की चार प्रमुख खासियत है. इनसे इस आंदोलन के सामाजिक चरित्र का भी पता चलता है.
शहरी और कस्बाई आंदोलन
यह आंदोलन मुख्य रूप में शहरों, जिला मुख्यालयों और कस्बों में हुआ. भारत में एक-तिहाई आबादी (जनगणना के मुताबिक 31%) शहरों में रहती हैं. दलितों में भी अच्छा खासा शहरीकरण हुआ है. दलितों की लगभग चौथाई (23.6%) आबादी शहरों में है.
संख्या के हिसाब से देखें, तो भारत में शहरी दलित आबादी की कुल संख्या पौने पांच करोड़ है. देश में कुल दलित आबादी 20 करोड़ 13 लाख है. शहरी दलितों की साक्षरता दर 66% है. इनके अलावा देश में 10.4 करोड़ आदिवासी हैं. शहरीकरण की प्रक्रिया आदिवासियों में भी हुई है. ये शहरी दलित और आदिवासी ही इस आंदोलन की रीढ़ रहे.
आजादी के बाद से इन दोनों समुदायों को केंद्र, राज्य सरकार और स्थानीय निकायों तथा पीएसयू में आरक्षण मिला हुआ है. हालांकि देश में आरक्षण के प्रावधानों का सही ढंग से पालन नहीं होता, फिर भी आरक्षण से इन समुदायों में शहरी मध्यवर्ग का सृजन हुआ है. पिछले आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर तरह के सरकारी क्षेत्र को मिलाकर 1.98 करोड़ नौकरियां हैं. इसमें एससी और एसटी को 22.5% आरक्षण है.
इस तरह मोटे अनुमान के मुताबिक, किसी एक समय में एससी और एसटी के 44 लाख सरकारी कर्मचारी देश में हैं. इसके अलावा शहरीकरण और बाजार अर्थव्यवस्था से भी जातिवाद की जकड़न कमजोर हुई है और जाति और पेशे के परंपरागत बंधन ढीले पड़े हैं.
दलित और आदिवासी भी नए-नए रोजगार से जुड़े हैं. इस तरह बना मिडिल क्लास या लोअर मिडिल क्लास बेहद महत्वाकांक्षी हो सकता है और जाति के आधार पर अत्याचार का तीखा विरोध कर सकता है. इन परिवारों के युवाओं में जाति को लेकर अगर एक आक्रामकता नजर आती है, तो यह स्वाभाविक है.
ओबीसी का समर्थन
यह भारत का सबसे बड़ा सामाजिक समूह है. दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन के मुताबिक देश में ओबीसी जातियों की कुल आबादी 52% है. ओबीसी के बारे में भारत सरकार जनगणना में आकड़े इकट्ठा नहीं करती. इसलिए इस बात का सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है कि ओबीसी की क्या स्थिति है या कि उनका कितना शहरीकरण हुआ है.
शहरों में ओबीसी और एससी-एसटी की व्यथा लगभग एक जैसी है, क्योंकि यहां उच्च संस्थाओं में तीनों समुदायों की उपस्थिति काफी कम है. हालांकि ओबीसी छुआछूत के शिकार नहीं होते हैं, लेकिन जाति के आधार पर भेदभाव उनके साथ भी है और आरक्षण का पालन न होने से वे भी उसी तरह प्रभावित होते हैं, जैसे कि एससी और एसटी.
एससी-एसटी एक्ट के तहत आरोपी ओबीसी भी हो सकते हैं. इसलिए ओबीसी का एक हिस्सा एससी-एसटी एक्ट के खिलाफ रहता था. लेकिन उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच दूरियां घटने से दलितों और पिछड़ों के बीच एक नए किस्म की एकता बनी है. पूरे उत्तर भारत में यूपी के राजनीतिक घटनाक्रम का असर है.
बिहार जैसे राज्य में तो दलित और ओबीसी लंबे समय से साथ वोट डालते आए हैं. 2 अप्रैल के भारत बंद का समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने समर्थन भी किया. ओबीसी के समर्थन की वजह से ही भारत बंद इतने बड़े पैमाने पर सफल हो सका.
कोई आयोजक नहीं
इस आंदोलन की एक बड़ी खासियत यह रही कि इसका आह्वान किसी राजनीतिक दल या संगठन ने नहीं किया था. इस वजह से आंदोलन में एक किस्म की अराजकता भी थी. लेकिन यह आंदोलन की ताकत भी बन गई. किसी नेता या दल की अगुवाई न होने के कारण आंदोलन खरीद-फरोख्त और सौदेबाजी से बच गया.
हजारों सामाजिक संगठन इस आंदोलन में शरीक हुए और अखिल भारतीय आंदोलन होने के बावजूद यह आंदोलन अपने में इलाकाई विशेषताएं समेटे हुए था. केंद्रीय मुद्दा एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किए जाने के खिलाफ विरोध करना था, लेकिन इसके नारे और आंदोलन का फॉर्म सब कुछ स्थानीय था. इसके नेता भी हजारों थे. स्वत:स्फूर्तता ने इस आंदोलन को ऊर्जा से भर दिया. लोगों ने इसे अपना आंदोलन माना और बड़ी संख्या में इसमें शामिल हो गए.
सोशल मीडिया बना संगठक
इस आंदोलन का कोई नेता नहीं था, कोई केंद्रीय आयोजक या नेता नहीं था, फिर भी 2 अप्रैल को भारत बंद सैकड़ों शहरों में कैसे हो गया? इस सवाल का जवाब यह है कि इस आंदोलन में संगठक की भूमिका सोशल मीडिया ने निभाई. आंदोलन सोशल मीडिया ने नहीं किया, लेकिन आंदोलन का प्रचार यहीं हुआ.
फेसबुक, वॉट्सऐप और ट्विटर पर बने हजारों ग्रुप इस आंदोलन को लेकर सक्रिय रहे और संगठकों ने इसी माध्यम से एक दूसरे से संवाद किया. आंदोलन के पोस्टर और प्रचार सामग्री एक से दूसरे तक इसी माध्यम से पहुंची. भारत बंद के दौरान भी पुलिस कार्रवाई आदि की सूचना लोगों ने इसी माध्यम से शेयर की. लोगों ने लाइव वीडियो भी दिखाए. इससे एससी और एसटी के अंदर समूह निर्माण की प्रक्रिया तेज हुई है. सोशल मीडिया के बिना इस आंदोलन के मौजूदा स्वरूप और इसके अखिल भारतीय विस्तार की कल्पना कर पाना मुश्किल है.
(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं)
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