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कैसे सियासत का ‘राम’ बना चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’   

सियासी गलियारों के अंदरखाने में एक नारा सुनाई देता है, ‘हर दल की मजबूरी है भीम आर्मी जरूरी है’.

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वो नब्बे का दशक था. कानपुर की एक रैली में दलितों के मसीहा कहे जाने वाले कांशीराम जी से मेरी मुलाकात हुई. मेरा सीधा सवाल था, 'इन सीधे सादे लोगों को मुठ्ठी बांधकर हल्ला बोलना कैसे सिखाएंगे?' कांशीराम ने तपाक से जवाब दिया, 'इस रैली का तंबू एक बांस पर टिका है. बांस, एक रस्सी के सहारे खड़ा है और रस्सी एक खूंटे में बंधी है. अगर ये खूंटा उखड़ जाए तो रस्सी, बांस और पूरा का पूरा तंबू भरभरा कर गिर जाएगा. ये खूंटा दलित है और इस खूंटे को बस याद दिलाना है कि सबकुछ तुम पर टिका है.'

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इसमें कोई शक नहीं कि कांशीराम के सॉफ्ट दलित मूवमेंट में मायावती ने एग्रेशन का तड़का लगा दिया. यही वजह रही कि दलित एक सुर में ‘बहन जी-बहन जी’ करने लगा.  लेकिन इस आक्रामकता को मायावती ने कभी ग्राउंड जीरो पर नहीं उतारा. असल में जमीन पर दलितों की आक्रमकता को गुस्से में तब्दील करने का काम सहारनपुर से शुरू किया गया और इस काम को अंजाम देने वाला नाम है चन्द्रशेखर आजाद उर्फ रावण.

साफ दिखाई देता है और अरसे से दिखाई दे रहा है कि बहुजन समाज पार्टी का कोई भी कार्यकर्ता किसी भी मुद्दे पर ना तो सड़क पर कभी नारे लगाता नजर आता है और ना ही उसपर कभी पुलिस की लाठियां ही चलती दिखाई देती हैं. बहुजन का काम सिर्फ बहनजी का फरमान. इस फरमान से आगे बढ़कर तमाचे के बदले तमाचा मारने की आइडॉल्जी को लेकर दलितों की एक आर्मी बनी, जिसका नाम रखा गया भीम आर्मी.

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इसमें कोई शक नहीं कि समाजवाद हो या बहुजन समाजवाद हर किसी की पैदाइश कांग्रेस की मुखालफत की कोख से हुई है. मुलायम सिंह यादव हों या मायावती, सबने संगठन से सत्ता तक का सफर कांग्रेस के खिलाफ बिगुल फूंक कर तय ही किया है. कांग्रेस विरोधी इन संगठनों के बीच में भी कई छोटे बड़े संगठन समाजवाद और बहुजन समाजवाद के नाम पर खड़े हुए लेकिन राजनीति की आंधी में जड़ से उखड़ गए. सच ये भी है कि पिछले तीन साल में अगर कोई संगठन लगातार खड़ा रहा है तो वो है भीम आर्मी और उसका अगुआ चन्द्रशेखर आजाद उर्फ रावण.

हालांकि अभी तक रावण को कोई सियासी सफलता हासिल नहीं हुई है लेकिन कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी हर किसी को रावण में मायावती की दलित पॉलिटिक्स का एक ऑप्शन जरूर दिखाई देता है. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह से मायावती का ग्राफ सिफर से दस के बीच झूलता नजर आया, ऐसे में कांग्रेस और बीजेपी को बीएसपी की काट भीम आर्मी में दिखाई देने लगी है.

आज इस भीम आर्मी और रावण के बारे में बात करने का क्या कोई टुडे एलिमेंट है? है, और बिल्कुल है. और वो इसलिए है क्योंकि सन्त रविदास मंदिर तोड़े जाने के खिलाफ अगर किसी ने दिल्ली में हल्ला बोला तो वो भीम आर्मी ने बोला. विरोध प्रदर्शन करने पर 91 लोगों की गिरफ्तारी हुई, जिनमें रावण भी शामिल है.

सियासी गलियारों के अंदरखाने में एक नारा सुनाई देता है, 'हर दल की मजबूरी है भीम आर्मी जरूरी है'. शायद यही वजह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सत्तासीन योगी सरकार को मियाद से एक महीना पहले रावण को रिहा करना पड़ा. रावण रासुका में जेल काट रहा था. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी को भी मेरठ के उस सरकारी अस्पताल तक जाना पड़ा जहां चन्द्रशेखर भर्ती था. यह उल्लेख भी जरूरी है कि सोनभद्र के उम्भा गांव में हुए नरसंहार के बाद पहले रावण ने पंचायत लगाई और उसके बाद प्रियंका गांधी वहां पहुंचीं.
खुफिया तंत्र की बात करें तो खबर यही मिलती है कि बहुजन समाज पार्टी को छोड़कर सभी बड़े सियासी दल भीम आर्मी का सपोर्ट चाहते भी हैं और सपोर्ट करते भी हैं. रही बात समाजवादी पार्टी की तो अखिलेश यादव के इस दल पर सिर्फ पिछड़ों की राजनीति करने का ठप्पा लगा है और पिछड़ों में भी खातौर पर यादवों की.

चलिए फटाफट ये भी बता देते है कि चन्द्रशेखर आजाद उर्फ रावण का जन्म सहारनपुर के छुटमल गांव में हुआ है. उसने वकालत की पढ़ाई की है. पहली बार 2015 में 'द ग्रेट चमार' का बोर्ड लगाकर वो सुर्खियों में आया और दलित चिंतक सतीश कुमार के कहने पर उसने भीम आर्मी बनाई. 2016 में महाराणा प्रताप की शोभायात्रा का नया मार्ग बनाने का उसने विरोध किया. 5 मई 2017 को सहारनपुर से 25 किलोमीटर दूर शब्बीरपुर गांव में इस विरोध ने जातीय हिंसा की शक्ल अख्तियार कर ली. एक मौत हुई. दो दर्जन घर जलाये गए. 300 उपद्रवी नामजद हुए और 37 को जेल में डाल दिया गया. हिंसा के तीन दिन बाद ही सहारनपुर के रामपुर में भीम आर्मी की पुलिस से भिड़ंत हुई. सरकारी गाड़ियां फूंकी गईं और रावण पर रासुका लगाकर उसे जेल में बन्द कर दिया गया.

2019 लोकसभा चुनाव में योगी सरकार को मजबूर चन्द्रशेखर को एक महीने पहले ही जेल से रिहा कर देना पड़ा ताकि पश्चिम उत्तर प्रदेश में रावण की वजह से भाजपा को दलितों का विरोध ना झेलना पड़े. चुनाव के दौरान ही प्रियंका गांधी को चन्द्रशेखर से मेरठ अस्पताल में सिर्फ इसीलिए मिलने जाना पड़ा क्योंकि कि कांग्रेस को पश्चिम यूपी में वोटों की फिक्र थी.

BSP सुप्रीमो मायावती ने भी हर मर्तबा ऐलान किया कि उनका भीम आर्मी से कोई लेना देना नहीं है. मायावती ने रविदास मंदिर तोड़े जाने की निंदा तो की लेकिन साफ कहा कि किसी भी हिंसा के लिए बहुजन समाज पार्टी जिम्मेदार नहीं है और भीम आर्मी ने जो हिंसा की है वो सौ फीसदी गलत है. प्रियंका गांधी ने भी रविदास मंदिर को सांस्कृतिक विरासत बताया और भीम आर्मी का नाम लिए बगैर लाठीचार्ज और गिरफ्तारी की पुरजोर खिलाफत की. अखिलेश यादव हमेशा की तरह फिर मौन हैं.

मतलब साफ है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को चन्द्रशेखर में दलितों के एक आक्रामक नेता और भीम आर्मी में दलितों की एक नई पार्टी की आहट मिल रही है. और इस आहट के पीछे वोटरों की एक लंबी कतार दिखाई  दे रही है. ऐसा दिखना लाजमी भी है. 2022 में उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव हैं. प्रियंका गांधी की अगुवाई में कांग्रेस अपनी खोई हुई जमीन वापस पाना चाहती है. इधर भाजपा सत्ता रिपीट करने का ब्लू प्रिंट बनाये बैठी है और मायावती से गठबंधन तोड़ चुके अखिलेश यादव इसे मायावती के नुकसान और अपने मुनाफे के तौर पर देख रहे हैं.

असल में हर दल को सिर्फ एक ही समीकरण नजर आ रहा है कि मायावती का जितना घाटा उस दल को उतना फायदा. और इस फायदे के अंकगणित में कोई फिट होता है तो चन्द्रशेखर आजाद उर्फ रावण.

सच है रावण नाम भले ही किसी दानव का हो लेकिन सियासत में वोटों की फसल काटने के लिए ये खद्दरधारी रावण से भी हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करते और खासतौर पर तब जबकि वो रावण एक बड़े वोट बैंक का उभरता हुआ मसीहा हो.

भीम आर्मी की पूरी कहानी

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