पहले से तय पटकथा है दिल्ली दंगे की चार्जशीट
प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि दिल्ली दंगों की जांच कर रही पुलिस जिस तरह छात्रों और एक्टिविस्टों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है वह भारत में उत्पीड़न का नया दौर है. दंगों की जांच पूरी विश्वसनीयता से होनी चाहिए. मगर, हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहां ऐसा नहीं हो पा रहा है. तमाम मामलों में मीडिया ट्रायल हो रहा है. ‘कानून अपना काम करेगा’ का इस्तेमाल संवैधानिक मूल्यों को नष्ट करने में हो रहा है.
प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि दिल्ली दंगे में चार्जशीट दाखिल करने के पैटर्न से लगता है कि इसकी पटकथा बहुत पहले लिखी जा चुकी थी. शासन ने बहुत शातिर तरीके से लोगों का ध्यान दंगों की जांच से सीएए-विरोधी आंदोलन को गैर कानूनी साबित कर की ओर कर दिया है.
वे लिखते हैं कि हो यह रहा है कि सरकार से अलग राय रखने और एक भाषण देने से ही किसो को हिंसा भड़काने की साजिश रचने वाला करार दिया जा रहा है. भीमा कोरेगांव की घटना का जिक्र करते हुए भानु प्रताप लिखते हैं कि तेलतुम्बडे और सुधा भारद्वाज जैसे वैचारिक दुश्मन को निशाना बनाने के लिए इस अवसर का इस्तेमाल किया गया. जिन लोगों ने दिल्ली में हिंसा भड़काई वे खुलेआम घूम रहे हैं. जिन्हें संविधान में उम्मीद है वो अब संभावित आतंकवादी हैं.
आमदनी दोगुनी कैसे हो- नकद देकर या उत्पादकता बढ़ाकर ?
बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि किसानों की आमदनी दुगुनी करने के दो तरीके हैं. एक उत्पादकता बढायी जाए और दूसरा फसल की कीमतें बढ़ायी जाएं. उपभोक्ता पर बगैर असर डाले दाम बढ़ाने का मतलब यह है कि खुदरा बाजार में किसानों की भी भागीदारी हो. न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार देती है.
चाहे तो सरकार ऐसा करे कि उपभोक्ता से ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की वसूली करे. तीसरा विकल्प है कि किसान संगठित हों और बिचौलियों को हटाएं ताकि उन्हें अधिक से अधिक फायदा मिल सके. डेयरी के क्षेत्र में सहकारिता से किसानों ने खुद को सुरक्षित बनाया है
अनाज में किसानों को उचित सब्सिडी मिल जाती है. गन्ना और दूध में 75 फीसदी हिस्सा उत्पादकों का होता है. टमाटर, प्याज और आलू के उत्पादकों को औसतन खुदरा बाजार का 30 प्रतिशत ही मिल पाता है. चूकि धान और गन्ना फायदेमंद है इसलिए कम बारिश में भी किसान इसे उगाते हैं और सरप्लस उत्पादन होता है.
नाइनन लिखते हैं कि बाजार पर नियंत्रण की कोशिश कभी सफल नहीं रही है. कपास का उदाहरण सामने है. सरकार चाहती है कि किसान जहां चाहे वहां अपनी उपज बेच सके, लेकिन एकमुश्त खरीददार के सामने सामान्य किसानों को अपनी आजादी बचाना मुश्किल जाएगा. उम्मीद अब किसानों के संगठनों से ही है. बात उत्पादकता की होनी चाहिए जिस पर चर्चा नहीं हो रही है.
कृषि सुधार किसानों के हक में
टाइम्स ऑफ इंडिया में एसए अय्यर लिखते हैं कि किसान संगठनों और विपक्ष का कृषि सुधार कानूनों का विरोध सही नहीं है. ये सुधार बहुत लंबे समय से अपेक्षित थे. इन सुधारों के बाद किसान बिचौलियों को पीछे छोड़कर अधिक से अधिक फायदा उठा सकता है. एमएसपी और केंद्र व राज्य सरकार की ओर से खरीदी बंद किए जाने की बातें निराधार हैं. नये कानून से किसान देशभर में कहीं भी अपने उत्पाद को बेच सकता है.
अय्यर लिखते हैं कि भारत में एक सर्वे में 42 प्रतिशत किसानों की खेती छोड़ने की इच्छा सामने आयी थी. 1970-71 के मुकाबले 22015-16 में खेती की जमीन आधी हो चुकी है जबकि खेतों की संख्या दुगुनी हो चुकी है. खेती करके अच्छी आमदनी अब आसान नहीं रही. इसलिए लोग सब्जी उत्पादन की ओर बढ़े लेकिन कम समय में खराब होने की मजबूरी भी सामने है. अनुबंध खेती ही वास्तव में रास्ता है.
इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी हो जाती है. अय्यर आईटीसी से सबक लेने की बात करते हैं जिनसे उत्पादक भी जुड़े हैं और उन्हें पूरी जानकारी भी ई-चौपाल के जरिए दी जाती है. वे वामपंथियों की तमाम आशंकाएं खारिज करते हैं कि ये कृषि सुधार कानून किसानों के खिलाफ है. ओडिसा और तेलंगाना के उदाहरणों से लेखक का मानना है कि राष्ट्रीय स्तर पर भी उसका ही अनुसरण किया गया है लेकिन नकद देने से किसान आत्मनिर्भर नहीं होंगे.
बिहार चुनाव में महत्वपूर्ण होंगे ये पांच कारण
हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि बिहार 28 अक्टूबर से 7 नवंबर के बीच तीन चरणों में होने जा रहे चुनाव में कम से कम 5 बातें महत्वपूर्ण हैं. एक कोरोना काल में होने वाला यह सबसे बड़ा चुनाव है. दूसरी बड़ी बात है कि चुनाव मैदान से बाहर हैं लालू प्रसाद, जिन्होंने सारे मतभेद भुलाकार नीतीश को पिछले विधानसभा चुनाव में अपनाया था और महागठबंधन की जीत हुई थी.
2019 के आम चुनाव में हार को लालू प्रसाद की गैर मौजूदगी से भी जोड़ सकते हैं. इस हिसाब से एनडीए को इस चुनाव में पटखनी देना आसान काम नहीं है. तीसरी बात है कि एलजेपी पहली बार गठबंधन में रहकर विधानसभा चुनाव लड़ रही है.
चाणक्य लिखते हैं कि चौथी महत्वपूर्ण बात यह है कि एनडीए को अपने घटक दलों को साथ नहीं रख पाने का खामियाजा झारखण्ड और महाराष्ट्र में भुगतना पड़ा है. यह संकट बिहार में भी बरकरार है.
पांचवीं बात यह है कि नीतीश कुमार को हर चुनाव में मुसलमानों का समर्थन पाते रहे हैं. अगर इस चुनाव में भी ऐसा वे कर पाते हैं तो यह बड़ी बात होगी. एआईएमआईएम का सक्रिय होने से आरजेडी को ही नुकसान होगा. बिहार में कोरोना काल में स्वास्थ्य सेवाएं खराब रहने की बात सामने आयी है. बिहार में कल्याणकारी काम दिखाई नहां पड़ते. अब एंटी इनकंबेंसी कितनी है और इसका चुनाव पर क्या असर पड़ेगा यह 10 नवंबर को ही पता चलेगा.
दिल्ली पुलिस सांप्रदायिक हो गयी है!
हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर लिखते हैं कि उन्हें कभी पुलिसवालों का सामना करना नहीं पड़ा. हालांकि वे याद करते हैं कि इंग्लैंड में कैम्ब्रिज में पढ़ते समय ऐसा हुआ था जब वे तेज गाड़ी चलाते हुए साथियों के साथ हल्ला मचा रहे थे. तब पुलिस ने सजा देने के बजाए समझाने का रास्ता अपनाया था. भारत में ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते.
थापर लिखते हैं कि दिल्ली दंगों की जांच के दौरान यह बात सामने आयी है कि एक युवक से दंगाइयों में मुसलमानों की पहचान करने का दबाव बनाया गया. नागरिकता कानून का विरोध करने वालों को फंसाया गया.
वही बीजेपी से जुड़े लोगों पर कार्रवाई नहीं की गयी. दिल्ली पुलिस के पूर्व कमिश्नर अजय राज शर्मा के हवाले से करन थापर लिखते हैं कि दिल्ली पुलिस सांप्रदायिक हो गयी लगती है. वीडियो में इसके सबूत हैं. अजय राज शर्मा यह भी कहते हैं कि अगर वे होते तो भड़काऊ नारे लगाने वाले बीजेपी नेताओं को नहीं बख्शते. उन्हें गिरफ्तार कर लेते.
अंतरिक्ष क्षेत्र में सतीश धवन के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में वैज्ञानिक सतीश धवन के जन्मदिवस एक आलेख लिखा है कि एपीजे अब्दुल कलाम के आदर्श थे धवन. गुहा ने कलाम की सुनायी कहानी बताते हुए लिखा है कि एक बार उनकी टीम सैटेलाइट लांच करने के लिए तैयार नहीं थी मगर टीम लीडर होने के नाते उन्होंने सबको उसी हाल में काम बढ़ाने का आदेश दिया. नतीजा ये हुआ कि टेस्ट नाकाम रहा. सतीश धवन ने तब इस घटना की प्रेस ब्रीफिंग कलाम को नहीं करने दी, खुद किया और असफलता की पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ली.
इस घटना के कुछ दिन बाद कलाम की ही टीम एक और परीक्ष करने में कामयाब रही. तब धवन ने प्रेस कॉन्फ्रेन्स करने की जिम्मेदारी कलाम को दी. नेतृत्वकर्ता की यह खूबी होती है कि वह विपरीत परिस्थिति की जिम्मेदारी खुद लेता है और जब अच्छा समय होता है तो जूनियर को उसका श्रेय देते हैं.
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि सतीश धवन जब 1945 में अमेरिका से पढ़ाई कर लौटे तो उन्होंने अपने परिवार को पाकिस्तान से भारत आने को बाध्य किया. 1962 में वे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के डायरेक्टर हो गये. आगे और पढ़ाई के लिए वे अमेरिका गये. उसी दौरान विक्रम साराभाई का निधन हो गया.
तब प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कैलीफोर्निया में उनसे संपर्क किया और उन्हें इसरो का प्रमुख बनाया. आर अरवामुदन की पुस्तक ‘इसरो : ए पर्सन हिस्ट्री’ उन्होंने सतीश धवन के संघर्ष और उनकी सफलता के बारे में लिखा है. वे ईमानदार आलोचनाओं को प्रोत्साहित करते थे. अपने संगठन की सामाजिक भूमिका को जरूरी मानते थे.
यह उनकी सोच और मेहनत थी कि आईआईएससी और इसरो जैसे संगठन को ऊंचाई तक पहुंचाया. उद्यम में जेआरडी टाटा, क्राफ्ट सेक्टर में कमला देवी चट्टोपाध्याय और को-ऑपरेटिव आंदोलन में जिस तरह से कुरियन वर्गीज को याद किया जाता है उसी तरह सतीश धवन भी अंतरिक्ष के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के लिए कभी नहीं भुलाए जा सकेंगे.
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