महाराष्ट्र में सीएम की कुर्सी को लेकर बीजेपी-शिवसेना में ऐसी जंग छिड़ी कि दोनों ने 30 साल पुरानी दोस्ती तोड़ दी. अब शिवसेना पुराने साथी को छोड़कर कांग्रेस के साथ दोस्ती करने की तैयारी में है. ये वही शिवसेना है, जो कभी कांग्रेस को कोसने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी.
लेकिन क्या दो विपरीत विचारधाराओं वाली पार्टियों का मेल लंबा टिक पाएगा या ये फेल हो जाएगा? अगर इतिहास में देखें, तो ऐसी कई राजनीतिक पार्टियों की बेमेल जोड़ियां बनीं और कुछ ही वक्त में टूट भी गईं.
पीडीपी-बीजेपी का ब्रेकअप
2015 में जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और पीडीपी ने चुनाव प्रचार के दौरान तो एक-दूसरे को खूब कोसा. लेकिन नतीजे आए, तो किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. तब बीजेपी ने पीडीपी के साथ मिलकर कश्मीर में सरकार बनाई और मुफ्ती मोहम्मद सईद जम्मू-कश्मीर के सीएम बने.
ये ऐसा मेल था, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. ये मिलन उत्तर और दक्षिण का था, दो विपरीत विचारधारों का मेल था, जिसका अंत में 'खेल' हो ही गया.
मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद महबूबा मुफ्ती ने गद्दी संभाली और बड़ी मुश्किल से 40 महीने तक ये सरकार चली. जून 2018 आते-आते दोनों ने एक-दूसरे से अपने रास्ते अलग कर लिए.
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आरजेडी- जेडीयू की दोस्ती टूटी
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद राजनीति में साथ आए, लेकिन ये दो दोस्त आपस में भी सियासत करने से नहीं चूके. बात 1994 की हो या 2015 की, नीतीश ने सत्ता में आने के लिए लालू का हाथ थामा और बाद में सत्ता में अपने कद को और ऊंचा करने के लिए लालू का साथ छोड़ भी दिया.
लालू के साथ आकर सबको चौंकाया
लालू प्रसाद ने बिहार ने 15 सालों तक राज किया था, जिसमें नीतीश ने 10 साल उनको हटाने में लगा दिए. करप्शन के खिलाफ 'जीरो टॉलरेंस' की नीति अपनाने का दावा करने वाले नीतीश जब भ्रष्टाचार के केस में घिरे लालू के साथ आ गए, तो कई राजनीतिक पंडितों ने यही भविष्यवाणी की थी कि नीतीश का ये फैसला उनके लिए घातक साबित होगा.
तमाम आलोचनाओं के बीच नीतीश ने आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ बिहार में मोर्चा खोल दिया. लेकिन लालू और नीतीश की दोस्ती ज्यादा दिन नहीं चल पाई. नीतीश ने लालू को झटका देकर फिर से बीजेपी का दामन थाम लिया. 2015 नवंबर में आरजेडी और जेडीयू की सरकार बनी और 26 जुलाई 2017 को दोनों की राहें अलग हो गई. दोनों का साथ डेढ़ साल में ही टूट गया.
एसपी-बीएसपी भी हुईं अलग
यूपी में नहीं चला गठबंधन का दांव
2019 में वो हुआ, जिस पर यकीन करना आसान नहीं था. मायावती ने 25 साल पुराना 'गेस्ट हाउस कांड' भुलाकर समाजवादी पार्टी से दोस्ती कर ली. 'बुआ' ने 'बबुआ' के साथ मिलकर 2019 के रण में पीएम नरेंद्र मोदी को चुनौती देने की ठानी.
23 मई को नतीजे आए, तो मायावती जीरो से 10 पर पहुंच गईं और एसपी कहीं की न रही. एसपी को 2014 की तरह इस बार भी पांच सीटें मिलीं, लेकिन 'नेताजी' और अखिलेश को छोड़ डिंपल यादव सहित पूरा परिवार हार गया. वहीं जीरो सीट वाली बीएसपी साइकिल से सहारे 10 सीटें जीत लीं. कुछ दिनों के बाद ही मायावती ने समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ दिया. एसपी और बीएसपी का साथ कुछ महीनों में छूट गया
वैसे कई ऐसे भी उदाहरण रहे हैं, जब दो विरोधी पार्टियां साथ मजबूरी में ही सही साथ आईं और उनकी सरकार भी चली.
कांग्रेस और डीएमके हुए कामयाब
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में डीएमके की भूमिका की बड़ी चर्चा हुई. इसे लेकर कांग्रेस और डीएमके के बीच गरही खाई भी बनी, लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को रोकने के लिए कांग्रेस ने डीएमके के साथ हाथ मिलाया. डीएमके 2004 और 2009 में कांग्रेस के साथ सरकार में रही.
विचारधारा अलग, फिर भी लंबा चल रहा साथ
अलग-अलग विचाराधारा वाली पार्टियां सत्ता में काबिज होने के लिए एक-दूसरे का दामन थामती हैं, पर इस तरह की दोस्ती 'टिकाऊ' नहीं होती. वैसे इसके एकाध अपवाद भी देखे गए हैं. बिहार में जेडीयू और बीजेपी की दोस्ती को इस कैटेगरी में रख सकते हैं.
किसी जमाने में हिंदुत्व के मुद्दे पर जेडीयू और बीजेपी में टकराव रहा. नीतीश कुमार को मोदी के साथ मंच शेयर करना भी मंजूर नहीं था. लेकिन आज दोनों साथ में हैं. बिहार में मजे से सरकार चल रही है.
इन बातों पर गौर करने के बाद कह सकते हैं राजनीति में अलग-अलग चाल, चरित्र और चेहरे वाली पार्टियां भी सत्ता के लिए साथ आ सकती हैं और सरकार चला सकती हैं.
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