पीएम मोदी की चक्रवर्ती छवि, अमित शाह की विश्व विख्यात रणनीति और बीजेपी की अपार शक्ति. CAA की डोर, NRC का बैकडोर, राष्ट्रवाद का शोर और पाकिस्तान का जोर. फिर भी दिल्ली हार गए. बहुत बुरी तरह हार गए. देश के तमाम विपक्षी नेता दिल्ली का चमत्कार जरूर देख रहे होंगे. बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव हैं. बंगाल में अगले साल. तो नीतीश बाबू, ममता दीदी देख लें.
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, महाराष्ट्र में विपक्षी पार्टियों ने हाल फिलहाल चुनाव जीते हैं. तो कमलनाथ, अशोक गहलोत, हेमंत सोरेन, शरद पवार-उद्धव जान लें कि आज भी देश में बीजेपी के बुलडोजर को रोका जा सकता है. ट्रिक एक ही है और बहुत सिंपल है. दिल्ली के चुनाव कई मायने में ऐतिहासिक हैं.
दिल्ली के चुनाव में बदजुबानियों और राजनीति का स्तर गिराने के रिकॉर्ड बने. धुव्रीकरण का ऐसा खुला खेल खेला गया कि डर लगने लगा. कोई कहता-गोली मारो, कोई कहता-शाहीन बाग में आतंकवादी बैठे हैं. एक नेता ने तो दिल्ली की महिला वोटरों को डर दिखाया कि-अब नहीं जागे तो शाहीन बाग वाले आएंगे और रेप करेंगे. एक सीटिंग सीएम को आतंकवादी तक कहा गया. बीजेपी के एक नेता ने दिल्ली के चुनाव को भारत और पाकिस्तान के बीच मुकाबला बता दिया. मतलब ध्रुवीकरण की पूरी मशीनगन खाली कर दी गई.
इसी दौरान जामिया और जेएनयू पर हमले हुए. एक जगह वर्दी ने डंडा चलाया तो एक पर डंडा वर्दी वालों के सामने चला. डर लगने लगा. इन सबका केजरीवाल के पास एक ही जवाब था- मैंने काम किया है. हमारी सरकारी ने स्कूल बेहतर किए हैं, अस्पताल ठीक किए हैं. हमने गरीबों का ख्याल रखा है. अगर काम किया है तो ही वोट देना.
तो सियासतदानों के लिए एक लाइन का सीधा-सरल सबक है - काम करेंगे तो वोटर याद रखेगा. आप कर्ज अदा करेंगे तो वोटर फर्ज अदा करेगा. जिन लोगों ने अभी-अभी सरकार बनाई है या जिनके चुनाव आने वाले हैं, उनके पास संभलने का वक्त है, सीखने का वक्त है. काम करेंगे तो आपको कोई नहीं हटा सकता, कोई हरा नहीं सकता.
द वॉल, केजरीवाल
पिछले पांच साल में किसी एक नेता ने सबसे ज्यादा चौतरफा हमले झेले हैं तो वो केजरीवाल हैं. एक तरह से उनसे कह दिया गया था कि आप हमारी इजाजत के बिना एक चवन्नी खर्च नहीं कर सकते, हमारे हुक्म के बिना आप एक चपरासी तक भर्ती नहीं कर सकते.
बीजेपी कहती रही कि केजरीवाल को काम तो कुछ करना है नहीं, सिर्फ केंद्र पर आरोप लगाना है. सिर्फ सियासी वार ही नहीं, मेन स्ट्रीम मीडिया ने एक तरह से उन्हें स्क्रीन से 'तड़ीपार' कर दिया. लेकिन केजरीवाल अपनी धुन में लगे रहे. केजरीवाल ने तमाम मुश्किलों के बावजूद काम किया. सबूत हैं मोहल्ला क्लीनिक, सबूत हैं दिल्ली सरकार के स्कूल, नजीर हैं दिल्ली सरकार के अस्पताल.
इन पांच सालों में केजरीवाल की नीति और रणनीति में भी काफी फर्क देखने को मिला. पहले हर बात पर टकराव की मुद्रा में रहने वाले केजरीवाल मौन रहने लगे. बीजेपी के बड़े नेताओं पर अटैक के बजाय अपने काम में जुटे रहे.
चुनाव के वक्त भी केजरीवाल अपनी जमीन पर खड़े रहे. बार-बार पूछा गया - 'शाहीन बाग क्यों नहीं जाते', टुकड़े-टुकड़े गैंग के तरफदार तक बता दिए गए, लेकिन हिले नहीं. कोई भक्त एंकर पूछता कि आपका शाहीन बाग पर क्या कहना है तो बोलते-मेरे काम पर क्यों नहीं पूछते?
जो लोग कहते हैं कि दिल्ली के वोटर ने मुफ्तखोरी के चक्कर में केजरीवाल को जिताया, उन्हें ये भी याद रखना चाहिए था कि केजरीवाल की 200 यूनिट फ्री बिजली के जवाब में बीजेपी ने 300 यूनिट फ्री बिजली का वादा किया, फ्री स्कूटी का वादा किया था. लेकिन दिल्ली के वोटर ने कहा AAP से 200 यूनिट फ्री लेंगे लेकिन आपसे 300 यूनिट नामंजूर है.नतीजे सामने हैं.
अलग होते गए अपने
इन पांच सालों में किसी एक पार्टी ने अपनों के खंजर सबसे ज्यादा सहे हैं तो वो हैं केजरीवाल. पार्टी ही नहीं, जिन लोगों से पर्सनल रिश्ते थे, उन्होंने भी किनारा कर लिया. कुमार विश्वास, शाजिया इल्मी, सतीश उपाध्याय, योगेंद्र यादव, आशुतोष, प्रशांत भूषण, कपिल मिश्रा...लिस्ट लंबी है. लेकिन केजरीवाल लगे रहे.
2015 से बड़ी जीत
कई मायने में ये जीत 2015 से भी बड़ी है. सीटें 67 के बजाय 62-63 मिली हैं. लेकिन ये उनकी सरकार के काम का मूल्यांकन है. उनकी पार्टी का प्रचार मंत्र सिर्फ जुमला नहीं, सच साबित हुआ-अच्छे बीते पांच साल, लगे रहो केजरीवाल. 2015 में कोई कह सकता था कि अन्ना का असर है. पानी माफ-बिजली हाफ का फॉर्मूला काम नहीं करेगा. लेकिन केजरीवाल ने कर दिखाया. केजरीवाल ने दिल्ली की जमीन पर अपने पांव अब जमा लिए हैं.
अब केजरीवाल के सामने भी बड़ी चुनौतियां हैं. जैसे उन्होंने अपनी बड़ी जीत का रिकॉर्ड कायम रखा है, वैसे ही उन्हें अपनी परफॉर्मेंस का रिकॉर्ड कायम रखना होगा. सामने से गोली बारी बढ़ेगी, उन्हें संयम से अपने तय रास्ते पर चलना होगा. दिल्ली में जीत स्थाई लग रही है तो एक सवाल ये होगा कि राजनीति का केजरीवाल मॉडल क्या आम आदमी पार्टी नए राज्यों में भी लागू करेगी?
क्रेडिट सिर्फ केजरीवाल को नहीं
वैज्ञानिक, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर.... लेकिन नेताओं को इन सब में सिर्फ वोटर नजर आता है. पता नहीं क्यों उन्हें लगता है कि ये तमाम लोग जो अपनी-अपनी प्रोफेशनल लाइफ में शानदार काम कर रहे हैं, वो वोट देने के मामले में मूर्ख हैं-धर्मांध हैं. दिल्ली ने तो उन्हें बता दिया है-हमें सब पता है. आप जहर उगलिए, हम वोट से जहर बुझा देंगे. हमें पाकिस्तान की हार नहीं, अपनी जीत चाहिए. हमें वादों पर अमल चाहिए. हमें मुफ्तखोर कहने वाले मूर्ख हैं. 2014 में विकल्प की तलाश थी. 2019 में भी तलाश पूरी न हुई. तो किसे बदलते, क्या बदलते. विकल्प दीजिए, हम हाथों-हाथ लेने को तैयार हैं. विपक्ष सुन रहा है.
दिल्ली में AAP की बड़ी जीत से भी बड़ी उम्मीद बंधने लगी है. क्या ये हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान, अंध राष्ट्रवाद की राजनीति की ताबूत में आखिरी कील है? क्या पार्टियां फूट डालो राज करो, से बाज आएंगी? सबसे बड़ी बात क्या बीजेपी इसपर पुनर्विचार करेगी? वाकई दिल्ली के ये चुनाव देश की राजनीति की दशा और दिशा बदलने की ताकत रखते हैं?
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