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फिल्म जो भी कहे, लेकिन ‘ठाकरे’ कभी रक्षक नहीं रहे

पढ़िए बाल ठाकरे की जिंदगी पर बन रही फिल्म का पूरी विश्लेषण 

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कार्टूनिस्ट से राजनेता बने महाराष्ट्र के स्वर्गीय नेता बाल ठाकरे की जीवन पर बनी फिल्म ठाकरे के तीन मिनट के ट्रेलर पर पहले से ही विवाद शुरू हो गया है. ये कोई आश्चर्यजनक भी नहीं है. ठाकरे ने जो कुछ लिखा, बनाया, बोला और धमकी दी, वो हमेशा ही विवादों में रहा है. ये फिल्म बाल ठाकरे की जयंती के दो दिन बाद, 25 जनवरी को रिलीज होनी है, ऐसे में आशंका तो यही है कि इसको लेकर भी विवाद पैदा होगा.

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इस ट्रेलर से ना सिर्फ ठाकरे की जिंदगी की झलक मिलती है बल्कि उनके जीवन और राजनीति को सिनेमा के लिहाज से कैसे संवारा गया है, इसका भी पता चलता है. इसमें नवाजुद्दीन सिद्दीकी को दिखाया गया है, जिन्होंने ठाकरे की तरह ही खुश होने, बात करने और चलने और बोलने और झुंझलाने को पर्दे पर उतारा है. इसमें हालात, स्थितियां और संवाद इस कदर बुने गए हैं कि उनकी जिंदगी को पहले से जाननेवालों को इसका आभास हो जाता है.

इसमें भयानक यथार्थवाद है-एक पोस्टर का दृश्य है, जो मराठी मानुष को “जागने” को कहता है, ये पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की तरफ इशारा है. ठाकरे का व्यंगात्मक उपहास भी है, जैसे "मेरे कंधों पर आपका लोकतंत्र खड़ा है". इसके साथ हिंसा का खुला आह्वान है -"भीख मांगने से बेहतर है गुंडागर्दी कर अपने अधिकारों को छीन लो".

इस ट्रेलर में बैकग्राउंड से आ रही पहली आवाज है "इस समय केवल एक आदमी बॉम्बे में शांति ला सकता है". ये 1992-93 के दंगों का इशारा था, जिसकी वजह से बाम्बे शहर दो फाड़ हो गया था.

“यथार्थवाद सच्चाई नहीं है. वास्तव में ट्रेलर की शुरुआती पंक्तियां, वास्तविकता की उलट हैं, इसी का बाम्बे साक्षी बना था और दंगे की जांच कर रहे जस्टिस बी एन श्रीकृष्ण आयोग ने इसे अपनी रिपोर्ट में लिखा.”

दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में दो चरणों में हुए दंगों में करीब 900 लोगों की जानें गईं और 2,000 से ज्यादा लोग घायल हुए. इस दंगे के सबसे ज्यादा शिकार मुस्लिम समुदाय के लोग हुए.

श्रीकृष्ण आयोग ने अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ लिखा है कि “ठाकरे ने एक योद्धा की तरह अपने वफादार शिवसैनिकों को संगठित तरीके से मुस्लिमों पर जवाबी हमला करने का आदेश दिया.” उन्होंने ये और माना कि उनका "बदले का सिद्धांत" काफी हद तक उनकी पार्टी कार्यकर्ताओं की सतर्कता के लिए जिम्मेदार था.

क्या ठाकरे वास्तव में रक्षक थे?

शहर के रक्षक के रूप में ठाकरे को पेश किया जाना, फिर कल्पना में छलांग लगाने को कहना. यह एक समकालीन इतिहास में बदलाव करने की साजिश है, जिसमें एक आदमी को महान बनाने की कोशिश हुई जबकि उसे सांप्रदायिक खून-खराबा में उसकी भूमिका के लिए कटघरे में खड़ा होना चाहिए था.

वास्तव में, इस ट्रेलर से अंदाजा लगता है कि फिल्म भी ऐसी ही होगी और इसमें राजनीतिक हिंसा को महिमामंडित किया गया है. दूसरों से घृणा के सिद्धांत को बढ़ावा दिया. ये सब ऐसी बातें हैं, जिनके आधार पर ठाकरे ने 1966 में शिवसेना की नींव रख राजनीति की.

उन्होंने शिवसेना के वफादारों के हितों को ध्यान में रखते हुए “दूसरों” पर निशाना साधना जारी रखा. शुरुआत हुई दक्षिण भारतीय लोगों से, जिन्होंने मराठियों की नौकरी हथिया ली थी. ठाकरे ने उसके बाद गुजरातियों, सिखों और बांग्लादेशियों पर निशाना साधा.

उन्होंने मुस्लिमों को घृणा का पात्र बना डाला. मुंबई के मुस्लिम बहुल इलाकों को “मिनी पाकिस्तान” का नाम दिया. इसके बाद उत्तर भारतीयों को निशाने पर लेने लगे.

ठाकरे के निधन के 6 साल बाद शिवसेना की अब उल्लेखनीय मौजूदगी हो गई है. ये अब भी अपने सबसे पुरानी और बेहतरीन सहयोगी रही भारतीय जनता पार्टी से अपने सिद्धांतों पर ही बात करती है. वाजपेयी-आडवाणी के समय से बीजेपी से गठबंधन निभा रही शिवसेना चुनावों में अब भी अपनी पुराने सिद्धांतों को आधार बनाती है.

ना तो ठाकरे ही और ना ही उनकी पार्टी ने दंगों में अपनी संलिप्तता पर कोई अफसोस जाहिर किया है. ठाकरे से लेकर हरेक शिवसैनिक तक सभी यही मानता है कि बदला लेना जरूरी था. वो इसे भुला देना चाहते हैं कि कानून-व्यवस्था का मुद्दा राज्य की जिम्मेदारी है, ना कि उन लोगों की.

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राउत का ठाकरे के लिए महिमामंडन से कम नहीं

ये समझना जरूरी है कि ऐसा बहुत कम होता है, जब जीवनी पर बनी फिल्में प्रामाणिक हों. या फिर उस शख्स की जिंदगी और विचार हर तरह से उस फिल्म में साफ-साफ दिखाई दे. अक्सर ही कहानी कहने वाला हालात और दृश्य को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर पेश करता है.

इस मामले में, यह फिल्म प्रमुख रूप से संजय राउत की पहल पर बनी है. बता दें कि ठाकरे के कट्टर, निष्ठावान, समर्थक रहे संजय राउत, स्वर्गीय नेता के अखबार सामना के संपादक हैं, साथ ही राज्यसभा सदस्य के रूप में नई दिल्ली में शिवसेना का चेहरा भी. राउत उन गैर पारिवारिक चंद लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने ठाकरे को उठते हुए देखा और दशकों तक उनके करीबी बने रहे. ऐसा कह सकते हैं कि जरूरत पड़ने पर वह ठाकरे की बोली बोलते थे.

जब किसी नेता की जिंदगी पर उसका कट्टर निष्ठावान समर्थक फिल्म बनाता है, तो उसमें उसकी अच्छाइयां ही दिखाता है. इससे किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए. उल्लेख करने वाली बात ये है कि वॉयकाम 18 मोशन पिक्चर्स ने इस काम को हाथ में लिया और अपनी पूरी काबिलियत इसमें लगाई. एक ही तरफ सभी शक्तियां झोंक दी गईं. क्या ऐसा नहीं किया इन्होंने?

यहां तक कि इस तीन मिनट के ट्रेलर में चुने हुए यथार्थ दिखाई दिए. इसे फिल्म निर्माताओं ने और उभारा. मराठी ट्रेलर में एक ऐसा भी शब्द है, जो हिंदी वाले ट्रेलर में नहीं है. इसमें दिखाया जाता है कि ठाकरे अपने मूल राजनीतिक ढांचे में दक्षिण भारतीयों को गाली दे रहे हैं (तमिलों के लिए सबसे अच्छी सेना या बॉम्बे शब्द).

एक सीन में ठाकरे दक्षिण भारतीयों को “#%^*# यंडू-गुंडू” कहते हुए दिखते हैं. इसमें ठाकरे का एक चर्चित निंदनीय आह्वान है “उठाओ लुंगी, बजाओ पुंगी.”

हिंदी ट्रेलर में ठाकरे की अनोखी विचारधारा के इस पहलू की कोई झलक नहीं दिखाई गई है. यह समझने में कोई फेर नहीं कि इन पंक्तियों को क्यों चतुराई से हटा दिया गया है. मूल रूप में ठाकरे की राजनीति की प्रकृति क्षेत्रीय और संकीर्ण रही है. लेकिन फिल्म निर्माता ये नहीं चाहेंगे कि अब जबकि इसके रिलीज होने में एक महीना बाकी है, हिंदी दर्शक इस फिल्म को ही नकार दें.

फिल्म में शायद उनके 1966 के साप्ताहिक अखबार मार्मिक में प्रकाशित कई हेडलाइन का जिक्र है. इसमें बॉम्बे (मुंबई) की फैक्टरियों और दफ्तरों में नौकरी करने वाले दक्षिण भारतीय की “सूचियां” छापी गई थीं. ऐसी ही एक हेडलाइन थी “कालचा मद्राशी, थोद्यच दिवसात तुपाशी (कल ही आए मद्रासी, कुछ ही दिनों में मालदार बन गए).

तमिल एक्टर सिद्धार्थ ने अपने एक ट्वीट में इस विभाजन की ओर इशारा किया और साथ ही ये भी जोड़ा “ऐसे रोमांस और वीरता के साथ इतनी सारी नफरत बेची गई... #मुंबई को महान बनाने वाले लाखों दक्षिण भारतीयों और प्रवासियों को लेकर कोई एकता नहीं दिखाई गई.”

वास्तव में ये नफरत ठाकरे की राजनीतिक विचारधारा का एक हिस्सा थी. मराठी में ये वास्तविक और सुविधाजनक हो सकता है, लेकिन हिंदी में कतई नहीं.

यह ट्वीट नवाजुद्दीन सिद्दीकी के बिल्कुल उलट था. इस एक्टर ने अपने रोल को “अब तक का सबसे कठिन” बताया है. साथ ही ये भी कहा है, कि ये फिल्म “बाला साहेब ठाकरे के साहस, ज्ञान और अजेय सच्चाई की वास्तविक कहानी को दिखाता है... ये एक ऐसे शेर की कहानी है, जो कभी किसी से नहीं डरा.” गुणगान से भरा हुआ, पूजा में दरियादिल, सच्चाई से दूर.

यह एक विडंबना ही है कि ठाकरे जिसे “यूपी के भैय्या” कहते थे, बदले में वह फिल्म में एक आदमी को भगवान की तरह पूज रहा है. ये बेहद आश्चर्यजनक बात है. अच्छा होता कि इस एक्टर को कोई सलाह देता कि वह वास्तविक जीवन में ठाकरे की गाथा गाने की जगह, अपने शानदार अभिनय की कला पर ध्यान दे.

यह फिल्म उस समय आ रही है जब डॉ मनमोहन सिंह के कार्यकाल पर बनी फिल्म ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ आने वाली है. खास बात ये है कि इन दोनों ही फिल्मों का इस्तेमाल 2019 के चुनावों में प्रचार में किया जाएगा. ऐसे में कोई भी कहेगा, मैं फर्स्ट डे, फर्स्ट शो देखना चाहूंगा.

(स्मृति कोप्पिकर मुम्बई में पत्रकार और संपादक हैं. वह राजनीतिक, शहरी मुद्दों, जेंडर और मीडिया पर लिखती रही हैं. यहां व्यक्त नजरिया लेखक का है. इसमें क्‍विंट की सहमति जरूरी नहीं है)

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