2010 का दशक घोर-दक्षिणपंथियों का दशक रहा. नाजी की हार के बाद निष्क्रिय हुई इस विचारधारा को जैसे दोबारा संजीवनी मिल गई. और इस संजीवनी को तैयार करने की बूटी बनी समाज में छाई ऐतिहासिक आर्थिक असमानता. पूरी दुनिया में मजदूरी थम सी गई है, बेघरों की तादाद बढ़ती जा रही है और गरीबी पांव फैलाती जा रही है.
पश्चिमी देशों में होने वाली जंग ने पश्चिमी एशिया का संतुलन बिगाड़ दिया है और अपना सबसे घिनौना चेहरा सामने रख दिया है. इस्लामिक आतंकवाद की घटनाओं ने इस्लाम से नफरत की आग को और हवा दे दी है.
CAA-NRC प्रोजेक्ट के बनने में सौ साल लगे हैं
दक्षिणपंथी लोग आसान समाधान बताने में माहिर हैं. और इसलिए दो मसलों को निचोड़कर जुबान पर आसानी से फिसलने और भावनाओं को भड़काने वाला एक रास्ता निकाला है – वो है अवैध मुस्लिम प्रवासी.
यह काढ़ा काफी असरदार है. देश-दर-देश एक-के-बाद-एक डेमगॉग, आर्थिक बीमारियों के लिए इन प्रवासियों को कसूरवार ठहराते हुए, लोगों में डर पैदा कर नई उम्मीद का भरोसा देते हुए, सत्ता पर काबिज हो रहे हैं.
पहली नजर में साफ है कि भारत भी इसी रास्ते पर चल पड़ा है. यूएन की मानव विकास रिपोर्ट 2019 के मुताबिक सामाजिक असमानता के मामले में रूस के बाद भारत का नंबर है. रिपोर्ट ये भी कहती है कि असमानता की बात करें तो औसत भारतीय नागरिक की हालत किसी भी दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश (जो कि सब-सहारन अफ्रीकी देशों के बाद सबसे गरीब क्षेत्र है) से बेहतर नहीं है.
अमर्त्य सेन और जीन द्रेज के शब्दों में ‘आर्थिक उदारीकरण के तीन दशक बाद भी आम आदमी की हालत जस की तस है, जैसे कि सब-सहारन अफ्रीका के समंदर में कैलिफोर्निया के टापू तैयार हो गए हों.’
ऊपर से आर्थिक मंदी भी अब असर दिखा रही है. NSO रिपोर्ट, जिसे पहले तो कबाड़ में फेंक दिया गया और फिर 2019 के आम चुनाव के बाद सामने लाया गया, के मुताबिक बेरोजगारी पिछले 45 साल में अपने चरम पर है. दूसरी NSO रिपोर्ट, जो शायद कभी बाहर नहीं आए, के मुताबिक 40 सालों में पहली बार ग्रामीण इलाकों में गरीबी बढ़ी है.
इसके बावजूद ये मानना बड़ी भूल होगी कि नागरिकता का अभियान – CAA और NCR के लिए ये जोर – बीमार आर्थिक समाचारों से ध्यान भटकाने की एक कोशिश है.
हां, इसकी टाइमिंग जरूर सुविधाजनक है. और हां, राष्ट्रव्यापी NRC का भरोसा तो मेनिफेस्टो में भी किया गया था, लेकिन इसकी कहानी बहुत पुरानी है.
CAA-NRC प्रोजेक्ट के बनने में सौ साल लगे हैं.
खून के हिसाब से नागरिकता
नागरिकता पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार ज्यादातर लोगों से बिलकुल अलग है. इसका रिश्ता खून से है. ‘हिंदू सिर्फ भारत के नागरिक नहीं है क्योंकि वो मातृभूमि से प्रेम के बंधन के अलावा खून के बंधन से भी बंधे हैं,’ वी डी सावरकर ने 1923 में संघ की मूलभूत किताब ‘हिंदू कौन है?’ में लिखा है. ‘मुसलमान और ईसाईयों का खून बाहरी मिलावट से अछूत भी रह गया हो तो वो हिंदू संस्कृति पर अपना दावा नहीं कर सकते,’ उन्होंने आगे लिखा-
‘हम एक हैं क्योंकि हम एक राष्ट्र हैं, एक वंश हैं और हमारी संस्कृति एक है.’वी डी सावरकर
आपसी फर्क के बावजूद एक देश में पैदा लेने वाले हर इंसान की राष्ट्रीय पहचान एक है, इस विचार को क्षेत्रीय राष्ट्रवाद कहते हैं. लेकिन एम एस गोलवलकर, आरएसएस के दूसरे विचारक, इस विचार से इतनी नफरत करते हैं कि उन्होंने अपनी किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स (विचारों का गुच्छा)’ में पूरा अध्याय इसे समर्पित कर दिया. गोलवलकर के मुताबिक ‘क्षेत्रीय राष्ट्रवाद ने देश को नपुंसक बना दिया है.’
‘यह कुछ ऐसा ही जैसे कि बंदर के सिर और बैल के पैर को हाथी के शरीर से जोड़ कर एक नए जानवर का निर्माण किया गया हो! जो कि किसी घिनौनी लाश जैसा दिखेगा.’एम एस गोलवलकर,आरएसएस के दूसरे विचारक
बौद्ध, पारसी और जैन हिंदू हैं क्योंकि उनके शरीर में शुद्ध ‘आर्यन खून’ बहता है, वो भारत को अपनी पावन भूमि मानते हैं और हिंदू संस्कृति को धारण करते हैं. ईसाई और मुसलमानों में यह तीन गुण कभी नहीं पाए जा सकते हैं.
आखिर कौन है हिन्दू ?
गोलवलकर ने 1939 में छपी अपनी किताब ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ में लिखा है:
‘…हिंदुस्थान में मौजूद विदेशी लोग या तो हिंदू संस्कृति और भाषा को अपना लें, हिंदू धर्म का आदर करना सीखें और उसके प्रति श्रद्धा रखें, सिर्फ हिंदू वंश और संस्कृति, यानि हिंदू राष्ट्र, का महिमामंडन करें, और अपने अलग अस्तित्व का त्याग कर हिंदू वंश में विलीन हो जाएं, या फिर हिंदू राष्ट्र के अधीन रहना स्वीकार कर लें, सारे दावे, सुविधाएं, तरजीह, यहां तक नागिरकता के अधिकार का हक भी छोड़ दें.’
सावरकर कहते हैं हिंदू वो है जिसके लिए भारत उनकी पितृभूमि और पुण्यभूमि है.
‘इस परिभाषा में समावेश और निषेध दोनों तत्व मौजूद हैं,’ हार्वर्ड के प्रोफेसर माइकल वित्जेल लिखते हैं. ‘मुस्लिम (और ईसाई) जैसे गैर-हिंदू तब तक सच्चे भारतीय नहीं हो सकते जब तक वो ‘हिंदू मुस्लिम’ नहीं बन जाते, यानि कि संस्कृति से हिंदू और धर्म से मुसलमान. इसके विपरीत, सभी भारतीय गैर-ईसाई और गैर-मुस्लिम अपने आप ही हिंदू की श्रेणी में आ जाते हैं, जिसमें आदिवासी भी शामिल हैं.’
तो CAA-NRC का तर्क बिलकुल साफ है. मतलब हिंदू अंदर, और ईसाईयों को छोड़कर बाकी सब बाहर. क्यों?
‘अंदरूनी दुश्मन’
ईसाईयों के बारे में गोलवलकर की सोच ‘अंदरूनी दुश्मन’ नामके एक अध्याय में जाहिर हो जाती है जहां वो ईसाईयों का जिक्र मुसलमान और वामपंथियों के साथ करते हैं.
दिलचस्प बात यह है कि अमित शाह ने जब पहली बार अप्रैल 2019 में देशव्यापी NRC की बात की तब उन्होंने ईसाईयों को शामिल करने का कोई जिक्र नहीं किया.
नागरिकता कानून पास होने के बाद पश्चिमी देशों की उदारवादी मीडिया की नजर लगातार भारत पर बनी है. द गार्डियन, द न्यू यॉर्कर, द न्यू यॉर्क टाइम्स और द वाशिंगटन पोस्ट जैसी मीडिया ने तीखे संपादकीय लिखे हैं.
लोग सोचेंगे शायद ईसाईयों के खिलाफ भेदभाव करने वाले कानून पर हंगामा कहीं ज्यादा होता. रूढ़िवादी मीडिया ने इस मसले को जोर शोर से उठाया होता, कुछ ऐसा ही रुख रिपब्लिकन सांसदों का भी होता.
डॉनल्ड ट्रंप खुद ईसाई धर्म प्रचारकों के बड़े जनाधार पर निर्भर हैं. अगर अमेरिकी सरकार का समर्थन हासिल हो तो मानवाधिकार के उल्लंघन की आजादी होती है. ऐसा लगता है कि संघ इस तरह की व्यावहारिकता की पूरी इजाजत देता है. और बीजेपी गोवा, केरल और पूर्वोत्तर में पैर पसारने की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बना चुकी है.
अपनी विचारधारा को लेकर संघ हमेशा प्रतिबद्ध रहा है. इसने राम मंदिर हासिल किया, तीन तलाक पर पाबंदी लगाई और अब समान आचार संहिता की तरफ अग्रसर है. ठीक उसी तरह CAA-NRC संघ की मूल विचारधारा है, हिंदुत्व के निर्माण की आधारशिला है.
इसलिए जब प्रधानमंत्री कहते हैं कि ‘NRC पर कोई चर्चा नहीं हुई है’, वो अर्ध-सत्य कहते हैं, वो दरअसल कहना चाहते हैं कि बहुत जल्द इस पर चर्चा होने वाली है. आप बस तैयार रहें.
ये एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त किए गए सभी विचार लेखक के हैं
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