आपको याद है जीएसटी के बारे में जानकारों ने क्या भविष्यवाणी की थी- ये टैक्स सिस्टम भारत की जीडीपी में कम से कम 2% की ग्रोथ लाएगा. अब जरा पुरानी बातों को याद कीजिए और हंसिये. या अगर आपका मूड हो तो आप रो भी सकते हैं. क्योंकि अगर जीएसटी के लागू होने के बाद जीडीपी की ऐसी ग्रोथ होनी थी तो हम बिना जीएसटी के ही ठीक थे.
तीन साल पहले विपक्ष और अालोचकों को नजरअंदाज करते हुए मोदी जीएसटी लेकर आए थेे. इसका सबसे बड़ा कारण था अधिकांश राज्यों में भाजपा की सरकार होना. केंद्र सरकार जीएसटी काउंसिल के जरिए उन पर दबाव बना सकती थी. यहां तक की विपक्षी पार्टी की सरकारों वाले राज्य भी इसके समर्थन में आ गए, क्योंकि उन्हें जीएसटी से सालाना 14% के रेवेन्यू ग्रोथ की गारंटी दी गई थी. यानी जो भी उन्होंने 2015-16 में कमाया था, उससे भी ज्यादा. साथ ही कहा गया था कि अगर इसमें नुकसान होता है तो पहले 5 साल यानी 2022 तक केंद्र की ओर से इसकी भरपाई की जाएगी.
लेकिन सवाल ये है कि राज्यों की भरपाई के लिए केंद्र के पास पैसा कहां से आएगा? लग्जरी सामान और कीमती चीजों जैसे बड़ी एसयूवी कार, सिगरेट, पान मसाला, शराब और कोल प्रोडक्ट्स पर अतिरिक्त टैक्स लगाया गया. केंद्र सरकार ने इससे एक मुआवजा कोष तैयार किया, ताकि इससे राज्यों को भुगतान किया जा सके.
केंद्र को चुकाना है राज्यों का बहुत सारा पैसा
बीते कुछ सालों से भारत की अर्थव्यवस्था बेहद खराब स्थिति में है. कोई भी बड़ा राज्य 14% रेवेन्यू टारगेट तक नहीं पहुंच सका है. 2019-20 में मध्य प्रदेश और कर्नाटक में जीएसटी कलेक्शन में थोड़ा सुधार हुआ है. दोनों राज्यों ने 10% से ज्यादा की ग्रोथ ली है. वहीं, तेलंगाना 9.4%, महाराष्ट्र 9.2% और प. बंगाल 9.1% की रेवेन्यू ग्रोथ हासिल की. अन्य राज्यों की जीएसटी कलेक्शन ग्रोथ 6% से 8% के बीच ही रही .
बेशक, लॉकडाउन के दो महीने में जीएसटी कलेक्शन प्रभावित हुआ है. केंद्र के सीजीएसटी में अप्रैल में 87% की गिरावट आई है. खजाने में सिर्फ 5,934 करोड़ रुपए का टैक्स आया.
राज्यों ने इससे थोड़ी ही ज्यादा टैक्स कमाई की होगी. लेकिन अगर इसकी कोरोना महामारी के दौरान हो रहे खर्चों से तुलना करें तो यह टैक्स कलेक्शन बेहद कम है. इसलिए राज्यों के वित्त मंत्री लॉकडाउन के दौरान केंद्र से जल्द से जल्द उनके भुगतान को लेकर दबाव बना रहे थे.
बुरी खबर ये भी है कि जिन प्रोडक्ट्स पर सरकार ने अतिरिक्त टैक्स लगाया गया था, दुर्भाग्य से उसकी खरीदी भी काफी कम हो गई. यानी केंद्र सरकार के मुआवजा कोष में उतनी कमाई नहीं हुई, जो उन्होंने उम्मीद की थी. इस वजह से मोदी सरकार राज्यों को तय समय पर भुगतान नहीं कर पा रही है. नियम के अनुसार सरकार, राज्यों को टैक्स कलेक्शन में हो रहे नुकसान की भरपाई हर दो महीने में करती है. इस लिहाज से दिसंबर-जनवरी का भुगतान, फरवरी में किया जाना चाहिए था, लेकिन इसे अप्रैल में किया गया. फरवरी-मार्च का भुगतान आखिर में जून में किया गया. अब ये साफ नहीं है कि लॉकडाउन के अप्रैल-मई के महीने का भुगतान कब किया जाएगा.
- तीन साल पहले विपक्ष और आलोचकों को नजरअंदाज करते हुए मोदी जीएसटी लेकर आए थे.
- राज्यों को जीएसटी से सालाना 14% के रेवेन्यू ग्रोथ की गारंटी दी गई थी. साथ ही कहा गया था कि अगर इसमें नुकसान होता है तो पहले 5 साल यानी 2022 तक केंद्र की ओर से इसकी भरपाई की जाएगी.
- कोई भी बड़ा राज्य 14% रेवेन्यू टारगेट तक नहीं पहुंच सका है.
- अब ये साफ नहीं है कि लॉकडाउन के अप्रैल-मई के महीने का भुगतान कब किया जाएगा.
- एक वायरस ने भारत के जीएसटी ढांचे में अति-केंद्रीकरण की खामियों को उजागर कर दिया है.
- स्वाभाविक रूप से जीएसटी असंगठित क्षेत्रों के खिलाफ है.
बचाव के लिए शराब?
खराब आर्थिक हालात में राज्य सरकारों ने राजस्व बढ़ाने के लिए शराब और फ्यूल से टैक्स बढ़ाने का सुझाव दिया. इसलिए लॉकडाउन में रियायत मिलते ही सबसे पहले शराब की दुकानों को खोला गया. राज्यों ने भी इसका फायदा उठाकर शराब पर टैक्स बढ़ा दिया. कई राज्यों ने सामानों अौर सेवाओं में जीएसटी के नुकसान की भरपाई के लिए पेट्रोल और डीजल पर वैट बढ़ाया.
कुल मिलाकर स्वास्थ्य और आर्थिक हालात दोनों ही खराब हैं. डब्ल्यूएचओ ने कोविड-19 महामारी में शराब बिक्री को बढ़ावा ना देने को कहा था. क्योंकि इससे इम्युनिटी कमजोर होती है और कई अन्य बीमारियां घेरती हैं. लेकिन यहां राज्यों के पास शराब बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. आईएमएफ ने सिफारिश की है कि सरकार ग्राहकों और उद्योगों को टैक्स में रियायत दे. शायद, इसमें अत्यावश्यक और जरूरी सामग्री पर टैक्स कम करने की बात भी शामिल है. लेकिन यहां राज्यों और केंद्र सरकार ने ठीक इसका उलटा किया. उन्होंने फ्यूल पर टैक्स बढ़ाया. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जीएसटी ने उनके हाथ बांध रखे हैं.
असंगठित क्षेत्रों के खिलाफ जीएसटी
एक वायरस ने भारत के जीएसटी ढांचे में अति-केंद्रीकरण की खामियों को उजागर कर दिया है. ज्यादातर राज्य इस बात को जानते थे कि ये कानून राज्य विराेधी है, लेकिन 14% रेवेन्यू ग्रोथ के वादे के पीछे हो लिये. अब जब केंद्र की ओर से भुगतान में देरी हो रही है. सभी राज्य अपनी परेशानियों को लेकर मोदी सरकार को खत लिख रहे हैं
जीएसटी में जो बड़ी खामी है उससे आम आदमी आज भी अनजान है. स्वाभाविक रूप से जीएसटी असंगठित क्षेत्रों के खिलाफ है. यह कई नौकरियां खत्म कर देता है. ये हमेशा से ही खुला रहस्य रहा है कि भारत में छोटे, असंगठित मेन्युफैक्चरर और अन्य सेवाएं देने वाले लोग इसलिए बच जाते हैं क्योंकि वह अपने टैक्स का पूरा हिस्सा अदा नहीं करते हैं.
नोटबंदी से ज्यादा खतरनाक जीएसटी?
कारपेंटर, प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, जिनका मोबाइल फोन ही उनके ऑफिस का पता होता है, ऐसे लोग बेहद सस्ते दाम में काम इसलिए कर पाते हैं, क्योंकि वे सर्विस टैक्स नहीं चुकाते. छोटे मेन्युफैक्चरर ब्रांड्स से मुकाबला कर पाते हैं, क्योंकि उनके पास अपनी सेल्स का पूरा अकाउंट नहीं होता. स्थानीय किराना दुकानें भी ग्राहकों को कच्ची रसीद देती हैं. इससे वे खुद को ई-कॉमर्स और संगठित रिटेल के मुकाबले बचाए रखती हैं. ऐसे में अगर छोटे कारोबारियों पर आधिकारिक दरों से टैक्स लगाया जाएगा तो वे बाजार से बाहर हो जाएंगे.
देश की 80% नौकरियां इन्हीं असंगठित क्षेत्रों में हैं
जीएसटी ने इन लोगों का काफी काम पहले ही छीन लिया है. ऐसा इसलिए क्योंकि अगर कोई कंपनी ऐसे वेंडर से सामान और सेवाएं लेती हैं, डो जीएसटी का भुगतान नहीं करते, तो कंपनी को इनपुट क्रेडिट नहीं मिलता. जीएसटी में दैनिक कैश लेन-देन की सीमा के कारण कंपनियां ऐसे लोगों के साथ कम कारोबार करना चाहती हैं जो जीएसटी में रजिस्टर्ड नहीं हैं.
यही कारण है कि जीएसटी असंगठित क्षेत्र में नौकरियों को खत्म कर देता है. यह डिमोनेटाइजेशन से भी ज्यादा खतरनाक है. हालांकि छोटे कारोबार के लिए कुछ बदलाव जरूर किए गए हैं, लेकिन ये पर्याप्त नहीं है. 3 साल और इस महामारी ने ये बता दिया है कि जीएसटी का वर्तमान स्वरूप नाकाम है. ये टूट चुका है और इसके पूरे कायापलट की जरूरत है.
(लेखक एनडीटीवी इंडिया और एनडीटीवी प्रॉफिट के सीनियर मैनेजिंग एडिटर थे। वह इन दिनों स्वतंत्र तौर पर यूट्यूब चैनल देसी डेमोक्रेसी चला रहे हैं। आप उन्हें यहां @AunindyoC कर सकते हैं। यह एक ओपनियन लेख है। ये लेखक के निजी विचार हैं। क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है।)
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