फ्रांस की युवा लेखक पॉलीन हरमॉज़ ने जब मेन, आई हेट देम लिखी थी, तब कभी नहीं सोचा था कि उनकी यह किताब देश में फेमिनिज्म की परिभाषा पर एक लंबी बहस छेड़ देगी. 96 पेज लंबी इस किताब को भले ही पाठकों ने हाथों हाथ लिया हो, लेकिन पिछले महीने फ्रांस सरकार ने इसे बैन करने की कोशिश की थी. सरकारी प्रतिनिधियों का मानना है कि यह किताब मिसैंड्री से भरपूर है. मिसैंड्री यानी पुरुषों के प्रति नफरत. सवाल उठाया गया था कि अगर लिंग के आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव करना गलत है, तो पुरुषों के लिए उपजने वाली घृणा को जायज कैसे ठहराया जा सकता है. इस किताब ने फ्रांस के स्त्रीवादियों को दो खेमों में बांट दिया है. पर सवाल यह है कि इस पर हम अपने देश में बात क्यों कर रहे हैं.
मिसैंड्री, मिसॉजनी का जवाब
सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि किताब में ऐसा क्या है, जिसने फ्रांस में स्त्रीवादियों की खेमाबंदी कर दी है. किताब एक निबंध की तरह है जिसमें हरमॉज़ ने पुरुषों के लिए अपनी राय रखी है. इसके केंद्र में यह तर्क है कि लेखक पुरुषों से नफरत करती हैं और यह सही है, और जरूरी भी. उसमें मौजूद मिसैंड्री, मिसॉजनी, यानी स्त्रियों के साथ भेदभाव का जवाब है.
किताब, जिसे बुकलेट भी कहा जा सकता है, में हरमॉज़ फ्रांस की परंपरागत फेमिनिस्ट्स की आलोचना करती हैं क्योंकि वे कभी पुरुषों का सीधे तौर से विरोध नहीं करतीं, और उनकी पिछलग्गू बनी रहती हैं. इस तरह वे स्टेटस क्वो को बरकरार रखती हैं. स्टेटस क्वो यानी जो जैसा चल रहा है, वह वैसा ही चलता रहे.
फ्रांस के संदर्भ में यह कई मायनों में सही भी है. वहां शीर्ष पदों पर बैठी महिलाएं भी मर्दवादी अवधारणाओं की ही शिकार हैं. अभी हाल ही में पेरिस की मेयर अने हिंडालगो अपने डेप्यूटी को बचाती नजर आईं जिन पर यौन शोषण के आरोप लगाए गए थे. इससे पहले 2018 में जब दुनिया भर में हैशटैग मीटू कैंपेन जोरशोर से चल रहा था, तब फ्रांस में 100 से अधिक मशहूर औरतों ने सामूहिक चिट्ठी लिखकर इसका विरोध किया था. उनका कहना था कि पुरुषों पर हमला करके, औरतें समानता का अधिकार हासिल नहीं कर सकतीं. एक साल पहले वहां एक पत्रकार को अपने बॉस पर यौन शोषण के आरोप लगाने का बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा था. अदालत ने उसे बॉस की मानहानि करने की एवज में 15,000 यूरो चुकाने का आदेश दिया था. जाहिर सी बात है, फ्रांस की फेमिनिस्ट्स इन सबका उस तरह से विरोध नहीं कर पाईं, जैसा उन्हें करना चाहिए.
फेमिनिज्म के नए और पुराने कॉन्सेप्ट के बीच टकराव
तो, हरमॉज़ का यही प्वाइंट है. उनकी जैसा नई लड़कियां मानती हैं कि विरोध ऊंचे स्वर में होना चाहिए. यह पुरुषों से नफरत करने की हद तक जाता है. दूसरी तरफ पुरानी पीढ़ी की फेमिनिस्ट्स का मानना है कि पुरुषों का विरोध करने, उनसे नफरत करने से काम चलने वाला नहीं. औरतों को समाज का हिस्सा बनकर ही रहना है. पुरुष और स्त्री मिलकर ही किसी समाज का विकास कर सकते हैं. लेकिन पेरिस यौन शोषण मामले में नई पीढ़ी की फेमिनिस्ट्स ने अलग रुख अपनाया. वहां की सिटी काउंसिल और एक्टिविस्ट एलिस कॉफिन ने एक इंटरव्यू में कहा कि हम ताकतवर पुरुषों को अपनी मनमानी करने से रोक रहे हैं, और फ्रांस के परंपरागत समाज में यह एकदम नई बात है.
फ्रांस के परंपरागत स्त्रीवादियों की सोच कैसी है?
दरअसल, फ्रांस में फेमिनिज्म ने वहां के यूनिवर्सलिस्ट ट्रेडीशन से विचार उधार लिए हैं. वहां यूनिवर्सलिज्म की अवधारणा बहुत पुरानी है. यह स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना पर आधारित है, और इसके तहत संस्कृति, नस्ल, धर्म, जातीयता, सेक्स या जेंडर के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं किया जा सकता. कोई पूछ सकता है कि इसमें क्या गलत है? समाज में समानता लाने के लिए तो यह जरूरी ही है. इस अवधारणा को भारत में यूनिफॉर्म सिविल कोड के पैरोकार भी अपनाना चाहते हैं. यूनिफॉर्म सिविल कोड का मायने है, देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून. यह सत्तारूढ़ बीजेपी का एजेंडा भी है.
एक गैर बराबर समाज में समानता कैसे हासिल की जा सकती है?
कोई अवधारणा समानता की हिमायत करती है तो इसमें गलत क्या है. लेकिन किसी गैर बराबर समाज में समानता इस तरह हासिल की ही नहीं जा सकती. यूनिवर्सलिज्म में समस्या यही है कि एक समय के बाद समाज में ताकतवर तबका ही उस पर हावी हो जाता है. चूंकि वही उसका स्टैंडर्ड होता है. वही यूनिवर्सल वैल्यू का प्रतिनिधित्व करता है. इसी के चलते फ्रांस, यूरोप का वह पहला देश बना था जहां औरतें सार्वजनिक स्थानों पर बुर्का या हिजाब नहीं पहन सकतीं. पेरिस की मेयर हिंडालगो ने 2017 में ब्लैक फेमिनिस्ट्स की एक कॉन्फ्रेंस सिर्फ इसलिए नहीं होने दी, क्योंकि वहां व्हाइट औरतों की एंट्री नहीं हो रही थी. भारत जैसे देश में तीन तलाक का कानून फेमिनिज्म की इसी अवधारणा को पुष्ट करता है जिसके जरिए धार्मिक उन्माद को भड़काने का काम किया गया.
फेमिनिज्म में यूनिवर्सलिज्म की बू आने का एक नुकसान यह भी है कि हम औरतों को एक होमोजीनियस कैटगरी मानने लगते हैं. अमेरिका में ब्लैक औरतों और भारत में दलित, आदिवासी और मुसलमान औरतों के साथ होने वाला भेदभाव अलग कहानियां कहता है. बेशक, उनके साथ होने वाला व्यवहार, दूसरी औरतों के साथ होने वाले बर्ताव से बहुत अलग होता है. फिर हम दोनों को एक धरातल पर कैसे रख सकते हैं.
हम इसे हाथरस के परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं. इस मामले को सिर्फ स्त्री दमन से जुड़ा हुआ मानने का आग्रह है. कहा जा रहा है कि यहां जाति को खींचकर लाने की क्या जरूरत है. लेकिन दलितों के साथ यौन हिंसा को सामाजिक संदर्भों से अलग करके कैसे देखा जा सकता है. बलात्कार सिर्फ पुरुषों के कुकर्मों तक सीमित नहीं होता. ऐसा नहीं होता कि मर्द एक दिन अचानक बलात्कार करने का मंसूबा लेकर निकल पड़ते हैं. बलात्कार एक एक्सरसाइज इन पावर होता है
सांप्रदायिक दंगों के दौरान देखा जा सकता है कि कैसे किसी संप्रदाय को उसकी ‘औकात’ दिखाने के लिए यह करतूत की जाती है. दलितों को भी इसी तरह से ‘उनकी जगह’ दिखाई जाती है. अपनी जातिगत श्रेष्ठता और अधिकार का अहंकार दर्शाया जाता है. जैसा कि हाथरस के आरोपियों के घरवालों ने कहा, “हम दलितों को छूते तक नहीं, उनके साथ ऐसी हरकत कैसे कर सकते हैं.” ऐसे में क्या अपराधी और पीड़ित की सामाजिक पृष्ठभूमि कोई मायने नहीं रखती.
बेशक, सभी औरतें एक जैसे हालात का सामना नहीं करतीं
स्त्री पुरुष समानता का थोथा सिद्धांत किसी भी देश या समाज की परतें खोलता है. जब औरतों के बीच भी समानता कायम नहीं है. नब्बे के दशक में अमेरिका में ब्लैक फेमिनिस्ट्स ने यूनिवर्सलिज्म के विपरीत इंटरसेक्शनैलिटी जैसे थ्योरी पेश की थी. इसे खोजा था, अमेरिका की मशहूर वकील और सिविल राइट्स एक्टिविस्ट किम्बर्ली क्रेशॉ ने. उनका कहना था कि जेंडर का मसला एकआयामी नहीं है. कैसे एक समूह की कुछ श्रेणियां भी दूसरों से ज्यादा संवेदनशील और कमजोर होती हैं. यानी ब्लैक औरतें, व्हाइट औरतों से ज्यादा दमित हैं, ठीक वैसे ही जैसे दलित औरतें, सवर्ण औरतें से ज्यादा प्रताड़ित हैं.
अमेरिका के बाद भारत में भी दलित औरतों ने भी यह मुद्दा बार बार उठाया है. सी. स्वरूपा रानी जैसी दलित लेखक और स्कॉलर का मानना है कि भारतीय फेमिनिस्ट्स ने सभी औरतों को एक बराबर माना है, जैसे उनकी समस्याएं एक बराबर हैं. लेकिन दलित फेमिनिस्ट्स इस विचार को ही चुनौती देते हैं. उनके हिसाब से दलित औरतों को लिंग आधारित ही नहीं, जाति आधारित भेदभाव भी झेलना पड़ता है.
इस भेद को हम मुंबई में बार डांसर्स पर लगे प्रतिबंध से समझ सकते हैं. इसी साल फरवरी में फेमिनिस्ट मल्टीलॉग्स नामक स्टडी ग्रुप के एक कार्यक्रम में फेमिनिस्ट और प्रोफेसर निवेदिता मेनन ने मुंबई की बार गर्ल्स का मामला उठाया था. उन्होंने बताया था कि कैसे जब बार डांसर्स से बैन हटा तो सब तरफ खुशी की लहर दौड़ गई. इस जीत को राइट टू ऑक्यूपेशन से जोड़ा गया था. लेकिन कई दलित फेमिनिस्ट्स ने इसका विरोध किया. उनका कहना था कि यह पेशे की आजादी का मुद्दा ही नहीं है.
चूंकि दलित और बहुजन औरतों को परंपरा और गरीबी के नाम पर इसमें धकेल दिया जाता है. सवर्ण औरतों भले ही सेक्स वर्क को देह की आजादी से जोड़कर देखती हों लेकिन दलित औरतों को सिर्फ मजबूरी के चलते इसे अपनाना पड़ता है.
पॉलीन की किताब हाथरस के सवालों के जवाब देती दिखती है
बात जहां से शुरू की थी, वहीं से खत्म भी करनी होगी. फ्रांस में फेमिनिज्म की नई परिभाषा गढ़ने वाली पॉलीन हरमॉज़ का यही मानना है कि यूनिवर्सलिज्म खतरनाक है क्योंकि यह न्याय के अधिक व्यापक प्रश्न को उलझाता है. फ्रांस में पुराने फेमिनिस्ट सौहार्द को बनाए रखने के लिए पुरुषों का अदब करते रहते हैं कि अगर वे मुंह खोलेंगी तो शांति कैसे कायम रहेगी. न्याय मांगने से कई बार समरसता भंग होती है. हाथरस में हम यही देख रहे हैं.
जो सवाल हाथरस में उठाए गए हैं, एक तरह से पॉलीन उसके जवाब अपनी किताब में दे चुकी हैं. वह कह चुकी हैं कि सभी स्त्रियों को एक धरातल पर रखना संकट पैदा कर सकता है. हाथरस की पीड़िता का संकट दूसरी तमाम औरतों के संकट से बहुत अलग और बहुत स्पष्ट है. उसके परिवार का न्याय का संघर्ष मानो सिर्फ उनका अपना बनकर रह गया है. जब यह अलग है तो इस मामले को सामान्य हत्या और सामान्य बलात्कार कैसे समझा जा सकता है?
(आर्टिकल में लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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