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‘फेयर ही लवली’ को जड़ से हटाना होगा,क्रीम का नाम बदलना एक छोटा कदम

आखिर गोरापन किसी को क्यों चाहिए- और किसी का स्किन टोन व्हाइट है तो वह लवली क्यों है?

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हमारे देश में जिस एक क्रीम की बिक्री पिछले साल लगभग साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए की हुई, उस फेयर एंड लवली के दिन भर गए हैं. अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के बाद फेयर एंड लवली बनाने वाली कंपनी हिंदुस्तान यूनीलिवर को तमाम विरोधों का सामना करना पड़ा और अब उसने फैसला किया है कि वह इस प्रॉडक्ट का नाम बदलने जा रही है. हालांकि इस प्रॉडक्ट की यूएसपी फेयर को लवली बताना है. जिस नोशन पर इस प्रॉडक्ट की बिक्री होती थी, उसी पर सवाल खड़े हो रहे हैं. आखिर गोरापन किसी को क्यों चाहिए- और किसी का स्किन टोन व्हाइट है तो वह लवली क्यों है?

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फेयर और लवली या हैंडसम- मानो एक ही सिक्के के दो पहलू

भारत में गोरेपन को लेकर पूर्वाग्रह लंबा है. गोरापन मतलब सुंदरता- चाहे वह पुरुष हो या स्त्री. स्त्रियों के गोरेपन का आग्रह अधिक होता है. इसीलिए भारत में फेयरनेस क्रीम्स का मार्केट लगभग 5000 करोड़ रुपए का है और उसमें फेयर एंड लवली का हिस्सा 70 प्रतिशत के करीब है. इसी तरह पुरुषों के लिए ऐसी क्रीम बाजार में उपलब्ध हैं जोकि उन्हें फेयर होने के साथ-साथ हैंडसम बनाती हैं- या यूं कहें कि इसे सिक्के का दो पहलू बताया जाता है. जो लड़की फेयर है, वही लवली है. जो लड़का फेयर है, वही हैंडसम है.

शादी हो या नौकरी, व्हाइट स्किन वालों को तरजीह दी जाती है- यह सभी को पता है. हां, यह बात नई है कि लोग वोट भी रंग को देखकर देते हैं.

2016 में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया के दो प्रोफेसर्स अमित आहूजा और आशीष मेहता और नॉर्टडेम यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर सूजेन ऑस्टरमैन ने एक स्टडी की और पता लगाया कि भारत में लोग चुनावों में वोट देने के लिए जिन तमाम बातों का ध्यान रखते हैं, उनमें एक स्किन टोन भी है. यह स्टडी जरनल ऑफ रेस, एथिनिसिटी एंड पॉलिटिक्स में छापी गई. इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि अधिकतर लोग डार्क स्किन टोन वाले उम्मीदवारों का समर्थन नहीं करते.

त्वचा के रंग के आधार पर भेदभाव बहुत पुराना है

यूं बात इतनी सरल भी नहीं, जितनी दिखती है. असल समस्या रंग के साथ जुड़े भेदभाव की है. हमारे देश में रंगभेद, जातिगत भेद भी है. पूरी दुनिया में अगर ब्लैक और नॉन ब्लैक लोगों के बीच गहरी खाई है तो हमारे

देश में दूसरी तमाम तरह की खाइयां भी हैं. रंग हमारे यहां वर्ण भेद से भी जुड़ा है. डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने अपनी किताब एनिहिलिशन ऑफ कास्ट विद रिप्लाइ टू महात्मा गांधी में लिखा है- महाभारत में महर्षि भृगु कहते हैं, सबसे ऊंचे वर्ण वाले यानी ब्राह्मण का रंग सफेद होता है, क्षत्रिय का लाल, वैश्य का पीला और शूद्र का काला. क्या यह इत्तेफाक है कि वर्ण का दूसरा अर्थ रंग ही होता है.

अमेरिका में श्वेत लोगों से पहले भारत में आर्यों का नस्लीय वर्चस्व समाज में प्रभुत्वशाली रहा है. कथित उच्च जातियां खुद के जीन्स आर्य वंशजों में तलाशती रही हैं. उन्होंने हमेशा से यह दावा किया है कि शूद्रों और पूर्व अछूतों से वे सामान्यतया श्रेष्ठ हैं. पूर्व अछूत यानी अनसूचित जातियों जिन्हें अवर्ण कहा जाता है. जो चतुर्वर्ण से बाहर हैं. आउटकास्ट, अंत्याज. उनके विपरीत आर्य शुद्ध, उदार और श्रेष्ठ नस्ल मानी जाती है. लंबा कद, तीखी नाक और श्वेत वर्ण. दस्यु या दास निम्न श्रेणी के, सांवले वर्ण के होते थे. त्वचा के रंग के आधार पर भेदभाव शायद मानव समाज में भेदभाव का सबसे पुराना प्रकार है.

भारत में वर्ण जाति संरचना लगभग तीन हजार साल पुरानी है. इस व्यवस्था ने कई प्रतिगामी परंपराओं को जन्म दिया- हर किसी के साथ खा-पी नहीं सकते, जाति के बाहर विवाह की अनुमति नहीं, छूआछूत का पालन और दूसरी कई कुरीतियां. महिलाओं और उनकी सेक्सुएलिटी पर परिवार के पुरुषों का नियंत्रण भी इसी की देन रहा.

सुंदरता, फेमिनिटी, पवित्रता और सामाजिक स्थिति त्वचा के रंग और जाति के आधार पर तय की गई. गौर वर्ण को श्रेष्ठ बताया गया और सांवले रंग को बदसूरत और हीन. इसीलिए त्वचा का रंग कई मायनों में सामाजिक स्थिति का द्योतक बना.

रंग का ताल्लुक नस्ल और जाति से भी है गौर वर्ण के प्रति हमारा पूर्वाग्रह साफ है. पर त्वचा के रंग से जुड़ी कोई टिप्पणी कितनी जातिसूचक हो सकती है, यह बात ऐक्ट्रेस तनिष्ठा चैटर्जी की सोशल मीडिया पोस्ट से साफ समझी जा सकती है. जब एक टीवी कॉमेडी शो में उनके स्किन टोन पर चुहलबाजी की गई तो उन्होंने शो की शूटिंग बीच में ही छोड़ दी. इसके बाद अपने एक इंटरव्यू में बताया-‘एक बार किसी ने मुझसे पूछा आपका सरनेम चैटर्जी है तो आप ब्राह्मण होती हैं ना.. अच्छा आपकी मां का सरनेम क्या है... मैत्रा.. ओह.. वह भी ब्राह्मण हुईं.’ तनिष्ठा ने लिखा- ‘वह शख्स इनडायरेक्टली कहना चाहता था कि जब मैं ब्राह्मण हूं तो फिर मेरा स्किन टोन डार्क क्यों है?’

कोई ब्राह्मण काला कैसे हो सकता है- इसका उलटा यही है कि कोई दलित गोरा कैसे हो सकता है? क्योंकि रंग का ताल्लुक नस्ल से ही नहीं जाति से भी है. सोशियोलॉजिस्ट और फेमिनिस्ट स्कॉलर शर्मिला रेगे ने अपनी किताब राइटिंग कास्ट, राइटिंग जेंडर में दो दलित नेताओं शांतिबाई दानी और कुमुद पावड़े के बारे में लिखा है कि कैसे उन्हें अपने उजले स्किन टोन के कारण अपने समुदाय में अधिक ऊंचा सामाजिक दर्जा मिला. इसीलिए जब तक जातिगत भेदभाव खत्म नहीं होंगे, त्वचा के उजले रंग के प्रति हमारा मोह भी खत्म नहीं होगा.

बाजार इसी का फायदा उठाता है

बाजार ने इसी जातिगत भेदभाव की नींव पर अपने फेयरनेस प्रॉडक्ट्स बेचे हैं. यूनिलीवर, नीविया, न्यूट्रीजेना, ऑरिफ्लेम, पॉन्ड्स जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों ने रंग के प्रति इस जुनून का संस्थागत तरीके से शोषण किया है. सोशल मीडिया, टेलीविजन और फिल्में भी लगातार यही जोर देती हैं कि गोरापन ही सुंदरता है. इस प्रकार मल्टीनेशनल कंपनियां रंग से जुड़े पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. ये न सिर्फ नुकसानदेह क्रीम और लोशंस बेचती हैं बल्कि रंग को जीवन में सफलता से जोड़कर वर्ण जाति की हेरारकी को भी संरक्षित रखती हैं. इससे होता यह है कि सांवले रंग के लोगों के प्रति पूर्वाग्रह की जड़ें गहरी होती जाती हैं.

फेयर एंड लवली को 1975 में लॉन्च किया गया था. इसका मकसद एशिया, मिडिल ईस्ट और अफ्रीका के लोगों को आकर्षित करना था. यूनिलीवर की सबसिडियरी हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड ने इससे बहुत सारा पैसा कमाया. हालांकि बीच बीच में महिला संगठनों ने इसका काफी विरोध किया. संसद में भी इसे लेकर विरोध के स्वर सुनाई दिए. इसके एयरहोस्टेस वाले विज्ञापन को तमाम आलोचनाओं के बाद हटा भी दिया गया. लेकिन प्रॉडक्ट बिकता ही रहा.

कुछ उदारवादी कहते हैं कि मल्टीनेशनल कंपनियों को नस्लवाद या रंगभेद के लिए पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. क्योंकि पूर्वाग्रह तो पहले से मौजूद हैं. लेकिन यह भी सच है कि वे सामाजिक अवधारणाओं का दोहन कर रहे हैं और साथ ही में नैतिकता को भी ताक पर रख रहे हैं. क्या यह उचित है कि सांवले लोगों को लगातार तिरस्कृत दिखाया जाए और गोरे रंग को कामयाबी का पर्याय.

यह रंग के प्रति हमारा पूर्वाग्रह ही है कि ‘बाला’ जैसी फिल्म में भूमि पेडनेकर के चेहरे पर काला पोता जाता है. पर गोरे वर्ण पर काला पोतना इसीलिए ऑफेंसिव है क्योंकि गोरे रंग पर काला पोतने का एक लंबा इतिहास रहा है. अमेरिकन थियेटर में ब्लैकफेस लगभग सौ साल पहले बहुत मशहूर था. यह वह दौर था जब अमेरिका में ब्लैक्स को भयानक नस्लवाद का सामना करना पड़ता था. लिचिंग आम बात थी. चेहरे को काला करने का इतिहास दुखद त्रासदियों, नस्लीय दुर्भावना और मनुष्य जाति के दमन से भरा हुआ है. उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. ठीक उसी तरह, सांवले रंग को गोरा करने के आग्रह पर भी बहुत सोचने विचारने की जरूरत है. आखिर हमें गोरापन चाहिए ही क्यों?

(ऊपर लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है)

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