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बस्ते के बोझ तले सिसकता बचपन, आखिर क्या है उपाय!

पिछले साल सितबंर में सीबीएसीई ने अपने हर स्कूल को कक्षा दो तक स्कूल बैग नहीं लाने की सलाह दी थी

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स्कूल के लिए सुबह तैयार होते हुए, मेरी बेटी ने खुद ही कुछ किताबें अपने बैग से निकालीं और बाहर रख दीं. इसके बाद उसने मुझसे एक पॉलिथिन मांगा. ये देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उससे पूछ ही लिया- आखिर किस काम के लिए चाहिए पॉलिथिन? बेटी ने जवाब दिया कि उसकी एक सहेली को अक्सर पीठ में दर्द की शिकायत रहती थी, जब डॉक्टर को दिखाया तो पता चला स्कूल के भारी बस्ते की वजह से उसको दर्द होता है. साथ ही मेरी बेटी ने ये भी बताया कि अब उसकी दोस्त की मां उसका स्कूल बैग लेकर उसे छोड़ने आती हैं.

सहेली की बात बेटी को इतनी जल्दी समझ आ गई कि उसने खुद ही अपने बस्ते को हल्का करने का उपाय ढूंढ लिया. आधी किताबें बैग में और आधी पॉलिथिन में. बेटी की इस समझदारी पर मैं खुश तो हुई, लेकिन अगले ही पल एक डर भी लगा कि कहीं ऐसा ही दर्द उसे भी तो नहीं सता रहा? क्या वो मुझसे कुछ छुपा तो नहीं रही? क्या होगा अगर गलती से वो पॉलिथिन स्कूल में ही छूट जाए? लेकिन इस डर के साथ मैं भी उसका हल्का बस्ता पीठ पर टांगे बस स्टॉप की तरफ चल दी.

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भारी बस्ता, सब मां-बाप की परेशानी

बस स्टॉप पर पहुंचकर ध्यान से देखा तो लगा कि हर माता-पिता की यही कहानी है. बच्चों के स्कूल के बस्ते मां-बाप की ही पीठ पर थे. पहले भी ऐसा होता होगा, लेकिन आज मेरी नजर गई. शायद बेटी की बातों ने मेरा ध्यान बस्ते की ओर खींचा था. कुछ अभिभावकों से इस मुद्दे पर बात छेड़ दी, तो सबने ऐसी प्रतिक्रिया दी मानों मैंने उनके मुंह की बात छीन ली. दिल में जितना गुबार भरा था, सब निकलकर बाहर आ गया.

एक पिता ने तो यहां तक कहा कि हम बड़े भी बच्चों का बस्ता टांगकर जब स्कूल की बस का इंतजार करते हैं तो खुद को थका हुआ महसूस करते हैं और अगर स्कूल बस का इंतजार लंबा हो जाए तो बस्ते को कहीं ठिकाने की जगह ढूंढने लगते हैं. एक पिता ने तो कहा,

पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि स्कूल प्रबंधन और शिक्षकों को बच्चों के बस्ते का भारी बोझ नहीं दिखता.

ये बातें सुनते हुए एक मां से रहा नहीं गया और वो तुंरत बोली कि मैं तो पहले बच्चे को ही डांटती थी. स्कूल में टाइमटेबल मिलाकर नहीं जाते, इसलिए बस्ता भारी होता है. इसलिए मैंने बच्चे पर विश्वास न करते हुए उसका टाइमटेबल खुद मिलाना शुरू कर दिया. फिर भी नतीजा वही रहा – स्कूल का भारी बैग. एक अभिभावक ने तो कहा, बैग के वजन को तो छोड़िए जनाब, स्कूल में आए दिन मिलने वाले प्रोजेक्ट, डांस और कॉम्पिटीशन के समान भी तो बहुत होते हैं. उपर से दो-दो टिफिन, पानी की बोतल, खेलने के लिए कभी बैडमिनटन, कभी फुटबॉल की किट, तो कभी क्रिकेट का सामान... बच्चा आखिर क्या-क्या संभाले?

स्कूल की गलती है भारी बस्ता

बस स्टॉप पर हुई बातचीत के दौरान लोगों के दिल का गुबार तो खूब निकला लेकिन इस समस्या का कोई हल वहां से नहीं निकला. बेटी के बस्ते के बोझ ने एक पत्रकार मां को झकझोर दिया था. लिहाजा मैं बस्ते के वजन को लेकर छानबीन में जुट गई और आखिर में पाया कि पूरे मामले में लापरवाही स्कूलों की ही है. सरकार ने तो समय-समय पर इस बारे में बार गाइडलाइन जारी की हैं.

संसद में सोमवार को ही केन्द्रीय शिक्षा राज्य मंत्री ने बताया सरकार खुद भी इस बात को लेकर चिंतित है. इस लिए एनसीआरटी ने ताजा फरमान जारी किया है कि कक्षा दो तक के लिए दो किताबें ( लैंग्वेज और मैथ्स) और कक्षा पांच तक के लिए तीन किताबें (लैंगवेज, एनवायरमेंटल स्टडी और मैथ्स) ही स्कूल रखे.

साथ ही एनसीआरटी ने सभी किताबें ई-पाठशाला की बेवसाइट पर भी उपलब्ध करा रखी है ताकि छात्रों को स्कूलों में हर विषय की किताब ले जाने की परेशानी से छुटकारा मिल सके.

पिछले साल सितबंर में सीबीएसीई ने अपने हर स्कूल को कक्षा दो तक स्कूल बैग नहीं लाने की सलाह दी थी और ऊपर की क्लास में भी बस्ते के बोझ को कम से कम रखने की भी सलाह दी थी.

केंद्रीय विद्यालय ने तो बस्ते का बोझ कैसे कम हो इसके लिए अपने 25 स्कूलों में पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत भी की है. इन स्कूलों में मैथ्स और साइंस के लिए टैबलेट का इस्तेमाल शुरू किया गया है.

राज्यों ने भी बस्ते का बोझ कम करने की कोशिश की

ये तो हुई केन्द्र सरकार के स्तर पर शुरू किए गए प्रयासों की बात. कुछ राज्य सरकारों ने भी बच्चों के बस्तों के बोझ को हल्का करने के लिए अच्छी पहल शुरू की है.

स्नैपशॉट
  • तमिलनाडू सरकार ने कक्षा एक से आठवीं तक के लिए ट्राइमेस्टर सिस्टम की शुरुआत की है, जिसके तहत हर टर्म में अलग-अलग विषय ही पढ़ाए जाते हैं.
  • महाराष्ट्र सरकार ने अपने 50,000 स्कूलों को पूरी तरह डिजिटल करने का बीड़ा उठाया है, जहां पढ़ाई जाने वाली हर चीज ऑनलाइन होगी. इतना ही नहीं आरटीई कानून 2009 के तहत स्कूलों में ही स्वच्छ पानी मुहैया कराने की बात भी कही गई है ताकि बच्चों को पानी की बोतल स्कूल में ले जाने की जरूरत न पड़े.

दोपहर को बेटी जब स्कूल से लौटी तो उसका बैग दोबारा से देखा. इस बार बैग को चेक करने की नजर से. मैंने पाया कि एक ही विषय की तीन-तीन कॉपी थी. जब उससे पूछा तो बोली, लैंग्वेज आज ले जानी थी, लिटरेचर की कॉपी मैम ने चेक कर के वापस की. हिन्दी और अंग्रेजी को मिला कर चार कॉपी ऐसे हो गई. गणित में भी ज्योमेट्री की कॉपी अलग और घर का रजिस्टर अलग, स्कूल का अलग.

आर्ट की फाइल का वजन तो अपने आप में तीन कॉपी के बराबर था. ऊपर से कम्प्यूटर और डांस की कॉपी भी थी. इन सबके साथ बेटी ने लाइब्रेरी पीरियड में एक किताब की पढ़ने की लिए इशू करा ली थी. वैल्यू एजुकेशन और लाइफ स्किल की भी किताब उसके बैग में थी. लेकिन गणित की कॉपी बैग में नहीं थी क्योंकि आज उसका पीरियड नहीं था. दिल नहीं माना तो बेटी के बस्ते का वजन कर ही लिया. बिना टिफिन और बिना पानी की बोतल के बस्ते का वजन पांच किलो से ज्यादा था. पांच किलो का वजन उठाए कोई बच्चा तीसरी मंजिल तक अपनी क्लास में जाएगा तो भला उसकी पीठ में दर्द क्यों नहीं होगा?

साफ है कि अब बारी है प्राइवेट स्कूलों की, जो इन प्रयासों को आगे बढ़ कर अपने यहां अमल में लाएं, ताकि बच्चों का भविष्य बस्ते के बोझ से आजाद हो सके. ये बहुत मुश्किल नहीं है, जरूरत बस बस्ते के भारी बोझ को बच्चों के नजरिए से देखने और समझने की है.

(लेखिका सरोज सिंह @ImSarojSingh स्वतंत्र पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं. द क्विंट का उनके विचारों से सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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