ADVERTISEMENTREMOVE AD

OPINION: ‘हिंदी-चीनी’ मजबूरी में बने ‘भाई-भाई’!

मोदी तो कुछ समय तक ही भारत के नेता रहेंगे, जबकि शी जिनपिंग जीवन भर चीन के शासक बने रहेंगे.

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

1950 के दशक में जब मैं छोटा था, दो जुमले बार-बार सुनने को मिलते थे. एक तो ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ और दूसरे, ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’.

1962 में जब हिमालय के ऊंचे इलाकों में लड़ी गई जंग के दौरान कम्युनिस्ट चीन ने लोकतांत्रिक भारत को कुछ ही दिनों में हरा दिया, तो ‘भाई-भाई’ का नारा तंज करने का जरिया बन गया. इसके बाद 1969 में गांधी शताब्दी वर्ष के दौरान गांधीजी का नाम हर तरफ इतना ज्यादा सुनाई देने लगा कि ‘मजबूरी’ वाला जुमला किसी चीज को पूरी तरह अनिवार्य बताने का तरीका बन गया. आज ये बातें शायद ही किसी को याद हों.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मैं इन बातों को पीएम नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की हाल ही में हुई ‘अनौपचारिक’ मुलाकात का विश्लेषण करने के लिए याद कर रहा हूं.

जवाहरलाल नेहरू को पसंद नहीं करने के बावजूद पीएम मोदी ने ‘भाई-भाई’ वाली उस पुरानी भावना को ही फिर से जगाने की कोशिश की है, जो एक अच्छी बात है. लेकिन उनके पास ऐसा कहने के सिवा कोई रास्ता भी नहीं था, क्योंकि ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ है. हम किसी भी नजरिए से देखें, सच यही है कि भारत के सामने और कोई रास्ता नहीं बचा है.

दरअसल, चीन के साथ भारत का रवैया बिलकुल वैसा ही हो गया है, जैसा छोटे रजवाड़ों का पहले अकबर के मुगल साम्राज्य के आगे और फिर ब्रिटिश साम्राज्य के सामने हुआ करता था. चीन के साथ भारत के बदले रवैये के बारे में तो यही कहा जा सकता है कि ‘विवेक से काम लेना बहादुरी दिखाने से बेहतर है’.

चीन इस इलाके की इतनी बड़ी महाशक्ति बन चुका है कि भारत के लिए वैकल्पिक महाशक्ति होने का दिखावा छोड़कर चीन के वर्चस्व को मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है.

मोदी तो कुछ समय तक ही भारत के नेता रहेंगे, जबकि शी जिनपिंग जीवन भर चीन के शासक बने रहेंगे.
भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जबकि चीन में तानाशाही है
(फोटो: द क्विंट)

चीन के नाम हुए गेम, सेट और मैच

विडंबना ये है कि हार स्वीकार करने का काम नरेंद्र मोदी को करना पड़ा. ऐसे में 2013 के अंत और 2014 के शुरुआती महीनों में दिए उनके चुनावी भाषण याद आ रहे हैं, जब वो आक्रामक ढंग से चीन को टक्कर देने की बातें किया करते थे.

सच ये है कि पिछले साल डोकलाम विवाद के दौरान उन्होंने ऐसा किया भी, लेकिन बाद में समझ आया कि चीन इसे चुपचाप बर्दाश्त करने वाला नहीं है. जब हालात और आक्रामक होने लगे, तो भारत के पास कोई जवाब नहीं था.

चीन की मजबूरियां

चीन को मिली इस बढ़त के बावजूद सच ये भी है कि भारत के सहयोग के बिना चीन भी अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने में सफल नहीं हो सकता. वो डोकलाम जैसी जगहों पर हमारे सामने गरज सकता है, हमारे पड़ोसियों को पैसे के बल पर अपनी तरफ मिलाकर दक्षिण एशिया में हमें घेर सकता है, अरुणाचल प्रदेश पर हमले की धमकियां दे सकता है, लेकिन ये हकीकत उसे भी पता है कि भारत जैसे बड़े मुल्क के साथ वो तिब्बत जैसा सलूक नहीं कर सकता.

सच ये है कि चीन को डर है कि उसकी दबंगई और व्यापार और करेंसी मैनेजमेंट के मामले में उसके दोहरे रवैये से तंग आकर दुनिया संरक्षणवाद की तरफ मुड़ने लगी है. और चीन के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन करना और उसे बेचना सबसे जरूरी है. वरना उसकी अर्थव्यवस्था की रफ्तार और धीमी पड़ने लगेगी, जिससे चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के शासन के खिलाफ बड़े पैमाने पर जनविद्रोह भड़कने का खतरा हो सकता है.

इसी संदर्भ में भारत की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. हमारे पास एक विशाल बाजार है, जो लगातार बढ़ रहा है. ये सच है कि अभी चीन के कुल एक्सपोर्ट में भारतीय इंपोर्ट का हिस्सा बहुत कम है. लेकिन यही बात चीन के लिए एक बड़ा अवसर है और कोई बेवकूफ ही इस मौके को आपसी टकराव के कारण गंवाना चाहेगा.

दूसरे शब्दों में कहें, तो चीन ने जापान सागर से लेकर मालदीव तक के पूरे इलाके में रणनीतिक दबदबा हासिल करने की लड़ाई भले ही जीत ली हो, लेकिन इस जीत से न तो चीन का आर्थिक विकास आगे बढ़ेगा और न ही वहां रोजगार पैदा होंगे. चीन को इसके लिए भारत का बाजार चाहिए.

चीन अमेरिकी बाजारों में मिली अपनी कामयाबी को भारत में भी दोहराना चाहता है. वो भारत में वस्तुओं और फाइनेंस का एक्सपोर्ट करने वाला सबसे बड़ा देश बनना चाहता है. वो अपनी ताकत का इस्तेमाल भारतीय अर्थव्यवस्था में ज्यादा हिस्सेदारी हासिल करने के लिए करना चाहता है. यही वजह है कि शी जिनपिंग ने न सिर्फ इस ‘अनौपचारिक’ मुलाकात की इजाजत दी, बल्कि बढ़-चढ़कर मोदी को खुश करने की कोशिश भी की.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मोदी और शी जिनपिंग की शख्सियत

मोदी तो कुछ समय तक ही भारत के नेता रहेंगे, जबकि शी जिनपिंग जीवन भर चीन के शासक बने रहेंगे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग स्वभाव और मिजाज के लिहाज से बिलकुल एक जैसे हैं
(फाइल फोटो: एपी)

यहां ये बात भी ध्यान देने लायक है कि स्वभाव और मिजाज के लिहाज से मोदी और शी जिनपिंग बिलकुल एक जैसे हैं. लेकिन उनमें दो महत्वपूर्ण अंतर भी हैं: भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जबकि चीन में तानाशाही है. इसका मतलब ये हुआ कि मोदी तो कुछ समय तक ही भारत के नेता रहेंगे, जबकि शी जिनपिंग जीवन भर चीन के शासक बने रहेंगे.

आपसी टकराव भले ही दोनों ही देशों के हित में नहीं है, लेकिन चीन के लिए ये अगले तीन से पांच साल का अहम मसला है, जबकि मोदी को इस मसले का समाधान अभी, इसी वक्त चाहिए. मोदी के लिए ये चुनावी साल है. वो बिलकुल नहीं चाहेंगे कि चीन कुछ ऐसा करे, जिसका बुरा असर उनकी चुनावी संभावनाओं पर पड़े. ऐसे में अमन-चैन और सहयोग का रास्ता ही उनके लिए बेहतर विकल्प है.

यही वजह है कि विदेश मंत्रालय ने इस बात पर काफी जोर दिया कि 'मतभेद भले ही बने रहें, लेकिन उन पर विवाद नहीं होगा'. बात तो ठीक है, लेकिन अगर चीन ने ही ‘मतभेद’ को ‘विवाद’ में बदलने का फैसला कर लिया, तो क्या होगा ?

मैं अपनी बात एक और पुरानी याद के साथ खत्म करूंगा. ये पुरानी बात है बंदर और मगरमच्छ की पंचतंत्र वाली कहानी, जिसमें दोनों दोस्त तो बन जाते हैं, लेकिन बाहरी दखल के कारण ये दोस्ती निभ नहीं पाती. अगर आप इस ‘अनौपचारिक’ शिखर सम्मेलन का मतलब वाकई अच्छी तरह समझना चाहते हैं, तो आप ये पूरी कहानी इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

ये भी पढ़ें- चीन में पीएम मोदी और जिनपिंग के बीच इन 5 मुद्दों पर हुई बात

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×