अर्थशास्त्री अक्सर यह सवाल करते हैं कि 10 साल, 20 साल, 30 या 40 साल बाद अर्थव्यवस्था की सूरत कैसी होगी? लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, किसी पॉलिटिकल साइंटिस्ट ने देश के राजनीतिक ढांचे के बारे में यह सवाल कभी नहीं किया है.
अब भारत को ही लीजिए. आज से 10 या 20 साल बाद देश का राजनीतिक ढांचा कैसा होगा? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए पहले यह देखना होगा कि 1947 में आजादी के बाद से हमारा अब तक का सफर कैसा रहा है.
समझना होगा वैधानिकता और पावर के बीच का अंतर
क्षेत्रीय दलों की ग्रोथ को देखकर तो लगता है कि इस मामले में हम काफी लंबा सफर तय कर चुके हैं. इसे लेकर मेरी अपनी थ्योरी यह है कि हर सामाजिक और सांस्कृतिक ग्रोथ का एक सामान्य बिंदू होता है, जिसकी तरफ वह बढ़ता है. भारत में यह ‘नॉर्मल’ क्षत्रप या मनसबदार या रजवाड़े हैं, जिन पर शीर्ष सत्ता का पूरा नियंत्रण होता था. इससे फर्क नहीं पड़ता कि क्षत्रप या मनसबदार कौन है. यह बात भी मायने नहीं रखती कि शीर्ष सत्ता किसके पास है. इस मामले में उनके बीच का रिश्ता महत्वपूर्ण है. हालांकि, यहां हमें वैधानिकता और पावर के बीच का अंतर समझना होगा.
शीर्ष सत्ता को वैधानिकता हर किसी से मिलती है. इसमें माना जाता है कि किसी खास क्षेत्र के लिए शीर्ष सत्ता एक ही होती है, लेकिन इसकी शक्ति मनसबदार या क्षत्रप के समर्थन से तय होती है.
केंद्र सरकार और क्षेत्रीय दलों का रिश्ता
साल 1989 के बाद से क्षेत्रीय दल नए मनसबदार बने हुए हैं. पहले मनसबदार की ताकत का अंदाजा इससे लगाया जाता था कि वह शीर्ष सत्ता के लिए कितने घुड़सवार जुटा सकता है. आज घोड़ों और सवारों की जगह सांसदों ने ले ली है.
पहले किसी क्षत्रप को शीर्ष सत्ता से मिलने वाली जागीर से उसकी वफादारी तय होती थी, आज इसकी जगह केंद्र से क्षेत्रीय दलों की सरकारों को मिलने वाले अनुदान ने ले ली है.
17वीं सदी के अंत में औरंगजेब ने अफसोस के साथ कहा था, ‘एक अनार, सौ बीमार.’ उनके कहने का मतलब यह था कि सरकारी खजाने की हालत सारी जरूरतों को पूरा करने लायक नहीं है. पिछले वित्त आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद केंद्र सरकार की हालत औरंगजेब जैसी हो गई है. अब केंद्र के पास अनुदान के जरिये क्षेत्रीय दलों का दिल जीतने की गुंजाइश बहुत कम रह गई है. इससे क्षत्रपों की शक्ति काफी बढ़ गई है.
वैधानिकता का सवाल
पहले किसी क्षत्रप की वैधानिकता आमदनी जुटाने की उसकी सैन्य क्षमता और उसके लिए धार्मिंक संरक्षण से तय होती थी. आज आमदनी जुटाने का अधिकार सरकार के पास और सरकार बनाने का अधिकार वोटरों के पास है.
इसमें दिक्कत यह है कि सरकार को वोटरों का समर्थन इस पर निर्भर करता है कि उसे क्या मिलता है. यह उसी तरह से है, जैसे पहले दान-दक्षिणा देखकर पुजारियों की तरफ से मनसबदार को आशीर्वाद मिलता था. आज इसे कॉम्पिटिटिव पॉपुलिज्म कहते हैं, जिसमें वोटरों को रिझाने के लिए राजनीतिक दल बढ़-चढ़कर लोकलुभावन वादे करने की होड़ करते हैं.
इसमें दिक्कत यह है कि अगर वोटर सरकार से मिली सौगातों से खुश नहीं है तो वह उसका समर्थन करना बंद कर देगा.
भारत में एक और मसला यह है कि हर संसदीय क्षेत्र में वोटरों की संख्या बहुत बढ़ गई है. सवाल यह भी है कि आखिर एक सासंद भविष्य में कितने वोटरों का प्रतिनिधित्व कर सकता है? वह असरदार ढंग से कितने लोगों का नुमाइंदगी कर सकता है? मैं साल 2001 से यह प्रश्न पूछ रहा हूं, जब वाजपेयी सरकार ने 25 वर्षों के लिए संसदीय क्षेत्रों की संख्या तय कर दी थी.
देश की एक अरब से अधिक आबादी को देखते हुए यह फैसला अजीब था. इसका मतलब है कि हरेक सांसद औसतन 18.5 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा था. आज यह संख्या 24 लाख पहुंच गई है. इससे बेहूदा बात दुनिया में कुछ और नहीं हो सकती.
साल 2026 तक देश में संसदीय सीटों की संख्या नहीं बढ़ेगी. इसमें सिर्फ 7 साल और एक आम चुनाव का समय बचा है. मनसबदारों, क्षत्रपों, क्षेत्रीय दलों, घुड़सवारों और सांसदों के बारे में मेरी थ्योरी को देखते हुए हमें अभी से इस पर विचार शुरू कर देना चाहिए. खासतौर पर पॉलिटिकल साइंटिस्टों को, जो आज भी 19वीं सदी के यूरोप के राजनीतिक सिद्धांतों का टॉनिक ले रहे हैं.
कैसे हल हो मसला?
इस पर मेरा शुरुआती सुझाव यह है.
- प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए हमें पांच क्षेत्रीय संसदों के बारे में विचार करना चाहिए. उत्तर, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और मध्य भारत में से हरेक के लिए एक संसद हो सकती है.
- हर क्षेत्रीय संसद में सांसदों की संख्या समान होनी चाहिए और उन्हें विधानसभा से चुना जाए. अगर जरूरत पड़े तो हर क्षेत्रीय सांसद के पास एक से अधिक वोट हो क्योंकि कई विधानसभाएं बहुत छोटी हैं. इससे हिंदी भाषी राज्यों की बड़ी आबादी का फायदा खत्म हो जाएगा.
- उसके बाद हर क्षेत्रीय संसद, केंद्रीय संसद के लिए बराबर सांसद भेजे, इनकी संख्या आपसी सहमति से कम रखी जा सकती है.
- इसे असरदार बनाने के लिए संविधान की कॉन्करेंट लिस्ट को हटाना होगा और केंद्रीय लिस्ट को छोटा करना होगा. दरअसल, अभी जो सिस्टम चल रहा है, वह दिशाहीन और अनौपचारिक है. मेरे सुझाव या इसे किसी अन्य रूप में लागू करने से इसका एक पक्का सिस्टम बन जाएगा.
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