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Raj Kapoor: एक ऐसा अनोखा सितारा, जिसमें अंदर तक मौजूद था आम आदमी

पेशावर की गलियां इस बात की गवाह रही हैं कि केचप में डूबी चिप्स की प्लेटों पर राज कपूर ने कई बार अटैक किया है.

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मैंने एक ऐसा जीवन जिया है, जिसमें मुझे लगातार आगे बढ़ने की विरासत परंपरागत रूप से मिली है. मेरे जीवन के इस सफर में दो चीजें स्थिर रही हैं एक तो जीवन की वास्तविकता के रूप में पश्तूनवाली और दूसरी विश्वदृष्टि के रूप में राज कपूर की फिल्में.

पाकिस्तान के गैरीसन नामक शहर में मेरा बचपन बीता. कहने को तो मैं सार्वजनिक जीवन जी रही थी, लेकिन मैं ऐसे सख्त इस्लामीकरण और सैन्यवाद माहौल में पली-बढ़ी जो एक निजी (प्राइवेट) दुनिया की तरह थी, जहां मेरी पीढ़ी के पास जेंडर और कल्चरल पॉलिटिक्स का बुरा या नकारात्मक अनुभव था.

उन्हीं किन्हीं वर्षाें में मुझे राज कपूर की आवारा (1951) फिल्म का एक वीडियो कैसेट मिला. जैसे ही फिल्म शुरू हुई मैं अपनी सीट पर पीछे झुक गई और बात करते हुए अपने दादाजी से कहा कि "मैंने सुना है कि यहां के एक्टर्स पिता और पुत्र भारत की फिल्म डायनेस्टी की रॉयल्टी की तरह हैं."
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राज कपूर ने मेरे सामाजिक-सांस्कृतिक विचारों को कैसे प्रभावित किया?

मेरे दादाजी ने अपने जीवन का सबसे बेहतरीन समय ब्रिटिश भारतीय और बाद में पाकिस्तानी सेना में बिताया था. उन्होंने कभी भी युद्ध के उन वर्षों पर सवाल नहीं उठाया था जिन्हें हम हमेशा मानते रहे हैं कि वह किसी और का युद्ध था. लेकिन यह पहली बार था जब मैंने उन्हें स्तब्ध या उलझन में फंसा हुआ देखा “कैसे? यह कैसे हो सकता है? वह (पृथ्वीराज कपूर) एक बंकर थे!

प्रिय पाठकों, और इस तरह मैं उस परिवार को गहराई से जानने के लिए डूबती चली गई. जिस परिवार ने मुझे यह दिखाया कि कॉलेज से भाग जाने पर भी सपने सच हो सकते हैं, उस परिवार के बारे में सब कुछ जानने के लिए समय और ध्यान देने के साथ-साथ मैंने वो किया जो मैं कर सकती थी. एक प्रिडिक्टेबल (पहले से प्रतीत) और स्थिर पथ का अनुसरण न करने के लिए उनके लिए मेरा प्यार पहला कदम है.

समाजवाद के साथ अपने समझौते (कॉन्ट्रैक्ट) के लिए हामी भरने का श्रेय मैं हमेशा राज कपूर के किरदारों को दूंगी. या मेरा नाम जोकर (1970) फिल्म में उनके द्वारा निभाए गए राजू के किरदार को दूंगी, जिसने हमें इस बारे में परिचित कराया कि "दुनिया में एक चीज शेर-ए-बब्बर से भी ज्यादा खतरनाक और डरावनी है... और वो है गरीब और भूख." लेकिन यह हमारे (पाकिस्तान) लिए नहीं थी, क्योंकि जहां गरीबी और भुखमरी अभी भी मौजूद थी वहां यह बात काल्पनिक विरोधियों या अन्याय के खिलाफ लड़ने जैसी थी.

फेमनिस्ट रिसर्चर मर्लिन यालोम (1997) द्वारा ब्रेस्ट कल्चरल हिस्ट्री (ए हिस्ट्री ऑफ़ द ब्रेस्ट) पर किए गए मौलिक कार्य (जिसके दौरान यालोम ब्रेस्ट (स्तन) के 25 हजार वर्षों के विरोधाभासी चित्रण से भी गुजरी थी) को पढ़ने से पहले राज कपूर की राम तेरी गंगा मैली (1985) और उनकी फिल्मोग्राफी के अन्य चैप्टरों ने आदर-सम्मान और जीवन के "गुड ब्रेस्ट" और लालच देने वाले के "बैड ब्रेस्ट" (इसे आकर्षक पढ़िए) के माध्यम से मुझे आगे बढ़ाया.

राज कपूर की फिल्म (आवारा, 1951) ने मुझे फौकॉल्ट की 'नेचर VS नेचर' बहस के रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया. इस फिल्म में राज कपूर ने अपने पिता पृथ्वीराज कपूर से ईमानदार जज (रघुनाथ) का रोल करवाया था. फिल्म में चार्ली चैपलिन जैसे दिखने वाले लिटिल चैंप राज के लिए एक डायलॉग बोलते हैं "शरीफों की औलाद हमेशा शरीफ होती है और चोर डाकू की औलाद हमेशा चोर डाकू."

सीमा-पार संबंध और एक अनोखी सार्वभौमिकता...

जी हां, ये पहलू मेरी सामाजिक और राजनीतिक चेतना का हिस्सा हैं, निश्चित तौर पर इसका श्रेय राज कपूर की कई फिल्मों के स्क्रीन राइटर ख्वाजा अहमद अब्बास को जाता है. लेकिन उस स्थिति में, राज कपूर ने हमारे लिए यही किया- "रुकावट बेलिये खेद है" (रुकावट के लिए खेद है) के बावजूद, उन्होंने उस चीज के लिए एक वाहक के तौर पर कार्य किया जिसे मैं हमेशा भारत का सार मानती हूं.

राज कपूर ही वह माध्यम हैं जिन्होंने हमें मुकेश की ओर आकर्षित किया. मुकेश से कपूर से अब्बास; वे जुड़ी हुई आत्माएं हैं जो अमर भारत की आवाज हैं, और यह क्या हो सकती हैं? "माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर, इन्सानों की कीमत कुछ भी नहीं इंसानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तौली जाएगी वो सुबह कभी तो आएगी" (फिर सुबह होगी, 1958).

जो गलियां और शहर उनसे परिचित हैं मुझे उन शहरों की गलियों में रहने और चलने का सौभाग्य मिला. मैंने उन समानांतर सड़कों को देखा है जो इस बात की यादों को दर्शाती हैं कि एक गोल-मटोल गाल वाला बच्चा पेशावर में दबगरी गेट के घरों में टेबल से खाने के लिए कुछ छीनने के लिए भाग रहा है.

जैसा कि मधु जैन की पुस्तक 'The Kapoors: The First Family of Indian Cinema' में बताया गया है कि मुर्री के मॉल रोड पर लिंटोट कैफे की टेबल इस बात की गवाह रही हैं कि केचप में डूबी चिप्स की प्लेटों पर राज कपूर ने कई बार अटैक किया है. इसके अलावा मैंने चेंबूर में आरके स्टूडियो के गेट को बड़े ही आदर-सम्मान से देखा है.

हिना (सीमा पार लव स्टोरी) को भले ही राज कपूर कभी भी पूरा नहीं कर पाए; लेकिन उनका परिवार हर दिन सीमा पार प्यार (क्रॉस बॉर्डर लव) पर खरा उतरता था. मधु जैन की किताब में राज कपूर के टीचर ने कपूर परिवार के बारे में कहा है कि "एक पठान मुस्लिम और हिंदू दोनों होता है, लेकिन वह उनमें से कोई भी नहीं है- वह सिर्फ और सिर्फ एक पठान है." फैली हुई सीमाओं और व्याख्याओं को पार करते हुए कपूर बस कपूर थे.
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एक अनोखा सितारा जिसमें गहराई तक मौजूद था आम आदमी

राज कपूर की फिल्मोग्राफी एक टाइम कैप्सूल है, जो हमारे बारे में एक कहानी बताती है- एक जमाने में कैसे थे, हमने क्या खाया-पिया, हमने क्या पहना, हम कैसे हंसे और रोए, हमने क्या देखा- अगर आप 'फिर सुबह होगी' को देखेंगे तो पाएंगे कि यह फिल्म इस बात से जुड़ी हुई है कि "कुछ ही समय में बीजेपी ने चुनावों में कुछ सीटों से बंपर जीत यानी जीरो से हीरो तक का सफर" कैसे तय किया.

उनकी कृतियां इस बात पर ध्यान देती हैं कि हम किससे प्रेम करते हैं, हमारी प्रेम की भाषा और वे जिन्हें हम कभी प्रेम करने की हिम्मत नहीं कर सकते. मंटो की तुलना करते हुए, मुझे आश्चर्य होता है कि क्या उनकी समाधि में यह सवाल है कि "यहां श्रृष्टि नाथ कपूर हैं, और उनके साथ रिंगमास्टर होने की कला के सभी सीक्रेट्स और मिस्ट्री दफन हैं... टनों मिट्टी के नीचे, वह लेटे हैं, अभी भी सोच रहे हैं कि दोनों में से कौन महान शोमैन है : भगवान या वह."

(अनीला बाबर, वी आर ऑल रेवोल्यूशनरीज़ हियर: मिलिटेरिज्म, पॉलिटिकल इस्लाम एंड जेंडर इन पाकिस्तान (2017) और आगामी संस्मरण ऑन कंज्यूमिंग हिंदी सिनेमा इन रावलपिंडी की लेखिका हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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