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JNU में पुरानी विचारधारा को उखाड़ फेंकने की कोशिश 

मैंने 8 साल जेएनयू मे गुजारे, इसलिए कह सकता हूं कि जो हुआ, वो जेएनयू की परंपरा और उसके डीएनए से मेल नहीं खाता

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जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) से भावनात्मक लगाव होने के कारण छात्रसंघ चुनाव के दौरान हुई धमाचौकड़ी और हिंसा से मन काफी दुखी है. जेएनयू में हिंसा के उदाहरण नहीं मिलते थे. वहां कितनी भी तीखी बहस हो जाए, नोक-झोंक हो जाए, लेकिन बहस लात घूसों में नहीं बदलती थी. वहां एक-दूसरों पर लाठी-डंडे नहीं बरसते थे, न ही वहां एक-दूसरे को 'देख लिए जाने' के वाकये होते थे.

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मैंने आठ साल जेएनयू मे गुजारे हैं, इसलिए ये दावे से कह सकता हूं कि जो हुआ, वो जेएनयू की परंपरा और उसके डीएनए से मेल नहीं खाता. हो सकता है जेएनयू पिछले बीस साल में बदला हो. हो सकता है उसका चरित्र भी अलग हो गया हो. हो सकता है वहां बहस-मुबाहसों का मौसम भी बीत गया हो, पर ऐसा नहीं हो सकता कि जेएनयू युद्धभूमि में बदल जाए.

वो समस्या समाधान के लिए तमंचे और चाकू का प्रयोग करने लगे. सहसा यकीन नहीं होता. मन नहीं मानता. पर आज की तारीख में जो घटना घटी वो सच है. ताजा जानकारी के मुताबिक चुनाव के बाद भी धमकाने का खेल जारी है.

ये भी सच है कि जेएनयू 2014 के बाद से एक किले में तब्दील हो गया है. उस पर कब्जे की तैयारी है. कई हमले हो चुके हैं. जंग में चूंकि सब जायज है, इसलिए जेएनयू पर कब्जे की लड़ाई में सबसे पहले उसकी छवि को पूरी तरह से ध्वस्त करने का काम किया गया.

2016 में अचानक एक वीडियो तथाकथित राष्ट्रवादी चैनलों पर टपक पड़ा. जिसमें कुछ आवाज सुनाई पड़ती है कि भारत तेरे टुकड़े होंगे, हमें चाहिए आजादी. फिर शुरू हुआ जेएनयू को देशद्रोहियों का अड्डा घोषित करने की कोशिश.

कन्हैया कुमार और उमर खालिद जैसे छात्रों को 'देशद्रोही' और 'देश के टुकड़े करने' वाला ब्रांड कर दिया गया. टीवी चैनलों पर टुकड़े-टुकड़े गैंग का आविष्कार किया गया. पूरे देश में इस बहाने राष्ट्रवाद बनाम देशद्रोही की बहस को जन्म दिया गया. जो बीजेपी और आरएसएस की विचारधारा से सहमत नहीं थे, हर ऐसे व्यक्ति या संस्थान को आतंकवादियों का समर्थक ठहरा दिया गया.

मैंने 8 साल जेएनयू मे गुजारे, इसलिए  कह सकता हूं कि जो हुआ, वो जेएनयू की परंपरा और उसके डीएनए से मेल नहीं खाता
कन्हैया कुमार और उमर खालिद जैसे छात्रों को “देशद्रोही” और “देश के टुकड़े करने” वाला ब्रांड कर दिया गया.
(फोटो: AP)
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क्या कन्हैया के खिलाफ साजिश रची गई?

कन्हैया कुमार को जेल हो गई. उसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अदालत में जाते हुए पीटा गया. पुलिस चुपचाप तमाशा देखती रही. पटियाला हाउस कोर्ट के बाहर वामपंथी विचारधारा के लोगों पर लात-जूते चलाए गए. महिला प्रोफेसरों को भी नहीं बख्‍शा गया. बीजेपी के एक विधायक ओपी शर्मा कैमरे पर मारपीट करते देखे गए. मारपीट करने वाले वकील खुलेआम धमकी देते रहे, पर सत्ता खामोश रही. संविधान शर्मसार होता रहा.

दिलचस्प बात ये है कि 900 से ज्यादा दिन हो गए, पर आज तक जेएनयू मामले में कन्हैया कुमार और उमर खालिद के खिलाफ चार्जशीट दाखिल नहीं हुई है, जबकि कहा जा रहा था कि इनके खिलाफ पक्के सबूत हैं. तो क्या हुआ? सबूत थे नहीं या फिर पूरा वितंडा जान-बूझकर खड़ा किया गया था?

मोदी जी की सरकार पिछले तीस साल की सबसे मजबूत सरकार है. सरकारी एजेंसी ये नहीं कर सकती कि वो हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे और देश तोड़ने वाले दनदनाते घूमते रहे. लिहाजा कुछ न कुछ झोल है.

ये झोल दरअसल विचारधारा का है? जेएनयू अपनी तमाम कामयाबी के बावजूद वामपंथ का गढ़ है. ये सच है कि आजादी की लड़ाई में गांधी जी का बोलबाला था. वो सबको साथ लेकर चलने के हामी थे. हिंदू हो या मुसलमान, सिक्ख हो या ईसाई, सब को आजादी की मुख्यधारा में लाने का काम गांधी जी ने किया. उस वक्त कांग्रेस वो जहाज था, जिस पर सब सवार थे. चाहे वो लेफ्ट हो या राइट. समाजवादी भी थे और हिंदूवादी भी.

सिर्फ एक जमात थी, जो गांधी और कांग्रेस से अलहदा थी, वो थी आरएसएस यानी हिन्दुत्ववादी ताकत. वो ये मानती थी की कांग्रेस का आंदोलन भारतीय सभ्यता और संस्कृति में रचा बसा नहीं है. वो पश्चिम से प्रभावित है. उसका आजादी, देश, राष्ट्र का सारा चिंतन विदेशी है. इससे आजादी मिलने के बाद भी भला नहीं होगा. वो अपने रास्ते पर चलता रहा. उसने आजादी की लड़ाई में शिरकत नहीं की. गांधी की हत्या आरएसएस के एक पूर्व स्वयंसेवक नाथूराम गोडसे ने की.

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गांधी की हत्या से संघ को बहुत नुकसान हुआ

गांधी की हत्या से संघ को बहुत नुकसान हुआ. उसको देश की मुख्यधारा में जगह बनाने के लिए तकरीबन दो दशक से ज्यादा लग गया. इस दौरान देश गांधीवादी सोच से आगे निकल कर वामपंथ की सोच में अटक गया. विचार के सारे प्रतिष्ठान पर वामपंथ का कब्जा था. भले ही उनकी सरकार सिर्फ बंगाल या केरल या त्रिपुरा तक ही सीमित रही, पर उनका वैचारिक प्रभाव जबरदस्त था. एक समय में इंदिरा गांधी तक उनके असर में थीं.

मैंने 8 साल जेएनयू मे गुजारे, इसलिए  कह सकता हूं कि जो हुआ, वो जेएनयू की परंपरा और उसके डीएनए से मेल नहीं खाता
आरएसएस सिर्फ एक संगठन ही नहीं है, वो एक वैचारिक मुहिम है जो देश को बुनियादी तौर पर बदलने का सपना लेकर चल रहा है
(फोटो: Liju Joseph/The Quint)

अस्सी के दशक तक वामपंथ का असर कम होने लगा. नब्बे में देश ने पूरी तरह से पूंजीवाद को अपना लिया. फिर भी बौद्धिक संस्थानों पर वामपंथ की पकड़ कमजोर नहीं हुई. वो वहां पहले की तरह ही जमे रहे. इस दौरान कांग्रेस कमजोर हुई, आरएसएस मजबूत होता गया.

आरएसएस सिर्फ एक संगठन ही नहीं है, वो एक वैचारिक मुहिम है, जो देश को बुनियादी तौर पर बदलने का सपना लेकर चल रहा है. वो सत्ता और समाज के हर कोने को अपनी आगोश में समेटना चाहता है. उसे अपने हिसाब से बदलना चाहता है.

इस बिंदु पर उनकी लड़ाई सीधे वामपंथ से है. सत्ता के स्तर पर नहीं, वहां तो वामपंथ पहले से ही पस्त है. पर एक विचार के स्तर पर आज भी वो जीवित है और भारत का बौद्धिक वर्ग उसके प्रभाव में है. वामपंथी सोच के लोग आज भी विश्वविद्यालयों, कालेजों और अखबारों में पूरी तरह से डटे हैं. टीवी में जरूर एक तरह की विजय हिंदुत्व ने पा ली है, पर अखबार पहले की तरह ही है.

खासतौर पर शक्तिशाली अंग्रेजी के अखबार. विचार के स्तर पर आरएसएस को सबसे ज्‍यादा चुनौती इस वर्ग से मिल रही है. जेएनयू वामपंथी विचारधारा का सबसे बड़ा केंद्र है. आरएसएस ये जानता है कि उसके वैचारिक वर्चस्व के लिए वामपंथ की निर्णायक हार जरूरी है. और उसके लिए उसके सबसे बड़े किले को ध्वस्त करना आवश्यक है.

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JNU में ये लड़ाई सिर्फ छात्रों की लड़ाई नहीं है

मुझे याद है, जब मैं अस्सी के दशक में यूनिवर्सिटी में आया था, तब ये अपने में स्वर्ग जैसा था. मेरे जैसे छोटे शहर के लड़के के लिए जेएनयू जैसी जगह पर एडमिशन एक सपने का सच होना था. इस यूनिवर्सिटी की ये खूबसूरती थी की वो ये संदेश देती थी कि अगर प्रतिभा है तो सारा आकाश तुम्हारा है.

जेएनयू ने ये सिखाया कि चाहे वो बड़ा मंत्री हो या फिर दुनिया का सबसे बड़ा विद्वान, उससे सवाल पूछने का हक सबको है और उसे इस कसौटी से होकर गुजरना ही होगा. हो सकता है आगे चल कर जेएनयू की ये सीख यानी सवाल पूछने और निर्भीकतापूर्वक अपनी बात रखने की आदत का मुझे खमियाजा भी भुगतना पड़ा हो पर इसने मुझे सिखाया कि अगर लोकतंत्र है तो फि बहस भी होगी और सवाल भी होंगे.

आज जेएनयू में नई विचारधारा को स्थापित करने और पुरानी को उखाड़ फेंकने की कोशिश के बीच वो पूरी संस्कृति खत्म हो गई है. पिछले दिनों राष्ट्रवाद के नाम पर जिस तरह से कन्हैया कुमार पर हमले हुए वो सवाल पूछने के कल्चर को हमेशा के लिये जमींदोज करने का प्रयास है.

वामपंथ का मैं कभी भी समर्थक नहीं रहा. पर जेएनयू का होने की वजह से हमेशा से मुझे लेफ़्टिस्ट कहा गया. पहले मैं प्रतिकार भी करता था अब वो भी नहीं. वामपंथ का सत्ता परिवर्तन के लिए हिंसा को जायज ठहराने की कला मुझे कभी पसंद नहीं आई. कई बार मुझे वामपंथ ने अपने साथ मिलाने की कोशिश भी की. लेकिन मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि वामपंथ की वजह से ही जेएनयू हिंदुस्तान का सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालय बना.

मैंने 8 साल जेएनयू मे गुजारे, इसलिए  कह सकता हूं कि जो हुआ, वो जेएनयू की परंपरा और उसके डीएनए से मेल नहीं खाता
जेएनयू का होने की वजह से हमेशा से मुझे लेफ़्टिस्ट कहा गया
(फोटो: Wikimedia Commons) 

जेएनयू का होने पर आज भी मुझे गर्व है. यहां पढ़ने की वजह से दुनिया में सम्मान की नजर से देखा जाता हूं. लेकिन आरएसएस के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने कैम्पस में कोहराम मचा रखा है. अब जेएनयू को एंटी नेशनल घोषित कर दिया गया है. किसी संस्थान के साथ इससे बुरा नहीं हो सकता. आरएसएस ने ये सब जानते बूझते किया है. तर्क साफ है. हम अगर छात्रों के वोट से नहीं जीत सकते, तो बदनाम तो कर ही सकते हैं. ये मिथ्या प्रचार कारगर है. जेएनयू को हिंदुत्व न अपनाने की सजा मिली है. वामपंथ के साथ दोस्ती निभाने की सजा दी गई है.

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मैं जेएनयू की बर्बादी को सह लेता, अगर आरएसएस पिछले साढ़े चार साल में कम से कम एक ऐसा उच्च शिक्षण संस्थान बना पाता, जहां अपने बच्चों को भेजने पर माता-पिता गर्व की अनुभूति करते.

मैंने ये सवाल एक वरिष्‍ठ आरएसएस के नेता से पूछा, वो जवाब नहीं दे पाए. हालत तो ये है कि मदन मोहन मालवीय के बनाए और नाम में हिंदू लगे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का भी कबाड़ा हो चुका है. वहां की छात्राओं को सड़क पर उतरना पड़ा. उनके साथ भी हिंसा की गई. उन छात्राओं को भी बदनाम किया गया.

आरएसएस से मेरा ये सवाल है कि जो विदेशी विचारों से बने थे, उन्होंने तो जेएनयू जैसा प्रतिष्ठान दे दिया, जिसे मोदी जी की सरकार के समय में भी हिंदुस्तान का सबसे बेहतरीन शिक्षण संस्‍थान माना गया, आप क्यों नहीं एक भी ऐसा शिक्षण संस्थान दे पाये? आपने तो मदनमोहन मालवीय के सपनों से बने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की भी हालत खराब कर दी? क्यों? कुछ तो कारण होगा.

(लेखक आम आदमी पार्टी के पूर्व प्रवक्‍ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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