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भारत के पड़ोसी देश अब भी इस 'बिग ब्रदर' से सावधान- श्रीलंका है मिसाल

भारत अभी भी श्रीलंका में उन सामाजिक-राजनीतिक भावनाओं को लेकर अनजान रहा है, जिसका इतिहास 2000 वर्ष पुराना है.

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भारत के राजनयिक और नौकरशाह पड़ोसी देशों में, जाहिर तौर पर पाकिस्तान (Paksitan) को छोड़कर, अपने समकक्षों के साथ कई बार अपने सबकुछ या कुछ नहीं वाले रवैये की वजह से अव्यवस्थित नजर आते हैं. ये श्रीलंका में तमिल राजनीतिज्ञों और यहां तक कि भारत के साथ मैत्रीपूर्ण (India-Sri Lanka Relation) रहने वाले राजनीतिक दलों के मामले में भी सही है, जो किसी भी देश में या किसी भी समय में रहे.

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इसकी वजह ढूंढने के लिए दूर नहीं जाना होगा. जाहिर तौर पर अपने छोटे देश होने की मानसिकता से प्रभावित सभी तरह के पड़ोसी हर मोड़ पर भारत के ऊपर बड़े देश होने के अहंकार का आरोप लगाते हैं.

असलियत में सच्चाई इसी के बीच छुपी हुई है, लेकिन भारत की नीतियां बनाने वालों के पास हमेशा से ही पहले से बहुत कुछ है और वो इस दुविधा को दूर नहीं कर पाते जिनसे इन बातों को एक ही बार में खत्म कर सकें. इसका नतीजा ये है कि वो स्थिरता से तात्कालिक समस्याओं का तात्कालिक हल ढूंढने में ही लगे रहते हैं.

गलत धारणाओं का जाल

हालांकि इन समस्याओं की और इन पर मिली प्रतिक्रियाओं की तात्कालिकता सालों या दशकों तक जा सकती हैं और वहीं ठहरी रह सकती हैं, जहां से ये शुरू हुई थीं. मछली पकड़ने को लेकर भारत का श्रीलंका के साथ विवाद और नेपाल जैसे छोटे से देश के साथ भारत का सीमा विवाद, ये ऐसे मामले हैं जो महत्वपूर्ण हैं. वहीं पड़ोसी देशों से जो स्टेकहोल्डर्स हैं, वो गलत धारणाओं के जाल में फंसे हुए हैं.

अगर IPKF के शामिल होने को न भी देखा जाए, तो श्रीलंका के नस्लीय मामलों में भारत का शामिल होना, इसे एक परफेक्ट केस स्टडी बनाता है. तब भी और अभी भी तमिल चाहते हैं कि भारत इसमें शामिल रहे, लेकिन सिर्फ एक मुखपत्र के तौर पर इससे ज्यादा कुछ नहीं.

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राजपक्षे के नेतृत्व वाली श्रीलंकाई सरकार में देश को काफी मुश्किलें उठानी पड़ीं और इसके लिए सरकार ने कई बाहरी तरीके ढूंढने की कोशिश कि जैसे चीन से मदद लेना. चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक व्यवहारिक वीटो पावर भी है जिससे मदद मिली.

आज जब श्रीलंका मुश्किल से ही गुजारा कर पा रहा है और जिसके लिए उसे भारत को धन्यवाद देना चाहिए, ज्यादातर श्रीलंकाई भारत को धन्यवाद नहीं दे सकते.

ऐसे लोग भी हैं जो ये दावा कर रहे हैं कि भारत ने जो आपातकालीन सहायता दी, वह पहले से तैयार की गई एक शर्त पर दी गई है. और ये शर्त, Trincomalee oil टैंक फार्म्स, समुद्री सुरक्षा और तमिल नॉर्थ में आइलैंड बेस्ड गैर पारंपरिक एनर्जी प्रोजेक्ट्स से जुड़ी है. तमिल प्रवासियों का दावा है कि भारत ने ये सबकुछ राजपक्षे परिवार को बचाने के लिए किया है, जिनके हाथों पर तमिलों का खून लगा है.

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भारत का राजनीतिक वास्तविकता से नजरें चुराना

नई दिल्ली भी इस आरोप का हिस्सा बनने से बच नहीं सकती. एक बार फिर श्रीलंका एक अच्छी केस स्टडी है. दशकों पहले नस्लीय संकट के समय भारत तेजी से संभाषी नौकरशाहों की तरफ गया जैसे कि दिवंगत जी पार्थसारथी (late G Parthasarathy, Sr).

जब साल 1983 में हुई सामूहिक हत्या के तमिल पीड़ित समुद्र के रास्ते तमिलनाडु में शरण लेने के लिए आने लगे. नई दिल्ली ने ये किया और इसके बाद भी बहुत कुछ किया गया, बिना दोनों ही तरफ देश के नस्लीय बंटवारे की सामाजिक—राजनीतिक वास्तविकता का अध्ययन किए. तब उस सांस्कृतिक बोझ की जटिलताओं को भी नहीं समझा गया जिसने समकालीन समझ को प्रभावित किया.

जैसा कि ‘Five Blind Men of Hindoostan and the Elephant’ की कहानी में कहा गया है, नई दिल्ली ने वो प्रस्तुत किया जो आवश्यक रूप से साल 1987 में संघीय समाधान का भारतीय मॉडल था, जो सिर्फ स्वतंत्रता के बाद की भारतीय स्थितियों के मुताबिक था, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के युग में.

सांस्थानिक रूप से भारत इसे स्वीकार करने, इसे मानने और समझने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं था कि ऐसे दूसरी समस्याएं हो सकती हैं जिनके लिए दूसरी तरह के समाधान की जरूरत होगी.

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भारत कम से कम तब तक और यहां तक कि अभी भी कभी-कभी श्रीलंका में उन सामाजिक-राजनीतिक अंतर्भावों को लेकर अनजान रहा है, जिसका इतिहास 2000 वर्ष पुराना है.

इतिहास के मुताबिक, जिसे कई बार अनदेखा किया जाता है. एक युवा सिंहला राजा Dutugamunu ने तमिल शासक Ellara को पहले से तय एक द्वंद युद्ध में मार दिया था. ऐसा माना जाता है कि हजारों साल बाद दक्षिण भारतीय शासक राजाराजा चोला ने इसका बदला लिया और LTTE ने चोला के ही टाइगर स्टैंडर्ड को चिन्ह के तौर पर अपनाया. ये हजारों सालों से चला आ रहा है. इन सभी घटनाओं को अपमान या बदले के तौर पर देखा जाता था.

बांग्लादेश युद्ध और सिक्किम विलय के बाद पड़ोसी देशों में असुरक्षा

घरेलू मामलों में भारतीय हस्तक्षेप की बात करीब—करीब हर पड़ोसी देश ने अनुभव की है. साल 1971 के बांग्लादेश युद्ध और साल 1975 में सिक्किम के विलय ने दूसरे छोटे देशों को इस नतीजे पर पहुंचा दिया कि वह अगला टार्गेट हो सकते हैं. इसकी कोई वजह नहीं दी गई. राजनीतिक—कूटनीतिक मायनों में भारत के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसने इस असुरक्षा की भावना को कम करने के लिए तब से अब तक ज्यादा कुछ किया है.

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हालांकि ऐसे ज्यादातर विचार अगर पूरी तरह गायब नहीं हुए, तो फीके जरूर पड़ गए हैं. लेकिन इसे लेकर भारत की तरफ से कोई खास प्रयास नहीं किए गए. एक दूसरा मुद्दा भी और ये कि भारत के पास अलग अलग देशों में शासन को लेकर कुछ फेवरेट्स हैं और कुछ प्रतिकूल नेता और पार्टियां भी हैं.

ज्यादा पुरानी बात नहीं है. अपने देश में अपनी साख गिरने के बाद बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया ये मान गई थीं कि भारत उन्हें सत्ता में नहीं देखना चाहता. अब उस राजनीतिक खालीपन को कौन भरेगा, जब भारत के साथ दोस्ताना रवैया रखने वाली प्रधानमंत्री शेख हसीना का कार्यकाल समाप्त होगा? क्या कोई इसका अनुमान लगा सकता है?

मालदीव में जब पूर्व राष्ट्रपति अबदुल्ला यामीन सत्ता में थे, तब वो भी ये मानते थे कि भारत उन्हें सत्ता में नहीं देखना चाहता है. साल 2018 के राष्ट्रपति चुनाव में सत्ता खोने के बाद वो उग्र इंडिया आउट कैम्पेन चलाते रहे जब तक कि उनपर प्रतिबंध नहीं लगा दिया गया. वो बिना किसी सबूत के ये मानते रहे कि 2024 के चुनाव में भारत उनकी जीत के खिलाफ काम कर सकता है.

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अगर यामीन ये मानते हैं कि उनकी सरकार की बीजिंग से नजदीकी एक कांटा थी, तो उन्हें अब दोनों देशों के पड़ोसी श्रीलंका की तरफ देखना चाहिए, जहां भारत को, चीन जाने वाले संवेदनशील Hambantota project को लेकर कोई समस्या नहीं है.

जाहिर तौर पर यहां पाकिस्तान एक अकेला मामला है. लेकिन नेपाल और भूटान में भी भारत विरोधी समूह हैं, जिनके लिए ये राजनीतिक और चुनावी जरूरत है.

दुनिया का नजरिया भी भारत के प्रति बदला, लेकिन क्या यह स्थाई है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में आश्चर्यजनक तरीके से भारत उस नकारात्मक छवि से बाहर निकलकर या काफी हद तक उससे किनारा करते हुए सामने आया है, जो पड़ोसी देशों में बनी हुई है. इस छवि को उन पुराने हिंदुत्व बुद्धिजीवियों ने आकार दिया था, जो सभी चीजों से ऊपर भारत के प्रभुत्व, हिंदुत्ववाद और संस्कृत भाषा में यकीन करते थे.

मोदी की ‘Neighbourhood First' (पड़ोसी पहले) पॉलिसी कोविड-19 महामारी से पहले तक सिर्फ सैद्धांतिक ही लगती थी. लेकिन महामारी के दौरान भारत ने दिखाया कि वह जो कहता है, वो करता है.

अब श्रीलंका को आर्थिक सहायता पहुंचाने के साथ भारत पड़ोसी देशों के लिए पारंपरिक भारतीय विचार जो संस्कृत में वसुधैव कुटंबकम और तमिल भाषा में ‘Yadhum oore, yavarum kelir’ का विचार है, इसके संदेश को भी पहुंचा रहा है. इन दोनों ही विचारों का अर्थ है कि पूरा विश्व एक दूसरे पर निर्भर है.

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कुछ बेहतर होने के लिए ही दुनिया का नजरिया भी भारत के प्रति बदला है, लेकिन ये काफी नहीं है. धारणाओं और एक समझ बना लेने का बोझ अभी भी है.

जैसा कि संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि TS Tirumurti ने हाल में अपने डच समकक्ष से रूस-यूक्रेन संकट पर भारत के रवैये को लेकर पश्चिम की राय के संदर्भ में कहा, ये सभी कुछ बहुत कृपाभाव से भरा हुआ है, लेकिन फिर भी ये यूरोप की औपनिवेशिक मानसिकता को दिखाता है.

भारत की खुद की छवि में तेजी से हुआ ये बदलाव कई लोगों और पड़ोसी देशों को हैरानी में डाल रहा है और वो इससे प्रेरित भी हो रहे हैं. लेकिन कई दूसरे भी हैं, जो इन्हीं वजहों से भारत से डरते भी हैं. भारत का आकार उन्हें डरा रहा है. ऐसी धारणाएं उनकी अपनी वजहों से जायज भी हैं और ये नई दिल्ली की प्रगति की धारा से एक पड़ोसी देश से ग्लोबल प्लेयर के तौर पर भारत के उभरने की वजह से है. दक्षिण एशियाई मानसिकता को देखें तो वो इस क्षेत्रीय सफलता की कहानी का हिस्सा बनने में सक्षम नहीं है या इसका भागीदार बनना नहीं चाहते.

उनके लिए ये किसी गरीब रिश्तेदार का अपमान करने जैसा है, चाहे वो छीनकर हो, नकारने से हो या उदारता से.

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नेहरू के अहस्तक्षेप और इंदिरा के 'बांग्लादेश युद्ध' के बीच फंसा भारत

स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में पड़ोसी देशों को लेकर नेहरू की सीधे हस्तक्षेप न करने की नीति के बाद इंदिरा गांधी ने ठीक इसके उलट नीति अपनाई और इसके बाद हुए बांग्लादेश युद्ध ने पड़ोसी देशों को भ्रमित किया.

विदेशी और रक्षा नीतियों के मामलों में पाकिस्तान और चीन मुख्य रूप से भारत का जुनून रहे हैं. इसके बाद अब दुनिया के एक बड़े हिस्से ने भी इसका अनुसरण किया और अपने व्यवहार में भी इसे शामिल किया. लेकिन छोटे पड़ोसी देशों के लिए भारत अभी भी उनकी एकमात्र व्यस्तता और चिंता है जैसा कि पहले भी सदियों से होता आया था.

वो ऐसा मानते हैं कि वो भारत के बारे में, इसकी विदेश नीति के बारे में और रक्षा विशेषाधिकारों के बारे में ज्यादा जानते हैं. खासतौर से उनके अपने राष्ट्र की तरह, जितना कि कई राष्ट्रीय राजधानियों में भारतीय राजदूत या साउथ ब्लॉक में चीनी उच्चाधिकारी भी नहीं समझते.
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अल्पसंख्यकों का सवाल

आज सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का भारत के अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार पड़ोसी देशों में एक चिंता का विषय बना हुआ है. सार्क देशों के 8 में से 4 देश इस्लामिक हैं. इनमें से तीन अन्य जिसमें भारत, श्रीलंका और नेपाल शामिल हैं, इन देशों में मुसलमानों की आबादी अच्छी संख्या में है. ये इसाई धर्म के साथ भी है और ऐसा कई जगहों पर है, लेकिन सभी दक्षिण एशियाई देशों में नहीं, जिसमें भारत भी है.

दूरस्थ पश्चिमी देशों की तरह, पड़ोसी देशों की भी ऐसी समझ है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के तौर पर भारत को अपने अल्पसंख्यकों के साथ ईमानदार और निष्पक्ष होना चाहिए. लोगों की ये राय भी है कि अपने अल्पसंख्यकों को असुरक्षित बनाकर नई दिल्ली ने सिंहला बहुसंख्यक श्रीलंका और नेपाल में मधेशी को लेकर ठीक व्यवहार करने की बात कहने का नैतिक अधिकार खो दिया है.

जब भारत ने, यामीन के मालदीव में लोकतंत्र के खत्म होने की बात की तो वहां के एक वरिष्ठ मंत्री ने नई दिल्ली को याद दिलाया कि कैसे वो भारत की कश्मीर समस्या पर कुछ भी बोलने से हमेशा दूर रहे हैं. ठीक इसी वक्त श्रीलंका जैसे देशों में ऐसे लोग भी हैं, जो अपनी सरकारों से चाहते हैं कि वो अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर पश्चिम के कड़े आदेशों का विरोध करने के लिए भारत के कदमों का अनुसरण करें.
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इन सभी के जरिए ज्यादातर दक्षिण एशियाई देशों में अगर इनमें अफगानिस्तान को छोड़ दिया जाए, तो इन सभी जगहों पर क्रियाशील लोकतंत्र है. थोड़ा पीछे जाकर देखें तो साल 1931 में श्रीलंका, एशिया में सबसे पुराना चुनावी लोकतंत्र भी था. मीडिया में चल रही सभी बहसों के बावजूद इन सभी देशों में लोकतंत्र व्यापक और प्रभावी रूप से है. श्रीलंका में राजपक्षे हों, मालदीव में यामीन या कहीं भी दूसरे तानाशाह, इन सभी ने चुनावों के जरिए जनता ने जो व्यक्त किया, उसकी आवाज को सुना है और उसके सामने झुके हैं.

नई दिल्ली को शीत युद्ध युग के समय की नीतियों से सीख लेने की जरूरत

लेकिन इन सबका एक दूसरा पक्ष भी है. इन देशों की सरकारें हो सकता है कि अपनी इंडिया पॉलिसी को लागू करने का दबाव बनाएं, फिर एक ऐसा समय आएगा जब वोटर्स सरकारों को बताएंगे कि उनके देशों की इंडिया पॉलिसी क्या होनी चाहिए.

इस संदर्भ में नई दिल्ली को शीत युद्ध युग के डायनेमिक्स से सीख लेने की जरूरत है, जब अमेरिका ने शाह के ईरान और मार्को के फिलीपींस में शासन कर रहे मित्र राष्ट्रों को सफलतापूर्वक मैनेज कर लिया था.
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सोवियत यूनियन का पतन सिर्फ इसलिए नहीं हुआ किगोर्बाचेव के पेरेस्त्रोइका और ग्लास्नोस्त आंदोलन मॉस्को के पूर्व निर्धारित पतन की वजह बने, बल्कि इसलिए भी क्योंकि, कभी एकीकृत और संगठित रहे देशों ने विद्रोह कर दिया. आज दशकों बाद इसी की वजह से यूक्रेन युद्ध की स्थिति पैदा हुई है.

एक बार फिर ये भारत के लिए सबक है. ये सबक कि भारत को बाकी की दुनिया से पहले मदद के लिए आए अपने पड़ोसियों को साथ लेकर चलना होगा, राष्ट्र को भी और इसके साथ वहां के लोगों को भी.

(लेखका चेन्नई में स्थित एक नीति विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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