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OIC मोमेंट भारत के लिए न कामयाबी, न ही नाकामी

यह महत्वपूर्ण नहीं है कि OIC क्या कहता है. इस समय में इसके रुख से एक सोच बनती है जो नीतियों को प्रभावित करती है.

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ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (ओआईसी) के विदेश मंत्री समूह (सीएफएम) के शिखर सम्मेलन में विशिष्ट अतिथि के तौर पर निमंत्रण को किस रूप में देखा जाए. यह पूर्ण अधिवेशन अबू धाबी में 1-2 मार्च को हुआ.

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यह महत्वपूर्ण नहीं है कि ओआईसी क्या कहता और करता है. लेकिन आज के सूचना युग में इसके रुख से एक सोच बनती है, जो आखिरकार नीतियों को प्रभावित करती है. आखिरकार हमें वह निमंत्रण मिला, जिसका हमें ओआईसी के राबट शिखर सम्मेलन 1969 से इंतजार था.

अबू धाबी घोषणा में भारत के लिए कोई महत्वपूर्ण संदर्भ नहीं थे, लेकिन इसने अलग से भारत की आलोचना का प्रस्ताव पारित किया. भारत को निमंत्रण मिलने की वजह से पाकिस्तान ने शिखर सम्मेलन का बहिष्कार किया.

भारत के लिए यह कोई महत्वपूर्ण जीत नहीं है, जैसा कि आधिकारिक तौर पर चर्चा की जा रही है, लेकिन भविष्य के नजरिए से यह महत्वपूर्ण घटना है.

ओआईसी न्योते का नतीजा है मोदी-प्रिंस मुलाकात

आईओसी सीएफएम की बैठक में हमें अबू धाबी के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन जाएद अल नाह्यान (इस वजह से जो यूएई के शासक हैं) के सौजन्य से आमंत्रण मिला, जो अपने देश की विदेश नीति के निर्धारक हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त 2015 में और फिर 2018 में संयुक्त अरब अमीरात का दौरा कर क्राउन प्रिंस के साथ खास संबंध विकसित किया है.

मोदी सरकार के कार्यकाल में क्राउन प्रिंस के भी दो दौरे हुए हैं. दूसरा दौरा जनवरी 2017 में गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में हुआ था.

अबू धाबी इन्वेस्टमेंट अथॉरिटी ने एचडीएफसी की किफायती मकान योजना में 1 बिलियन डॉलर और एक अन्य भारतीय योजना नेशनल इन्वेस्टमेंट एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड में 1 बिलियन डॉलर का निवेश किया है. महाराष्ट्र के रत्नागिरि‍ जिले में बनी रिफायनरी में अबू धाबी नेशनल ऑयल कम्पनी और सऊदी जायंट आरमाको 50 फीसदी हिस्सेदारी के लिए तैयार हो गये हैं. यह सब कुछ पिछले साल या उसके आसपास हुआ है.

इसमें संदेह नहीं कि इन मुद्दों पर शेख को सऊदी अरब से बात करनी पड़ी होगी, जहां ओआईसी का मुख्यालय है. यहां भी मोदी की कूटनीति ने अच्छा काम कर दिखाया है. इसका प्रमाण है पिछले महीने क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का नई दिल्ली दौरा.

इसलिए इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि अबू धाबी घोषणा जम्मू-कश्मीर का जिक्र करने में नाकाम रही. इसने दूसरे गरम इस्लामिक मुद्दों को अपने रिकॉर्ड का हिस्सा बनाया, जिनमें फिलि‍स्तीन शामिल है, जो गैर इस्लामिक देश के लिए महत्वपूर्ण है. इसने सीरिया और यमन में यूएई-सऊदी नीति का समर्थन किया और हउथी मिलिशिया का विरोध किया.

दक्षिण-पूर्व एशिया और मध्य एशिया में स्थिरता और मध्य-पूर्व और उत्तर अफ्रीका के साथ-साथ अफ्रीका महादेश के दूसरे देशों में इस्लामिक देशों के अतिवाद पर इसने परोक्ष रूप से यह कहते हुए टिप्पणी की कि ‘परिस्थिति को सामान्य बनाने की आवश्यकता’ है. अफगानिस्तान में स्थिरता और स्थायी शांति बहाल करने की जरूरत पर जोर दिया जाना भी अच्छी बात रही.

हालांकि क्षेत्र में “तनाव को कम करने के लिए नेकनीयती के प्रतीक के तौर पर” भारतीय पायलट को वापस करने के लिए इमरान खान की तारीफ हुई, लेकिन कश्मीर में भारत की कार्रवाई की निन्दा इस घोषणा में नहीं हुई. घोषणा के अंतिम दस्तावेज में दो आपत्तियां थीं- ईरान और पाकिस्तान.

इसके साथ ही एक प्रस्ताव पारित हुआ, जिसमें ‘कश्मीर के लोगों के समर्थन में उचित कारण से अटूट समर्थन’ व्यक्त किया गया और हाल में भारतीय ‘आतंकवाद’ की घटनाओं की निन्दा की गयी. प्रस्ताव में भारतीय सुरक्षा बलों की ओर से मानवाधिकार के हनन की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जतायी गयी और कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सिफारिशें लागू करने का आह्वान किया गया.

दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा के अन्य प्रस्ताव में इमरान खान की ओर से भारत से बातचीत के प्रस्ताव और भारतीय पायलट को सुपुर्द करने का स्वागत किया गया. इसमें पाकिस्तान में आतंकी कैम्पों पर भारत के एयर स्ट्राइक पर चिंता व्यक्त की गयी.

आमंत्रण को स्वीकार करना शासकीय जरूरत

वास्तव में यह विडम्बना है कि बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार ने एक ऐसे संगठन के विदेश मंत्रियों के समूह की बैठक में निमंत्रण को स्वीकार किया, जो खुद को ‘मुस्लिम दुनिया की सामूहिक आवाज’ बताता है. एक ऐसी पार्टी के लिए, जिसमें भारतीय मुसलमानों के लिए चिंता या सहानुभूति कम हो, बेशक यह शासकीय जरूरत ही है.

57 देशों का मजबूत इस्लामिक सहयोग संगठन विशाल संगठन है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

इसके अलावा निमंत्रण को अस्वीकार करने पर इस्लामाबाद को एक मुफ्त का मौका हाथ लग जाता. राबाट की विफलता के समय से ही ऐसा होता रहा है जब फखरुद्दीन अली अहमद और बाद में राष्ट्रपति ने मोरक्को के इस शहर में प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया था और केवल पाकिस्तान के दबाव पर ओआईसी की बैठक से उन्हें बाहर कर दिया गया था.

नतीजा ये हुआ कि इस्लामाबाद नियमित रूप से इस शिखर सम्मेलन का इस्तेमाल भारत विरोधी प्रोपेगेंडा में करता रहा है. तकरीबन हर शिखर बैठक में जम्मू-कश्मीर में भारतीय कार्रवाई की आलोचना की जाती रही है.

जम्मू-कश्मीर पर ओआईसी सम्पर्क समूह है जो समय-समय पर भारत की आलोचना का प्रस्ताव पारित करता रहता है.

उदाहरण के लिए 26 फरवरी को बालाकोट स्ट्राइक के तुरंत बाद ओआईसी सम्पर्क समूह जेद्दा में मिले और तुरंत इस मुद्दे को दबाने में में जुट गये. बैठक में “हाल में दमन की घटनाएं, भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा निर्दोष कश्मीरी नागरिकों की नृशंस हत्या, बलात्कार और खासकर नाबालिग बच्चियों से बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के लिए” भारत की निन्दा की गयी. ओआईसी के संस्थापक सदस्य देशों की ओर से ओआईसी ने औपचारिक रूप से “पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा पर भारत की ओर से उल्लंघन” की निन्दा की.

सीमा पार एयर स्ट्राइक की तरह ओआईसी का निमंत्रण भी भविष्य के लिए मौका है. ओआईसी की एकजुटता में नयी दिल्ली की ओर से यह सफलता पूर्वक लगायी गयी सेंध है. आगे भी ऐसा होता रहे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि साउथ ब्लॉक डिप्लोमैसी कैसी रहने वाली है क्योंकि इस पर ही कश्मीर के मामले में दुनिया को विश्वास में लेने की भारतीय क्षमता भी निर्भर करेगी.

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. आलेख में दिये गए विचार उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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