कुछ लोग जस्टिस केएम जोसफ को मिली सीनियरिटी से नाराज हैं. वो सुप्रीम कोर्ट के जज बनाए गए हैं. उनके साथ जिन दो जजों की नियुक्ति देश की सबसे बड़ी अदालत के लिए हुई है, जस्टिस जोसफ उनसे जूनियर होंगे. जिस कॉलेजियम ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सिफारिश की थी, उसका मानना है कि उन्हें बाकी दो जजों से सीनियर होना चाहिए क्योंकि उनका नाम इनमें से सबसे पहले सरकार के पास भेजा गया था.
वहीं, सरकार ने सीनियरिटी तय करने के लिए अलग फॉर्मूला अपनाया. उसका कहना है कि इन तीनों जजों में जस्टिस जोसफ के नाम को सबसे आखिर में मंजूरी दी गई, इसलिए उनकी सीनियरिटी बाकी दो जजों से कम होगी. इस मामले को सुप्रीम कोर्ट बनाम सरकार का रंग दिया जा रहा है.
हालांकि लोग भूल गए हैं कि सभी संभावनाओं पर विचार करने के बाद सारे नियमों में उसे लागू करने वाले की पसंद भी शामिल होती है. इस मनमानी की समस्या का शायद ही कोई अपवाद मिले. इस वजह से अक्सर ऐसे नतीजे सामने आते हैं, जिनके बारे में नियम बनाने से पहले कल्पना भी नहीं की गई थी.
इस सीनियरिटी का क्या मतलब?
मैं मिसाल देकर इस बात को स्पष्ट करता हूं. मार्च 2000 के आखिर में एक महिला को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाया गया, जिन्हें मैं जानता था. अप्वाइंटमेंट के वक्त वह स्कूल में पढ़ा रही थीं और स्टूडेंट्स को उनके सेशन के बीच में जाने से नुकसान ना हो, इसलिए उन्होंने वहां मई तक रुकने का फैसला किया. वैसे वह चाहतीं तो स्कूल को तुरंत छोड़कर असिस्टेंट प्रोफेसर का पद ज्वाइन कर सकती थीं.
इस बीच, उनके नए संस्थान में एक और शख्स की नियुक्ति हुई, जो उनसे सात साल जूनियर था. वह बेरोजगार था, इसलिए उसने तत्काल नौकरी ज्वाइन कर ली. उस शख्स ने 2 अप्रैल को ज्वाइन किया और इस वजह से मई में ज्वाइन करने वाली महिला से वह सीनियर हो गया. अफसोस की बात है कि उस शख्स का साल 2006 में देहांत हो गया. अगर वह आज जिंदा होता तो वह महिला की तुलना में सीनियर होता, जबकि वह उनसे सात साल जूनियर था.
सीनियरिटी से कई बार अयोग्य को फायदा
सीनियरिटी का एक मामला विदेश मंत्रालय में जब एक नए विदेश सचिव की नियुक्ति का समय आया, तब मंत्री के पास अधिकारियों के आवेदनों की बाढ़ लग गई. उन्होंने इसका एक आसान तरीका निकाला और उनमें से सबसे सीनियर अफसर को विदेश सचिव नियुक्त करने का फैसला किया. हालांकि, वो अफसर इस पद के योग्य नहीं था. शुक्र की बात है कि उस अफसर का कार्यकाल एक ही साल बचा था. सिर्फ सीनियरिटी को पैमाना बनाने पर अक्सर ऐसे ऊटपटांग नतीजे सामने आते हैं.
प्राइवेट नौकरी में वरिष्ठता नहीं चलती
प्राइवेट सेक्टर में ऐसा नहीं होता. मेरा एक दोस्त 30 साल की उम्र में ही कंज्यूमर गुड्स कंपनी का बॉस बन गया और वह इस पद पर 20 साल तक रहा. कंपनी ने उनके कार्यकाल में खूब तरक्की की. कई अखबारों ने भी कम उम्र के संपादकों की नियुक्ति की, जिनमें से एक आज मंत्री हैं. जब उन्हें संपादक बनाया गया था, तब उनकी उम्र 28 साल थी. वो भी सफल एडिटर साबित हुए.
सीनियरिटी का नियम खारिज हो
मुझे ऐसा कुछ भी लिखा हुआ नहीं मिला, जिसमें सरकारी एजेंसियों में नियुक्ति के लिए सिर्फ सीनियरिटी को पैमाना बताया गया हो. ऐसा लगता है कि दूसरी योग्यताओं के एक जैसा होने पर नियुक्ति का फैसला सीनियरिटी के आधार पर ही करने को ‘नियम’ बना दिया गया है. हालांकि, दिलचस्प बात यह है कि सीनियरिटी इससे भी तय होती है कि एक ही दिन किसकी नियुक्ति सुबह हुई और किसकी दोपहर में.
इसलिए पक्षपात रोकने के अलावा इसका कोई तार्किक आधार नहीं है. इस ‘नियम’ से नियुक्ति करने वाले को निष्पक्षता के साथ फैसला करने में मदद मिलती है, भले ही इसका पैमाना समय हो,योग्यता नहीं.
इस तरह से सीनियरिटी एक ऐसा रूल बन गई, जो बेमतलब है. इसलिए इसे इस आधार पर खारिज किया जाना चाहिए कि जहां हर रूल में अपनी पसंद थोपने की गुंजाइश होती है, वहीं सरकारी नियुक्तियों में सीनियरिटी का रूल लागू करना खतरनाक है क्योंकि इसका पब्लिक पॉलिसी पर बुरा असर पड़ सकता है.
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