निकाय चुनाव के नतीजे से बड़ा मैसेज निकालना चाहिए क्या? शायद नहीं. लेकिन मैसेज अगर दूसरे मैसेज से मेल खाते हों, तो जरूर गौर करना चाहिए.
लोकसभा चुनाव के एक महीने बाद कर्नाटक में शहरी निकायों के चुनाव हुए. नतीजे बताते हैं कि शहरों में कांग्रेस का ही जलवा है और बीजेपी की लहर कब की खत्म हो गई. शहरी निकायों की 1361 सीटों में कांग्रेस को 562 सीटें मिलीं, जबकि इसके सहयोगी जेडी(एस) ने 202 सीटें जीतीं. राज्य के 22 में से सिर्फ दो निकायों में बीजेपी को बहुमत मिला है, बाकी में करारी हार. याद रहे कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राज्य में रिकॉर्ड बनाया था. लेकिन एक महीने में ही इतना बड़ा बदलाव? वोटरों का क्या मैसेज है?
सबसे बड़ा मैसेज है कि नरेंद्र मोदी अजेय हैं, लेकिन अगर वोट उनको चुनने के लिए नहीं हो रहा है, तो उनकी बीजेपी कमजोर भी हो सकती है. ध्यान रहे कि लोकसभा चुनाव मोदी के री-इलेक्शन के नाम पर लड़ा गया था. ऐसे में लोगों ने लोकल फैक्टर को नजरअंदाज किया.
उम्मीदवार कैसा है, उसका ट्रैक रिकॉर्ड कैसा रहा है, क्षेत्र का सामाजिक समीकरण कैसा है- लोकसभा चुनाव में इन सारी बातों को वोटरों ने नजरअंदाज किया. लेकिन जैसे ही मुद्दा बदला, लोगों के वोटिंग प्रिफरेंस पूरी तरह से बदल गए. शायद कर्नाटक के शहरी निकाय के चुनाव में ऐसा ही हुआ होगा.
क्या यह नतीजा एक अपवाद है? शायद नहीं. 2014 के बाद कई नतीजे ऐसे आए हैं, जिनमें बीजेपी कमजोर दिखी है. चाहे वो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और गुजरात का विधानसभा चुनाव हो या फिर2018 में कैराना, फूलपुर, गोरखपुर और अररिया का लोकसभा उपचुनाव हो. जिन चुनाव में डायरेक्ट या इनडायरेक्ट रूप से मोदी कंटेस्ट में नहीं थे, बीजेपी कमजोर दिखी है. कई राज्यों में तो हार भी मिली.
2014 से लेकर 2018 के बीच जितने विधानसभा चुनाव हुए हैं, उनमें बीजेपी को कुल 10.5 करोड़ वोट मिले और पार्टी ने 1178 विधानसभा की सीटें जीतीं. दूसरी तरफ, कांग्रेस को 8.4 करोड़ वोट मिले और उसने 859 सीटें जीतीं. इन चुनावों में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भी शामिल हैं, जहां बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिली थी और कांग्रेस को करारी हार मिली थी. इन आंकड़ों को देखने से ऐसा तो नहीं ही लगता है कि विधानसभा चुनावों में बीजेपी अजेय रही. हां, पार्टी नंबर वन रही, लेकिन कांग्रेस बहुत पीछे नहीं रही. वोटों का अंतर तो मामूली ही है. इसे एकतरफा मुकाबला तो कतई नहीं कहा जा सकता है.
ये आंकड़े भी यही बता रहे हैं कि मोदी प्रीमियम के बिना बीजेपी उतनी मजबूत नहीं है, जितनी दिखती है. ये मोदी प्रीमियम है कि नामुमकिन को मुमकिन कर देता है.
मोदी प्रीमियम क्या चमत्कार कर देता है, इसके नमूने देखिए:
1. 2019 का लोकसभा का चुनाव सही मायने में डेमोक्रेसी के अगले फेज में पहुंचने की कहानी है. बीजेपी जीती, क्योंकि उसी के कार्यकर्ता जमीन पर थे, लोगों के साथ, उनसे संवाद करते हुए. नतीजे के बाद सत्ता का और ज्यादा केंद्रीकरण होना तय माना जा रहा था. लेकिन मोदी प्रीमियम का कमाल देखिए कि उसने सत्ता के केंद्रीकरण पर डेमोक्रेसी की मुहर लगवा दी.
2. बीजेपी की विचारधारा से वो लोग ज्यादा जुड़े, जिनके बारे में आम राय रही है कि उनको इससे नुकसान हो सकता है. अगड़ी जाति की पार्टी मानी जाने वाली बीजेपी को दलितों और ओबीसी का जमकर साथ मिला. वैसे तो ये विरोधाभास दिखता है, लेकिन मोदी प्रीमियम ने अपने तरीके से सुलझा लिया और इसको अपने फेवर में कर लिया.
3. हम जिसको 'रूरल डिस्ट्रेस' कह रहे थे, बेरोजगारी की मार समझ रहे थे, 'कंजंप्शन स्लोडाउन' बता रहे थे, इन सारे मुद्दों को उस तबके ने नजरअंदाज किया, जिनको इससे नुकसान हो सकता था. बीजेपी का वोट शेयर छोटे शहरों और गांवों में ज्यादा बढ़ा. यह भी मोदी प्रीमियम का ही कमाल रहा.
4. जिस लोकलाइजेशन की बात हो रही थी, रिजनल एस्पिरेशन के परवान चढ़ने की बात हो रही थी, इन सबने मिलकर हिंदी-हिंदुत्व के एक बड़े नैरेटिव को अपनाया. यह भी 'मोदी है, तो मुमकिन है' की बदौलत ही हुआ.
इन सारे विरोधाभासों का ब्रांड मोदी ने अपने तरीके से निपटारा किया और लोगों के रुख को अपनी ओर मोड़ दिया.
लेकिन क्या यह फॉर्मूला बीजेपी पर भी लागू होता है? कई और चुनावों के अलावा कर्नाटक के शहरी निकाय चुनाव के नतीजे बताते हैं कि ऐसा नहीं है. और यहीं विपक्षियों के लिए मौका भी है. उनको अपनी रिकवरी के रास्ते वहीं तलाशने होंगे, जहां ब्रांड मोदी खुद वोटिंग बैलट पर नहीं है. राज्य के विधानसभा चुनावों में ऐसे मौके आ सकते हैं.
इसी साल तीन राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में चुनाव होने वाले हैं. क्या विपक्ष इन चुनावों में अपनी ताकत दिखा पाएगा? फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा है. लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि ब्रांड मोदी के डायरेक्ट कंटेस्ट में नहीं होने से सारी पार्टियों के बीच लेवेल प्लेइंग फील्ड तो बन ही जाता है.
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