पिछले हफ्ते तक LoC पर छिटपुट गोलीबारी होती थी, जिसमें भारत और पाकिस्तान- दोनों के सैनिकों को नुकसान पहुंचता था. जब हम भारतीय सेना के जवानों को नए स्निपर राइफल देने पर विचार कर रहे थे, तो आज नहीं तो कल, कश्मीर में छद्म युद्ध की रूपरेखा में बदलाव होना तय था.
घाटी में आतंकवादी कार्रवाईयों में महारत हासिल करने वाला पाकिस्तान पहले ही स्थानीय पुलिसकर्मियों और छुट्टी पर गए सैनिकों पर निशाना साधने का प्रयोग कर चुका है.
जानकार लंबे समय से चेतावनी दे रहे थे कि अर्द्ध पारंपरिक युद्ध के सबसे प्रभावशाली हथियार, यानी improvised explosive device या IED अथवा विस्फोटक भरे कार बम का इस्तेमाल किया जा सकता है. साथ ही आत्मघाती हमले की आशंका भी जताई जा रही थी. सौभाग्य से कश्मीर के छद्म युद्ध में इनमें से अधिकतर तरीकों का सालों से अनुभव है.
नब्बे के दशक से शुरू हो गए थे IED हमले
नब्बे के दशक में और इस सदी के आरम्भ में कई IED हमले हुए, जिसके बाद काफिलों और वीआईपी समेत छोटे वाहनों के आवागमन में अधिक सावधानी बरती जाने लगी. हालांकि 20 जुलाई 2008 के बाद IED आधारित हमलों में अचानक गिरावट आई और इसका इस्तेमाल लगभग बंद हो गया. उस दिन घाटी में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी संगठन ने कुपवाड़ा में काफिले में चल रहे जवानों के एक बस पर निशाना साधा, जिसमें भारी नुकसान हुआ. IED आधारित हमलों में कमी IED तैयार करनेवाली प्रतिभाओं में कमी को दर्शाती है.
अक्सर IED तैयार करनेवालों को IED डॉक्टर कहा जाता है, जिनकी आतंकवादी संगठनों में अपनी काबिलियत के कारण विशेष जगह होती है. हिजबुल मुजाहिदीन (HM) में ऐसे कई डॉक्टर हैं, जिनके कारण दक्षिणी कश्मीर और विशेषकर पुलवामा और अनंतनाग जिलों में IED का खतरा बना हुआ था. कार बम की कहानी अलग है.
कश्मीर में एक के बाद एक कार बम विस्फोट
पहला कार बम विस्फोट चिनार कोर मुख्यालय के गेट के सामने 2001 में हुआ था. इसी साल श्रीनगर में जम्मू और कश्मीर विधानसभा के पास ऐसा ही एक हमला हुआ. बारामुला डिविजन में साल 2004 में अफसरों के एक बस पर मारुति 800 को कार बम बनाकर हमला किया गया. इस हमले में ज्यादा नुकसान तो नहीं हुआ, लेकिन बस का ड्राइवर मारा गया. बस के बाकी हिस्से अतिरिक्त स्टील से मजबूत किए गए थे, सिर्फ ड्राइवर के केबिन में स्टील नहीं लगा था.
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श्रीनगर में बेकाम हो चुके टैंकों के बख्तरबंद स्टील प्लेट्स की बसों के किनारों में वेल्डिंग की जाती थी और रद्दी औद्योगिक रबर को गलाकर फर्श पर चिपकाया जाता था. इस तरीके से कई लोगों की जान बची थी. सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी कि इसने काफिले में चलने के अलावा वाहनों की मजबूती की अवधारणा विकसित की. जब तक खतरा बना रहा, तब तक ये कार्य होता रहा. शायद IED और कार बम का इस्तेमाल कम होने के बाद ये प्रक्रिया भी बंद हो गई.
साल 2004 के बाद से कोई कार बम हमला और वर्ष 2008 के बाद से कोई IED आधारित हमला नहीं हुआ. कश्मीर में सेना तथा पुलिस पोस्ट पर कई आत्मघाती हमले हुए, लेकिन कोई भी आत्मघाती शरीर में विस्फोटक बांधकर नहीं आया. आतंकी ग्रेनेड और AK 47 से लैस होकर आते थे और सुरक्षा बलों की गोलियों के मरने के लिए तैयार रहते थे. लिहाजा लम्बे समय से कश्मीर में आत्मघाती हमलावरों की अवधारणा भी कमजोर हो गई थी.
आखिर किसी कारण विशेषज्ञ दोबारा IED और कार बम के इस्तेमाल की आशंका जता रहे थे? सीरिया, इराक और अफगानिस्तान संघर्षों के अध्ययन से मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि कश्मीर में आतंकवादियों ने इन घातक हथियारों का पूरी तरह उपयोग नहीं किया था. पाकिस्तान स्थित अनौपचारिक आतंकी समूहों के अनुभवों से इसकी आशंका फिर प्रबल हो रही है. यही कारण है कि मैं इसकी आशंका पर लिख रहा था और सालभर पहले से मुझे इसकी आशंका थी.
अगर छद्म युद्ध के प्रायोजक कार बम, जमीनी या किनारों से IED विस्फोट और विस्फोटक युक्त आत्मघाती हमलावर जैसे तीन हथियारों का इस्तेमाल करते हैं, तो कश्मीर की सुरक्षा स्थिति पर इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा. सबसे पहले वाहनों, पेट्रोलिंग गाड़ियों और विशेषकर वीआईपी काफिले को अतिरिक्त सतर्क रहना होगा.
हमले रोकने के लिए कड़ी मशक्कत करनी होगी
इसका असर संचालन, रसद और निगरानी पर पड़ेगा. दूसरी बात, इसके कारण हर चेक प्वाइंट पर जांच और वाहनों की सघन तलाशी के लिए अधिक संख्या में तैनाती करनी होगी. सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि इसके कारण आम लोगों को अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ेगा और अर्ध पारम्परिक प्रतिबंध लगाने पर मजबूर होना पड़ेगा. यानी राजनीतिक दलों के दबाव में जिन प्रतिबंधों को हटाना पड़ा था, वैसे कई चेक प्वाइंट्स, पोस्ट, पिकेट और वाहनों के सघन जांच की व्यवस्था फिर से आरम्भ करनी होगी. इनके कारण आम लोगों को भारी परेशानी होगी, जिससे सुरक्षा बलों से उनकी दूरी बढ़ती जाएगी.
अलगाववादी और उनके प्रायोजक भी लम्बे समय से यही चाहते हैं. इस कारण कश्मीर में सामान्य स्थिति बहाल करने की सरकार की सारी कोशिशें बेकार होंगी और परोक्ष रूप से स्थानीय आतंकवादी गुटों में शामिल होने की प्रक्रिया बढ़ेगी.
अंदरूनी सुरक्षा व्यवस्था मजबूत हो
हालांकि इकलौती घटना को उभरते हुए तौर-तरीके के रूप में नहीं देखना चाहिए. CRPF काफिले पर पुलवामा में कार बम हमला पाकिस्तान के छद्म युद्ध के नीच स्तर को दिखलाता है, जिसमें कहने को आपसी वार्ता की गुजारिश कर अमन बहाली के इरादे व्यक्त किए जाते हैं. कुछ लोग सहमत नहीं, लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि भारत पर पाकिस्तान का दबाव है या कश्मीर समस्या जल्द समाप्त हो जाएगी. फिलहाल इस समस्या का कोई उपाय नहीं, जब तक भारत अपनी कूटनीतिक और सैन्य स्थिति मजबूत नहीं करता, घाटी में पाकिस्तान के नापाक मंसूबे नाकाम नहीं होंगे.
भारत की प्रतिक्रिया का सवाल एक अलग मुद्दा है, जिसका आकलन अलग से किया जाएगा. हालांकि ये भी सच है कि दबाव में आकर हड़बड़ी में लिया गया फैसला दूरदर्शी नहीं होता. घाटी की अंदरूनी सुरक्षा व्यवस्था मजबूत की जानी चाहिए और खुफिया जानकारियां दोगुनी तेज रफ्तार से हासिल की जानी चाहिए. लेकिन आम जनता का दबाव बढ़ने के बावजूद सुरक्षा बल स्थानीय नागरिकों पर सख्ती करने का लाइसेंस नहीं ले सकते, जो मुद्दा आखिरकार इस छद्म युद्ध का केन्द्र बिन्दु रहेगा.
(लेखक सेना के 15 कॉर्प्स में एक पूर्व जीओसी हैं. फिलहाल विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन और इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कन्फ्लिक्ट स्टडीज के साथ जुड़े हुए हैं. उनसे @atahasnain53 पर सम्पर्क किया जा सकता है. उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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