कोलकाता में एक युवा ट्रेनी डॉक्टर के साथ वीभत्स बलात्कार और हत्या की घटना ने पूरे देश में विरोध की लहर पैदा कर दी है. साथ ही इसने महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा और 'रेप कल्चर' से कैसे निपटा जा सकता है, इस बारे में सदियों पुराना विमर्श भी छेड़ दिया है. देश भर में जनता के बीच तीव्र आक्रोश और विरोध प्रदर्शनों ने 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले की यादें ताजा कर दीं. 2012 के निर्भया केस में जिस तरह से बलात्कार के मुद्दे पर चर्चा हुई थी, वह अपने आप में एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गया था.
ये दोनों जघन्य अपराध 12 साल के अंतर पर हुए थे. फिर भी, दोनों सार्वजनिक गुस्सा, राजनीतिक दोषारोपण और सजा के सबसे चरम रूप यानी फांसी के साथ तत्काल न्याय की मांग के संबंध में एक समान पैटर्न साझा करते हैं.
पश्चिम बंगाल सरकार की तीखी प्रतिक्रिया
ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली पश्चिम बंगाल सरकार 'अपराजिता' नाम से एक नए कानून का प्रस्ताव लेकर आई है. इसमें बलात्कार के बाद पीड़िता की मौत हो जाती है या उससे वह निष्क्रिय अवस्था (वेजिटेटिव स्टेट) में चली जाती है तो कानून में दोषियों के लिए मौत की सजा का प्रावधान किया गया है.
बंगाल सरकार का यह दृष्टिकोण कुछ हाई-प्रोफाइल बलात्कार मामलों पर सार्वजनिक आक्रोश की आग को कम करने के लिए सख्त कानून लाने या मौजूदा कानूनों में और अधिक कठोर धाराएं जोड़ने के राज्य सरकारों के बीच एक व्यापक ट्रेंड को दर्शाता है. उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश ने दिशा सामूहिक बलात्कार मामले के बाद 2019 में दिशा विधेयक पेश किया था. इसी तरह बदलापुर यौन शोषण मामले के जवाब में महाराष्ट्र ने 2020 में शक्ति विधेयक लागू किया.
1970 के दशक में, सुप्रीम कोर्ट ने जब महाराष्ट्र में एक आदिवासी लड़की से बलात्कार के आरोपी दो पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया था तो उसके बाद देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए थे. इस मामले को मथुरा बलात्कार मामले के रूप में जाना जाता है. मामले में जनता का गुस्सा बलात्कार के खिलाफ उस समय के मौजूदा कानूनों में संशोधन का कारण बना. उन विरोध प्रदर्शनों और उनके बाद सालों तक चले विरोध प्रदर्शनों ने 'बलात्कार संस्कृति/रेप कल्चर' से लड़ने और कानूनी सुधारों की वकालत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
लेकिन प्रगतिशील कानूनी सुधारों के साथ भी, सिस्टम में मौजूद प्रक्रियात्मक देरी जैसे मुद्दे न्याय प्रणाली और भारत की महिलाओं को सताते रहे. दूसरी ओर, इसने बढ़ती 'भीड़ मानसिकता (मॉब मेंटलिटी)' और तुरंत न्याय देने के विचार के प्रति समाज को बड़े स्तर पर आकर्षित किया.
सवाल है कि क्या नए कानूनों की भरमार और "फास्ट ट्रैक" न्याय के प्रति बढ़ता रुझान बलात्कार की संस्कृति से प्रभावी ढंग से मुकाबला करेगा? क्या बलात्कारियों को फांसी देने से ऐसे अपराध रुकेंगे या यह महज हमारे सामूहिक गुस्से और आरोपियों को जल्द से जल्द सजा देने की चाहत का ही प्रतिबिंब है?
महिलाओं की पराधीनता, पितृसत्तात्मक मानदंडों, स्त्री-द्वेष, यौन हिंसा, सांस्कृतिक प्रतिबंधों और दैनिक प्रतिबंधों के माध्यम से महिलाओं की स्वतंत्रता के दमन के लंबे इतिहास को देखते हुए, फांसी की मांग के पीछे जनता का गुस्सा और बेबसी समझ में आती है. ज्वालामुखी को अंततः फूटने के लिए लंबी और निरंतर एक पूरी प्रक्रिया की आवश्यकता होती है.
लेकिन क्या ये कदम मुख्य समस्या का समाधान करते हैं और उन संरचनाओं को खत्म करते हैं जो महिलाओं के खिलाफ बलात्कार और हिंसा को बढ़ावा देती हैं?
बदले की मौलिक इच्छा
कठोर कानूनों का बनना उन लोगों को तत्काल सांत्वना दे सकती है जो ऐसे अपराधों के लिए कठोर दंड की उम्मीद करते हैं. लेकिन सरकार के दृष्टिकोण से यह एक प्रतिक्रियावादी और जल्दबाजी में लिया गया निर्णय प्रतीत होता है- आखिर में सरकार ऐसी एजेंसी है जो प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा और स्वतंत्रता के लिए जिम्मेदार है.
सालों से हमारे सर्वश्रेष्ठ कानूनी विशेषज्ञों ने जोर देकर तर्क दिया है कि फांसी की सजा बलात्कार को रोकने के खिलाफ एक प्रभावी टूल के रूप में काम नहीं करता है. जबकि जनता के एक बड़े वर्ग को यही को यही लगता है.
वर्तमान संदर्भ में इसे समझने के लिए उत्तर प्रदेश पर नजर डाली जा सकती है. जब से सीएम योगी आदित्यनाथ ने सत्ता संभाली है, उन्होंने बलात्कार सहित यौन अपराधों के आरोपियों के लिए तत्काल सजा की व्यवस्था शुरू की है. कई मामलों में, यौन अपराधों के आरोपियों को गोली मार दी गई है, जिसे सरकार "एनकाउंटर" कहती है, लेकिन अनिवार्य रूप से न्याय की परिधि से बाहर जाकर मारी गई गोली होती है.
बलात्कार के आरोपियों को गोली मारने का यह दृष्टिकोण न केवल कानून के शासन को कमजोर करता है, बल्कि यह महिलाओं के खिलाफ अपराधों के पैटर्न को बदलने में भी बहुत कम योगदान देता है- बलात्कार रोकने का कारण बनना तो दूर की बात है. बलात्कार के आरोपियों को 'गोली' से दी जाने वाली सजा कानूनी नहीं है, लेकिन यह उन भावनाओं को दर्शाता है जो मौत की सजा की जोरदार मांग के पीछे हैं.
एक और उदाहरण जो राज्य की जल्दबाजी वाली प्रतिक्रिया को दर्शाता है वह 2019 का हैदराबाद डॉक्टर बलात्कार मामला है. हैदराबाद के बाहरी इलाके में एक पशु चिकित्सक के साथ बेरहमी से बलात्कार किया गया और आग लगाकर उसकी हत्या कर दी गई. मामले में आरोपियों को गिरफ्तार किए जाने के बाद, उन्हें एक फर्जी एनकाउंटर में मार दिया गया, जहां पुलिस ने तर्क दिया कि वे कस्टडी से भागने की कोशिश कर रहे थे. सुप्रीम कोर्ट ने बाद में पाया कि एनकाउंटर फर्जी था. साथ ही कोर्ट ने आवेश में आकर की गई ऐसी कार्रवाइयों के जोखिमों पर प्रकाश डाला.
प्रतिशोध में प्रतिक्रिया करने की मौलिक इच्छा मानव जाति से बहुत परिचित है. कई समाज इसका समर्थन भी करते हैं. यह सच है कि हमारे टीआरपी-भूखे मीडिया द्वारा क्रूरता की चरम सीमा तक रिपोर्ट किए गए ऐसे हिंसक अपराध, बड़े पैमाने पर समाज को बेबसी की ओर धकेलते हैं और हममें से कई लोगों की अंतरात्मा को झकझोर देते हैं.
लेकिन क्या यहां उद्देश्य वास्तव में बलात्कार रोकना और दीर्घकालिक परिवर्तन है, या उग्र जनता को खुश करने के लिए तुरंत सजा देना है? यही वह सवाल है जो हमें खुद से पूछने की आवश्यकता है. जैसा कि अन्य हिंसक अपराधों के बारे में रिसर्च से पता चला है, मृत्युदंड इन अपराधों के घटने या उसको समझे जाने के तरीके में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं लाता है.
सुधार के बारे में क्या?
अमेरिका में, फुरमैन बनाम जॉर्जिया केस में जस्टिस स्टीवर्ट ने 1972 में मौलिक रूप से कहा, "मौत की सजा अन्य सभी प्रकार की आपराधिक सजा से अलग होती है- डिग्री में नहीं, बल्कि अपने प्रकार में. चूंकि इसे वापस बदला नहीं जा सकता, इस रूप में यह अद्वितीय है. यह आपराधिक न्याय के मूल उद्देश्य यानी दोषी के पुनर्वास या रिहैब को अस्वीकार करती है, इस लिए यह अद्वितीय है. और अंततः, मानवता की हमारी अवधारणा में सन्निहित सभी चीजों के पूर्ण त्याग में यह अद्वितीय है.''
यह तर्क मृत्युदंड पर आधुनिक न्यायशास्त्र का आधार बन गया और भारत में शीर्ष अदालत को समय-समय पर मृत्युदंड की आवश्यकता पर विचार-विमर्श करने के लिए प्रेरित किया. हमारे देश में मृत्युदंड का मानदंड लंबे समय से "दुर्लभ से दुर्लभतम" मामलों को लेकर रहा है. इसके निर्धारण के मानदंड बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य केस जैसे ऐतिहासिक निर्णयों में पाए गए थे, जिसे बाद में मच्छी सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य में उद्धृत किया गया था.
हाल में, न्यायपालिका ने मृत्युदंड-संबंधी न्यायशास्त्र के क्षेत्र में एक बड़ा बदलाव देखा है, खासकर मनोज बनाम एमपी राज्य के मामले में. इस बदलाव में यह समझ निहित है कि अपराधी केवल उसके खुद के निर्णयों का परिणाम नहीं हैं, बल्कि राज्य और समाज की विफलताओं का भी परिणाम हैं. यही कारण है कि एक आरोपी को सुधार का मौका मिलना चाहिए.
वह राज्य और समाज का एक उत्पाद है. यानी एक ऐसा समाज जो अपने मूल में पितृसत्तात्मक है, जहां शक्ति की गतिशीलता पुरुषों की ओर बहुत अधिक झुकी हुई है, जहां कैजुअल सेक्सिजम और मिसोजिनी की संस्कृति जीवन की तरह ही व्याप्त है, जहां यह धारणा सामान्य है कि महिलाएं संपत्ति हैं और इसलिए उन्हें दबाया जा सकता है. कमाल है कि ऐसी दुनिया में जब एक आदमी महान बनता है तो श्रेय समाज, परिवार, अपने रिश्तेदारों और साथियों को देता है. लेकिन जब वही आदमी नीचता का काम करता है, कोई अपराध करता है तो जिम्मेदारी अकेले उस पर है. क्या यह विडम्बना नहीं है?
यह बातें प्रणालीगत, आमूलचूल परिवर्तन की मांग करती हैं जो इस संरचना के मूल पर प्रहार करे. समय की मांग है कि एक सतत नारीवादी संघर्ष हो, एक ऐसा संघर्ष जो जाति, लिंग और वर्ग के अंतरसंबंध को संबोधित करता हो.
यहां राज्य की अहम भूमिका है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38, 39, और 39ए राज्य को यौन उत्पीड़न और हमले से सुरक्षा का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए बाध्य करते हैं.
यदि हम वास्तव में इस मोड़ को इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ बनाने की आकांक्षा रखते हैं, तो अब समय आ गया है कि हम न्याय के एक अधिक टिकाऊ मॉडल की तलाश करें, जो प्रकृति में परिवर्तनकारी हो, प्रणालीगत और संरचनात्मक हिंसा दोनों को संबोधित करने के साथ ही सर्वाइवर और पीड़ितों के लिए एक दयालु और उनके ट्रॉमा को समझने वाला दृष्टिकोण भी देता हो.
सिस्टम में शामिल हर सहभागी, विशेष रूप से राज्य और न्यायपालिका, जब अपनी जवाबदेही के प्रति वास्तविक अहसास और प्रतिबद्धता दिखाएगा तभी हम वह सार्थक परिवर्तन ला सकते हैं जो हम चाहते हैं.
(वर्तिका मणि नई दिल्ली में स्थित एक वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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