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अमरनाथ हमले से सबक: दक्षिण कश्मीर में भी रहना होगा सतर्क

जिस बस पर समय हमला हुआ, वह यात्रा रूट पर भी नहीं चल रही थी

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अमरनाथ आतंकवादी हमले से बिना पंजीकरण कराए एक बस के यहां पहुंच जाने से लेकर चेक पोस्ट ना होने जैसे कई असहज सवाल खडे़ होते हैं.

इस रूट पर पड़ने वाले पंपोर, बीजबेहाड़ा, खानबल जैसे संवेदनशील कस्बे आतंकवादियों के गढ़ माने जाते हैं.

इस इलाके में आतंकवादी घटनाओं के बढ़ने का मतलब है, उत्तरी कश्मीर में सैन्य बलों की संख्या में बढ़ोत्तरी दूसरे हिस्सों में घातक साबित हो रही है.

स्थायी पिकेट बनाए जाने चाहिए और आतंकवादियों की हरकत पर रोक लगाने के लिए चौबीसों घंटे निगरानी की जानी चाहिए.

दक्षिण कश्मीर में चौकसी बढ़ाने से सुरक्षा बल रोड ओपनिंग पार्टी की ड्यूटी निभाने के बनिस्बत सीधी कार्रवाई करने में सक्षम होंगे.

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अमरनाथ यात्रा पर नियमित “कड़ी निंदा” की जा चुकी है और आतंकवादियों को स्पष्ट चेतावनी दी चुकी है कि उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा. सेना प्रमुख और हर किस्म के मंत्री सुरक्षा स्थिति की समीक्षा कर रहे हैं. प्रधानमंत्री ने भी निर्दोषों की मौत पर चिंता जताई है.

इस कोलाहल के बीच, कोई भी इस महत्वपूर्ण बिंदु पर चर्चा करता नहीं दिखता कि खुफिया सूचनाएं और उच्च स्तर की सुरक्षा के बाद भी ये घटना कैसे हो गई? यात्रा से सिर्फ चंद रोज पहले ही जनता को बताया गया था कि पूरे मार्ग पर चौबीसों घंटे ड्रोन से निगरानी की जाएगी.

इन सवालों के ढूंढने होंगे जवाब

बताया जाता है कि तीर्थयात्री एक या दो दिन पहले अमरनाथ गुफा की अपनी यात्रा पूरा कर चुके थे, और देखने लायक दूसरी जगहें घूमने के लिए श्रीनगर में कहीं ठहरे हुए थे. इसी वजह से अमरनाथ श्राइन बोर्ड को उनके प्लान के बारे में जानकारी नहीं थी.

जिस बस पर समय हमला हुआ, वह यात्रा रूट पर भी नहीं चल रही थी. रात 8.20 बजे जब हमला हुआ वास्तव में उस समय वह लोग जम्मू लौट रहे थे.

अगर बस का पंजीकरण होता तो, यात्रियों को दिन में रोड ओपनिंग पार्टी (ROP) द्वारा रास्ते की संदिग्ध जगहों और निशाना बनाई जा सकने की संभावित जगहों/निर्माणों को क्लियर किए जाने के बाद कॉन्वॉय से सुरक्षा मिली होती.

ऐसी स्थिति में कॉन्वॉय को इस काम के लिए तैनात CRPF टुकड़ी की सुरक्षा भी मिली होती. इसलिए जिस टूर ऑपरेटर ने यह यात्रा प्लान की, उससे सुरक्षा बलों या श्राइन बोर्ड के साथ तालमेल नहीं करने के लिए जवाब तलब किया जाना चाहिए.

बस को इजाजत किसने दी?

दूसरा सवाल है कि इस अकेली बस को ऐसे समय में, जिसे घाटी में सफर के लिए सुरक्षित नहीं माना जाता, इतनी देरी से सफर करने की इजाजत किस तरह मिली? यहां तक कि सुरक्षा बलों के वाहन भी अगर ऑपरेशन में नहीं लगे हैं, तो वह रात में नहीं चलते. तो किस तरह इस बस को बिना टोके जाने दिया गया?

आमतौर पर श्रीनगर के एंट्री/एक्जिट प्वाइंट पर पुलिस/सुरक्षा बल के चेक-पोस्ट होने चाहिए थे. अगर वहां चेक-पोस्ट थे, तो किसी ने बस को और आगे जाने से क्यों नहीं रोका? चेक-पोस्ट पर तैनात जवानों को इस गंभीर चूक पर जवाब देना होगा.

इसके उलट अगर मान लें कि, चेक-पोस्ट नहीं थे, तो यह इस इलाके के जिम्मेदार पुलिसवालों और सुरक्षा बलों की योजना की खामी है. एक गहन जांच से ही इन मुद्दों पर जिम्मेदारी तय की जा सकेगी.

यह सवाल कि क्या बस को एक निश्चित बिंदु के बाद आगे जाने की इजाजत दी गई, इस तथ्य को देखते हुए बहुत महत्वपूर्ण है कि श्रीनगर के दक्षिण में, पांथा चौक से शुरू होकर अनंतनाग (इस रूट में पंपोर, बीजबेहड़ा, खानबल जैसे संवेदनशील कस्बे पड़ते हैं) तक यह इलाका आतंकवादियों का गढ़ है.

अगस्त 2014 से इस इलाके में आतंकवादियों द्वारा सुरक्षा बलों पर हमले की दस घटनाएं हुई हैं, जिनमें बड़ी संख्या में मौतें हुई हैं. इसमें से पांच घटनाएं तो दिसंबर 2016 के बाद के छह महीनों में पेश आई हैं!

सुरक्षा से जुड़ी एजेंसियों को हाल के दिनों में इस तरह की घटनाओं में तेजी आने के कारणों का विश्लेषण करना चाहिए और समय से उचित कदम उठाए जाने चाहिए जिससे कि असुरक्षित समय पर नागरिकों की आवाजाही रोक कर उन्हें आसान शिकार बनने से रोका जा सके.

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सुरक्षा बलों की तैनाती

आतंकवादी वारदात में बढ़ोत्तरी इस बात का संकेत है कि इस इलाके में सुरक्षा बलों की मौजूदगी तुलनात्मक रूप से कम है. वास्तव में, अगर घटनाओं और तैनाती का विश्लेषण किया जाए तो पता चल जाएगा कि सुरक्षा बलों की तैनाती उत्तरी कश्मीर की तरफ ज्यादा है.

घुसपैठ रोकने के लिए, करीब-करीब पूरी नियंत्रण रेखा पर सेना को BSF के साथ तैनात किया गया है. यात्रा के मद्देनजर चंद तैनातियों को छोड़ दें तो दक्षिण कश्मीर में BSF के जवानों की तैनाती नगण्य है. इस इलाके में प्रायः पूरी तरह स्थानीय पुलिस, CRPF और राष्ट्रीय राइफल्स की एकाध यूनिटों का ही प्रभुत्व है.

खास बात यह है कि यह प्रभुत्व हाईवे पर ROP के रूप में है और अंदरूनी ग्रामीण इलाकों में नाममात्र की भी उपस्थिति नहीं है.

इस तरह कह सकते हैं कि सुरक्षा बलों की उपस्थिति, उचित मात्रा में नहीं है. यह स्थिति मौजूदा सरकार के सत्ता संभालने के बाद दो वर्षों के    दौरान पैदा हुई है. यह सोचने की बात है कि टुकड़ियों की संख्या और तैनाती की जगहें तय का फैसला लेने में सुरक्षा विशेषज्ञों की राय ली गई या नहीं.

इसके अलावा, इन बलों के ऑपरेशंस का पैटर्न देखें तो पाएंगे कि इन्होंने मुश्किल से ही खुद अपनी पहल पर कोई ऑपरेशन किया है.  टुकड़ियां ROP ऑपरेशन पूरा करने के बाद दिन में अपने स्थायी कैंप  में चली जाती हैं और रात में प्रभुत्व बनाए रखने के लिए कुछ नहीं किया जाता.

प्रायः तलाश करके पकड़ने का कभी अभियान नहीं चला, और इस इलाके में नेशनल हाईवे के साथ-साथ “झेलम कॉरिडोर” कहे जाने वाले इलाके को प्रभुत्वहीन छोड़ दिया गया.
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सुरक्षा के स्तर बढ़ाने होंगे

विदेश में प्रशिक्षित आतंकवादियों के LoC पार करने में बहुत ज्यादा मुश्किल आने के बाद आतंकी सरगना स्थानीय आतंकवादियों पर निर्भर कर रहे हैं, जिनके लिए सुरक्षा के अभाव में मार करना आसान हो जाता है.

ऐसी स्थिति में जरूरी है कि दक्षिण कश्मीर में सुरक्षा का स्तर बढ़ाया जाए, जिससे कि सुरक्षा बल सिर्फ ROP ड्यूटी करने के बजाय ऑपरेशंस के लिए उपलब्ध हो सकें.

स्थायी पिकेट स्थापित किए जाएं, जिनमें चौबीसों घंटे जवान तैनात हों, जिससे कि आतंकवादियों के आवागमन पर रोक लगाई जा सके.

नब्बे के दशक के मध्य में, इस इलाके में BSF जवानों की तैनाती की गई. उन्होंने अंदरूरी इलाकों में सफलतापूर्वक सघन अभियान चलाए. इसकी फिर से शुरुआत करनी चाहिए. हमें यहां पंजाब के अनुभव से सबक सीखना चाहिए. रात में प्रभुत्व स्थापित करने के बाद ही पंजाब के आतंकवादियों को काबू में किया जा सका. इससे आतंकवादियों का घूमना-फिरना थम गया था. खासकर ग्रामीण इलाकों में दिन के साथ ही रात में भी प्रभुत्व स्थापित करने की जरूरत है.

अमरनाथ यात्रियों पर हमले जैसी घटनाओं को तभी रोका जा सकता है अगर काम की सूचनाओं को उसी पल मौके पर तैनात सुरक्षा बलों तक पहुंचाया जा सके. इस काम में लगी एजेंसियों को राष्ट्रहित को सबसे ऊपर रखना होगा और यश लूटने का लालच छोड़ना होगा.

हमें ऐसे झटकों से सबक सीखना होगा और सुधार के कदम उठाने होंगे. अगर हम मुश्किलों के लिए खुद को तैयार नहीं करते, तो हमें ऐसी बार-बार घटनाओं का सामना करना पड़ेगा.

(लेखक BSF से सेवानिवृत्त एडिशनल डायरेक्टर जनरल हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने विचार हैं. द क्विंट न तो इनका समर्थन करता है, न ही किसी तरह इसके लिए उत्तरदायी है.)

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