अहमदाबाद में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के स्वागत में बनी दीवार पर अमेरिका के ही मशहूर कवि रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता मेंडिंग वॉल्स की याद आती है. इसमें कवि पूछते हैं- ‘दीवार बनाने से पहले मैं पूछना चाहता हूं/क्या है जिसे मैं दीवार के अंदर या किसे उससे बाहर कर रहा हूं.‘ अहमदाबाद की दीवार से उस मुफलिसी को विकास के मॉडल से बाहर किया जा रहा है, जो महानगरों की जगर-मगर में भी छिपती नहीं.
राजतंत्र का अहंकार अक्सर बड़े मौकों पर गरीबों को अपनी बस्तियों से बेदखल करता है और अपनी चेतना से विस्थापित. इस प्रकार झूठ, जबर्दस्ती और बेरहमी शासन-कला बन जाती है और निर्लज्जता और दबंगई साहस! इस बार यह कोशिश अहमदाबाद में हुई है. विदेशी मेहमान को सिर्फ सुंदर शहर दिखाने हैं. हालांकि वह भी जानता है कि हिंदुस्तान का असली चेहरा क्या है.
हिंदुस्तान के असली चेहरे पर परदा
हिंदुस्तान का असली चेहरा कई बार छिपाया जा चुका है. 2010 में कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले दिल्ली को सुंदर दिखाने की कोशिश में कानून का सहारा लिया गया था. दिल्ली में तब भिखारियों की संख्या 60,000 पार थी. इसलिए उन्हें शहरों से हटाने के लिए एंटी बैगरी कानून की मदद ली गई. भिखारियों की धर पकड़ हुई और मोबाइल अदालतों में उनकी पेशी की गई. इसके लिए दिल्ली के समाज कल्याण मंत्री ने दर्जन भर मोबाइल अदालतें शुरू की थीं. इसके अलावा बेगर होम्स बनाए गए जहां हजारों की संख्या में भिखारियों को रखा गया. इस तरह देश की राजधानी की ‘बदसूरती’ को ढकने की कोशिश की गई.
ऐसा 2008 में चीन भी कर चुका है, जब उसने अपने यहां ओलंपिक का आयोजन किया था. ओलंपिक से पहले चीन के फुटपाथों से हॉकर्स, भिखारियों और वेश्याओं को ऐसे ही हटाया गया था. खुद अहमदाबाद में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के आगमन पर झुग्गियों को छिपाने के लिए हरे परदे का इस्तेमाल किया गया था.
2000 में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के हैदराबाद पहुंचने पर वहां फुटपाथ पर रहने वाले हजारों लोगों को ट्रक में भरकर कई हजार किलोमीटर दूर उतार दिया गया था. गरीब और गरीबी देश की छवि खराब करते हैं, इसके बावजूद कि यह दुनिया के ज्यादातर देशों की असलियत है.
यह ग्लोबल फेनोमेना है
विदेशी मेहमानों और मेगा ईवेंट्स पर कई साल पहले अमेरिकन रिसर्चर सोलोमन जे ग्रीन ने एक शोध किया था. ग्रीन अमेरिका के हाउसिंग और अर्बन डेवलपमेंट विभाग में भी काम कर चुके हैं. ‘स्टेज्ड सिटीज: मेगा ईवेंट्स, स्लम क्लीयरेंस एंड ग्लोबल कैपिटल’ नामक इस स्टडी में उन्होंने कई विकासशील देशों के उदाहरणों के जरिए यह निष्कर्ष दिया था कि कैसे शहरों के प्लानिंग प्रोसेस में एलीटिज्म और निरंकुशता है.
सोलोमन के इस अध्ययन में 1991 में बैंकॉक में आयोजित विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के सम्मेलन का हवाला दिया गया था. इस आयोजन में 160 देशों के 10 हजार से ज्यादा प्रतिनिधि पहुंचे थे. इससे ऐन पहले दर्जनों स्लम्स को खाली कराया गया था, वहां बने घरों को तोड़ा गया और फिर उनके आगे लोहे की मजबूत दीवार खड़ी की गई थी ताकि इस तोड़-फोड़ को छुपाया जा सके.
इसके बावजूद कि विश्व बैंक झोपड़पट्टी इलाकों के विकास के लिए हजारों डॉलर की मदद देने वाला था. इस अध्ययन में कहा गया कि दुनिया भर के 23 मेगा ईवेंट्स में से 18 को ऐसे लोगों के व्यक्तिगत प्रयासों से आयोजित किया गया था जोकि ताकतवर राजनीतिज्ञ थे. उनके काम करने का तरीका निरंकुशवादी था, उस दौरान देश की सामाजिक संरचनाएं कमजोर हो रही थीं और सारे फैसले केंद्रीय स्तर पर लिए जाते थे. ऐसे में लोगों को अपने घरों से बेदखल करने में खुद राज्यों ने दमनकारी ताकत का रूप ले लिया था. यूएन सेंटर फॉर ह्यूमन सैटेलमेंट्स की 1996 की ग्लोबल रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में 34 प्रतिशत बेदखलियां मेगा ईवेंट्स के कारण हुई हैं. ट्रंप का भारत आगमन किसी मेगा ईवेंट से कम नहीं है.
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जब आप जनता के लिए नहीं, जनता के खिलाफ काम करते हैं
अहमदाबाद में कोई अनशन पर बैठा है कि हम किसी के स्वागत में अपना इलाका खाली नहीं करेंगे. पर इन दिनों प्रदर्शनकारियों पर आप ध्यान नहीं देते. अक्सर हम अभिजात्य शहरी लोगों के लिए गरीब एक अबूझ पहेली है. हमें इस वर्ग से तभी सहानुभूति करते हैं जब कोई बड़ा हादसा होता है. ऑस्कर विजेता दक्षिण कोरियाई फिल्म पैरासाइट में एक दृष्टांत है. कोरिया के बड़े आलीशान घरों में बंकर हुआ करते हैं जोकि कोरियाई युद्ध के दौरान बनाए गए थे. ताकि अमीर लोग उनमें छिपकर अपनी जान बचा सकें. अमीर पार्क परिवार के घर में बंकर है और उसमें उनकी नौकरानी का पति सालों से रह रहा है. पर पार्क परिवार को इसकी भनक तक नहीं, ठीक वैसे ही जैसे अमीरों के लिए गरीबों का मानो अस्तित्व ही नहीं.
इसीलिए लोग नहीं जानते कि पिछले साल प्रशासन ने हर दिन औसतन 114 घर खाली कराएं हैं और हर घंटे 23 लोगों को घर से बेघर किया है. दिल्ली स्थित एडवोकेसी ग्रुप हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क का कहना है कि शहरों को सुंदर बनाने के नाम या अपनी छवि चमकाने के लिए लगभग आधी से ज्यादा बेदखली हुई है.
भारत के शहरों में लगभग डेढ़ करोड़ लोग स्लम्स में रहते हैं और लगभग 30 लाख लोग फुटपाथों पर. इनमें से ऐसे कितने हैं जो अपने गांव-देहात छोड़कर काम की तलाश में शहर पहुंचते हैं. 2015 में आवास, इंफ्रास्ट्रक्चर पर माइग्रेशन के असर पर गठित वर्किंग ग्रुप ने कहा था कि गांवों से शहरों में आने वाले लोगों की संख्या 2011 में 69 लाख से ज्यादा थी. इनमें से आधे से ज्यादा लोग काम के सिलसिले में ही बड़े शहरों में पहुंचे थे.
जैसा कि झारखंड के युवा कवि अनुज लुगुन की कविता ‘शहर के दोस्त के नाम पत्र’ में कहा गया है- कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा/उससे पहले नदी गई/अब खबर फैल रही है कि/मेरा गांव भी यहां से जाने वाला है. गांव से शहर पहुंचने वालों को सुंदर सपने दिखाए जा रहे हैं- 2022 तक सभी के लिए आवास का सपना. पर असलियत यह है कि विदेशी मेहमान के आने पर इस पूरे वर्ग को हाशिए पर धकेला जा रहा है. उसे देखकर क्योंकि आपको शर्म आती है. विशेषाधिकार हमारे समाज के ढांचे में बुना हुआ है. पूंजी का विशेषाधिकार जनता के मुकाबले और राज्य उसकी हिफाजत में मुस्तैद. इसी मुस्तैदी में अहमदाबाद सज गया है.
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