सारे राजनीतिक दल बिना सांस लिए 2019 लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन कर रहे हैं. नए सहयोगी ढूंढने में कांग्रेस की बेचैनी तो समझ में आती है. वह 2014 के 44 सीटों के अंधे कुएं से निकलने को बेताब है, लेकिन हैरानी की बात यह है कि पिछले चुनाव में रिकॉर्ड 282 सीटें जीतने वाली और 60 महीने में कांग्रेस के 60 साल के बराबर काम करने का दावा करने वाली बीजेपी भी सहयोगियों को जोड़ने के लिए उनकी मनुहार में लगी है. इसका कारण क्या है? इस सवाल का जवाब आपको यहां मिलेगा.
1989 के बाद से जब भी कांग्रेस और बीजेपी कम सीटों पर चुनाव लड़ी हैं, तब उनका विनिंग पर्सेंटेज यानी जीत का प्रतिशत अधिक रहा है. यहां तक कि 2014 में जब देश में मोदी की आंधी थी, तब भी बीजेपी ने 2009 की तुलना में कम सीटों पर चुनाव लड़ा था. इस मामले में कांग्रेस के लिए 2009 आम चुनाव अपवाद था. तब उसने अधिक सीटों पर चुनाव लड़कर ज्यादा सीटें जीती थीं. जब-जब भी कांग्रेस या बीजेपी ने सहयोगी दलों के लिए अधिक सीटें छोड़ी हैं यानी चुनाव से पहले अधिक दलों के साथ गठबंधन किया है,तब-तब उन्हें अधिक सीटें मिली हैं.
अगले लोकसभा चुनाव के लिए अभी तक जो समझौते हुए हैं, उन्हें देखकर लगता है कि राजनीतिक दल ‘कम सीटें, ऊंचे स्ट्राइक रेट’ का सबक सीख चुके हैं. बीजेपी ने तो नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे जैसे सहयोगियों को मनाने के लिए पिछले चुनाव में जीती हुई सीटें भी छोड़ दी हैं. कांग्रेस ने भी झारखंड, तमिलनाडु, कर्नाटक और शायद महाराष्ट्र में अलायंस पार्टनर्स के साथ अच्छी डील की हैं. इनमें कहीं उसकी चली तो कहीं सहयोगी दलों की. उसने सिर्फ इस बात का ध्यान रखा कि ‘चाहे जो भी हो जाए, पार्टनर्स को साथ रखना है.’
दिल्ली, यूपी और असम में कांग्रेस ने ऐसा क्यों नहीं किया?
दिल्ली, यूपी और असम में कांग्रेस ने यही जज्बा क्यों नहीं दिखाया? तीनों राज्यों में लोकसभा की 101 सीटें हैं. यूपीए या एनडीए, जो भी इनमें से अधिक सीटें जीतेगा, वह अगले पांच साल देश पर राज करेगा. इन राज्यों में जहां बीजेपी नंबर वन पार्टी है, वहीं असम में कांग्रेस नंबर दो और दिल्ली-यूपी में वह तीसरे नंबर पर है. मैं नीचे कुछ ऐसी बातों का जिक्र कर रहा हूं, जो पता नहीं क्यों कांग्रेस नेताओं को समझ में नहीं आ रही हैं:
- यूपी में गांधी परिवार का गढ़ माने जाने वाली अमेठी और रायबरेली सीटों पर कांग्रेस काफी मजबूत है.
- अगर मजबूत प्रत्याशी हों तो आधा दर्जन और सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला होने पर वह ब्राह्मण, ठाकुर, कुर्मी, मुस्लिम और दलितों के समर्थन से जीत के लिए जरूरी 35 पर्सेंट वोट हासिल कर सकती है, लेकिन यूपी में कांग्रेस की कहानी इतने पर ही खत्म हो जाती है.
- इसके अलावा उसका हर दांव जोखिम भरा और दोधारी तलवार पर चलने जैसा होगा. करीब 70 सीटों पर कांग्रेस अधिक से अधिक 15-20 पर्सेंट वोट हासिल कर सकती है. इससे उसके प्रत्याशी तो नहीं जीतेंगे, लेकिन बीजेपी की जीत पक्की हो जाएगी.
- बहुकोणीय मुकाबले में अगर कांग्रेस का मजबूत प्रत्याशी जितनी ताकत से लड़ेगा, बीजेपी के जीतने की संभावना उतनी ही बढ़ेगी.
- दिल्ली में यूपी की तरह जातीय गणित उलझा हुआ नहीं है. यहां कांग्रेस की स्थिति और भी खराब दिख रही है. अगर विपक्षी वोट आप और कांग्रेस में बंटता है तो बीजेपी सातों सीटें जीत सकती है, लेकिन दोनों साथ आ जाएं तो बीजेपी को शायद एक भी सीट न मिले.
- असम में कांग्रेस, एजीपी और एयूडीएफ अलग-अलग चुनाव लड़ते हैं तो उसका नतीजा अच्छा नहीं होगा. अगर कांग्रेस और एजीपी साथ आ जाएं तो वे 14 में से 10 से अधिक सीटें जीत सकते हैं. कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि इस अलायंस में एयूडीएफ को भी शामिल करना चाहिए. ऐसी स्थिति में ध्रुवीकरण का लाभ बीजेपी को होगा,इसलिए कांग्रेस और एजीपी को यह रिस्क नहीं लेना चाहिए.
- 2019 आम चुनाव के बारे में कांग्रेस को एक बात समझ लेनी चाहिए. इसमें उसके लिए अपनी सीटें तो बढ़ाना जरूरी है ही, लेकिन बीजेपी को कम से कम सीटों पर जीत मिले, यह उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है. इसलिए अगर कांग्रेस को ‘मैं पांच सीटें जीतती हूं और बीजेपी को 10 सीटें मिलती हैं’ या ‘मुझे एक ही सीट मिलती है और बीजेपी को भी एक सीट’ में चुनना हो तो मैं कहूंगा कि कांग्रेस को बाद वाला विकल्प चुनना चाहिए. अगर कांग्रेस चार सीटें गंवाकर बीजेपी को 9 सीटों का नुकसान पहुंचा रही है तो उसे खुशी-खुशी यह काम करना चाहिए.
- आखिर में 30 सीटों से तय होगा कि सरकार किसकी बनेगी. अगर बीजेपी को 180 सीटें मिलती हैं और कांग्रेस को 130 तो बीजेपी सत्ता में लौटेगी. अगर 2004 की तरह 30 सीटें इधर से उधर हो जाएं तो कांग्रेस के पास 160 सांसद होंगे और बीजेपी के पास 150. ऐसी स्थिति में कांग्रेस की सरकार बनेगी. मुकाबला इतना करीब रहने वाला है.
15-20 पर्सेंट वोट शेयर छलावा है
जब कोई पार्टी किसी राज्य में तीसरे नंबर पर पहुंच जाती है तो उसका 15-20 पर्सेंट वोट शेयर छलावा साबित होता है. ऐसे में सिर्फ वोट शेयर बढ़ाने की नीयत से चुनाव लड़ने पर पार्टी को रणनीतिक तौर पर नुकसान हो सकता है. अगर वह इस अंधे कुएं से निकलना चाहती है तो उसे यह खेल चतुराई और धीरज के साथ खेलना पड़ेगा.
जो कांग्रेस नेता इस राजनीतिक सच को नहीं समझ रहे हैं, राहुल गांधी को उन्हें वॉर रूम में ले जाकर यह बताना चाहिए कि 1985 में सिर्फ दो सीटों तक सिमटी बीजेपी किस तरह से देश की सबसे ताकतवर पार्टी बनी.
इसके लिए बीजेपी ने एक के बाद एक, राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय दलों से समझौता किया. इस तरह से जब वह तीसरे नंबर पर पहुंच गई तो उसने सहयोगी दलों के नेताओं और वोट बैंक में सेंध लगाई. धीरे-धीरे वह जनाधार बढ़ाती गई और आखिर में सहयोगी दल को निगलकर वह निर्विवाद रूप से नंबर वन पार्टी बन गई.
नंबर तीन से नंबर वन तक पहुंचने की बीजेपी की बेमिसाल रणनीति
राहुल गांधी अलायंस पर ना-नुकुर करने वाले पार्टी के क्षत्रपों का मुंह इन बातों से बंद कर सकते हैं:
- गुजरात: 1990 में बीजेपी के 67 विधायकों ने सरकार बनाने के लिए जनता दल के चिमनभाई पटेल का समर्थन किया था. तब बीजेपी के केशुभाई पटेल उप-मुख्यमंत्री बने थे. इसके बाद जनता दल को बीजेपी निगल गई और तब से गुजरात पर बीजेपी का दबदबा बना हुआ है.
- गोवा: 1999 में बीजेपी के मनोहर पर्रिकर ने गोवा पीपल्स कांग्रेस के अलग हुए धड़े से सत्ता में आने के लिए हाथ मिलाया. बाद में सहयोगी दल से अलग होकर एमजीपी के समर्थन से पर्रिकर गोवा के मुख्यमंत्री बने. वह आज भी राज्य के मुख्यमंत्री हैं, जबकि एमजीपी सिर्फ तीन सीटों तक सिमट गई है.
- हरियाणाः 1982 और 1987 में बीजेपी ने देवी लाल के आईएनएलडी के साथ गठबंधन सरकार बनाई. उसके बाद वह बंसी लाल की हरियाणा विकास पार्टी के साथ गई,लेकिन बाद में समर्थन वापस लेकर फिर से आईएनएलडी से हाथ मिला लिया. आज बीजेपी का हरियाणा में राज है और आईएनएलडी राजनीतिक बियाबान में भटक रही है.
- कर्नाटकः 2006 में बीजेपी और जेडीएस ने मिलकर सरकार बनाई. 2008 में ‘ऑपरेशनल कमल’ में उसने कांग्रेस और जेडीएस दोनों ही पार्टियों के विधायकों को तोड़कर सरकार बनाई. मौजूदा लोकसभा में कर्नाटक में सबसे अधिक सांसद बीजेपी के ही पास हैं.
- असमः साल 2001 से 2016 तक बीजेपी, एजीपी का दामन थामकर जीरो से 7 सीटों तक पहुंची. आज वह असम में राज कर रही है, जबकि एजीपी की हालत काफी खराब है.
- महाराष्ट्रः 1995 में बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन चला आ रहा था, लेकिन 2014 विधानसभा चुनाव से पहले दोनों अलग हुईं और इसमें बीजेपी ने शिवसेना को हराया. महाराष्ट्र में आज बीजेपी की चलती है.
- ओडिशाः 1998 से 2009 तक बीजेपी ने बीजेडी का हाथ थामकर अपना जनाधार बढ़ाया. बीजेडी ने जब उसे अलग कर दिया तो सभी पार्टियों के नेताओं को तोड़कर बीजेपी मुख्य विपक्षी दल बन गई.
कांग्रेस भी इस फॉर्मूले से सीख सकती है...
यह बात बिल्कुल साफ है कि कांग्रेस को क्या करना होगा. दिल्ली, यूपी और असम में वापसी करने के लिए उसे जूनियर पार्टनर के तौर पर शुरुआत करनी होगी. आने वाले कुछ चुनावों में उसे दूसरी पार्टियों के मजबूत नेताओं को अपने पाले में लाकर जनाधार बढ़ाना होगा और तभी वह अपना गौरवशाली इतिहास दोहरा पाएगी. क्यों,बात समझ में आई?
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