जिस दिन कांग्रेस को 24 साल बाद गांधी परिवार के बाहर अपना नया अध्यक्ष मिलने वाला था, राहुल गांधी (Rahul Gandhi) से पत्रकारों ने पूछा कि आगे पार्टी में उनकी क्या भूमिका होगी. इसपर राहुल ने कहा कि "यह नए पार्टी अध्यक्ष तय करेंगे". लेकिन राहुल भी जानते हैं कि उनका यह जवाब सच नहीं है. यह वह पार्टी है जिसे उनकी दादी इंदिरा गांधी ने 1977 के आम चुनाव में मिली हार के बाद बाहर निकाले जाने के बाद एक पारिवारिक चिंता के रूप में अलग होकर बनाया था. उन्होंने इसे कांग्रेस (इंदिरा) का नाम भी दिया था, मानो वो साफ लहजे में कह रही थीं कि पार्टी पर पकड़ उनकी ही है.
इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को 1980 में फिर से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नाम वापस मिल गया, जब चुनाव आयोग ने उनकी प्रचंड जीत के बाद उनके गुट को 'असली' कांग्रेस के रूप में मान्यता दी थी.
नतीजतन यह हुआ कि अधिकांश कांग्रेसियों के मन में इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि गांधी परिवार के ही चारों ओर पार्टी घूमती रही है और हमेशा घूमेगी. नए कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के बाद भी राहुल गांधी पार्टी के अंदर अपनी कोई भी भूमिका चुन सकते हैं और अध्यक्ष खड़गे (Mallikarjun Kharge) उसे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे.
24 साल बाद कांग्रेस को गांधी परिवार के बाहर मिला अपना अध्यक्ष
कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में अपने प्रतिद्वंदी शशि थरूर को आसानी से हराकर कर्नाटक के कद्दावर नेता मल्लिकार्जुन खड़गे 24 सालों में पहले गैर-गांधी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभालने के लिए तैयार हैं. ऐसे में सभी की निगाहें अब सोनिया, राहुल और प्रियंका पर टिकी हैं ताकि यह पता लगे कि इस नए संगठनात्मक खांचे में वे कैसे फिट बैठते हैं.
यदि गांधी परिवार चाहे तो यह ऐसा मौका है जब पार्टी को नया रूप देने और उसे फिर से जीवंत करने के साथ-साथ बीजेपी द्वारा राहुल गांधी पर चिपकाए गए 'पप्पू' टैग को मिटाने की कवायद शुरू की जा सकती है. यकीनन यह एक मुश्किल राह है और इसके लिए कड़ी मेहनत और क्रिएटिव सोच की जरूरत है.
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गांधी परिवार को थोड़ा पीछे हटना होगा और खड़गे के साथ मिलकर काम करना होगा और उन्हें बदलाव लाने के लिए सशक्त बनाना होगा. अन्यथा वह स्थिति बीजेपी के उसी तंज को साबित करेगी कि नया अध्यक्ष विशेषाधिकार प्राप्त राहुल गांधी के हाथों की कठपुतली हैं.
आगे की चुनौतियां- खड़गे और गांधी परिवार- दोनों के लिए बहुत बड़ी हैं. पहली नजर में, खड़गे का अध्यक्ष बनना यथास्थिति का परिचायक हैं. उनकी उम्र 80 साल की है और वह पुरानी कांग्रेस के तौर-तरीकों में घुले हुए हैं. साथ ही उनकी छवि गांधी परिवार के कट्टर वफादार की है. इसलिए यह सवाल पूछा जा रहा है: क्या खड़गे वह संकटमोचन हैं, जो कांग्रेस को उस ब्लैक होल से बाहर निकाल पाए, जिसमें पार्टी 2014 में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से डूब गई है?
शशि थरूर के सामने खड़गे बीस साबित क्यों हुए?
इसके उलट मल्लिकार्जुन खड़गे के प्रतिद्वंद्वी, शशि थरूर, उस ताजी हवा की तरह लग रहे थे, जिसकी कांग्रेस जैसी जड़ पड़ चुकी पार्टी को सख्त जरूरत है. वह युवा हैं, अंग्रेजी और हिंदी दोनों में अत्यधिक मुखर हैं और खड़गे के विपरीत, उन्होंने अपने कैंपेन में पार्टी के अंदर बदलाव के लिए जोरदार प्रचार किया.
इसके बावजूद शशि थरूर हार गए. मोटे तौर पर इसका कारण है कि उन्हें एक बाहरी व्यक्ति के रूप में देखा जाता है, उन्हें यथास्थित के लिए एक संभावित खतरा माना जाता है और आम सहमति विकसित करने या कांग्रेस के अंदर युद्धरत गुटों के बीच संतुलन बनाने में असमर्थ माना जाता है.
दूसरी तरफ खड़गे विवादों से दूर रहने वाले और चुपचाप काम करने वाले नेता हैं. उनकी छवि विनम्र और मृदुभाषी की है. उनसे उम्मीद की जाती है कि वे कांग्रेस मुख्यालय में कांग्रेसी नेताओं को आसानी से उपलब्ध होंगे और उनकी शिकायतों को दूर करेंगे.
उनसे यह भी उम्मीद की जाती है कि वे गांधी परिवार को पार्टी में हो रहे संरचनात्मक सुधारों में फिट बैठाए, सामूहिक निर्णय लेने के लिए सिस्टम बनाए, आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करें, कमजोर हो चुके पार्टी संगठन को सुधारें और नई प्रतिभाओं को खोजकर पार्टी से जोड़ें- बशर्ते गांधी परिवार इस परिवर्तन के लिए खुद को प्रतिबद्ध करने के लिए तैयार हो.
कांग्रेस को अपनी जन अपील को फिर मजबूत करने की जरूरत है
खड़के से की जा रही उम्मीदों में से कई बागी G-23 गुट की मांगें भी हैं. इन मांगों को G-23 गुट ने 2020 में राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष के पद छोड़ने के बाद सोनिया गांधी को लिखे लेटर में सामने रखी थीं.
कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए G-23 ने जो ब्लूप्रिंट तैयार की थी, शायद पार्टी को उसी की जरूरत है. और शायद खड़गे ही इसे लागू करने वाले लीडर साबित हो सकते हैं.
यह भी अहम है कि पार्टी में गांधी परिवार के बाहर के अध्यक्ष का प्रवेश ऐसे समय में हुआ है जब राहुल गांधी 'भारत जोड़ो यात्रा' के रूप में जन संपर्क के लिए सड़क पर उतरे हैं. इससे पहले दिवंगत प्रधान मंत्री चंद्रशेखर ने 1983 में जनता पार्टी के अध्यक्ष के रूप में अपनी प्रसिद्ध पदयात्रा की थी.
राहुल गांधी पहली बार वो रणनीति अपना रहे हैं जो उन्हें पहले करना चाहिए था: आम लोगों के पास जाकर उनसे जुड़ना और गांधी परिवार के सदस्य के रूप में बनी अपनी कुलीन छवि को दूर करने की कोशिश करना.
'भारत जोड़ो यात्रा' पांच महीने की लंबी मैराथन है. ऐसा लगता है कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ-साथ राहुल में भी इतना उत्साह पैदा हो गया है कि इसके बाद अब पूर्व से पश्चिम की ओर एक और पदयात्रा की बात हो रही है.
ऐसे में तुलना किए बिना, यह याद किया जा सकता है कि महात्मा गांधी ने भी कभी संगठनात्मक और प्रशासनिक मामलों का बोझ खुद पर नहीं डाला. महात्मा गांधी 1923 में सिर्फ एक साल के लिए कांग्रेस अध्यक्ष थे. बाकी उनका समय सत्याग्रह, मार्च, लोगों से जुड़ने और जन आंदोलन के निर्माण के लिए जमीन पर समय बिताने में गया. किसी के मन में कोई संदेह नहीं था कि महात्मा गांधी सबसे बड़े नेता थे और पार्टी अध्यक्ष से अधिक दबदबा रखते थे.
राहुल गांधी कांग्रेस को लोगों तक ले जाएं
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में खड़गे के नेतृत्व में राहुल गांधी को इस बात से डरने की जरूरत नहीं है कि पार्टी उनसे छीन ली जाएगी. राहुल गांधी हर दिन के मामले को खड़गे और उनकी टीम पर छोड़ सकते हैं, जबकि वह कांग्रेस को लोगों तक ले जाने और बेजान पड़ चुके संगठन में नई ऊर्जा भरने पर अपना ध्यान केंद्रित करें.
अगले आम चुनाव के लिए अभी भी दो साल बाकी हैं और राहुल गांधी के सामने कई ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें उन्हें सुलझाना है. राहुल गांधी को अपनी राह पर बने रहना होगा और बीच-बीच में राजनीति से 'गायब' हो जाने वाली आदत को पीछे छोड़ना होगा.
जाने या अनजाने, राहुल अलग अंदाज में दिख रहे हैं. यह तो समय ही बताएगा कि गांधी परिवार से बाहर के नेता का अध्यक्ष बनना ही कांग्रेस की संजीवनी है या यह फिर से हमेशा की तरह बस एक बदलाव है.
(आरती जेरथ दिल्ली बेस्ड एक सीनियर जर्नलिस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @AratiJ है. यह एक ओपनियिन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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