यह किसी जासूसी कथा जैसा रहस्यमयी है. ईरान के परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फखरीजादेह को एक खूबसूरत रिसॉर्ट में गोलियों से छलनी कर दिया गया- उनके सिक्योरिटी कवर के बावजूद. किसी ने उनकी हत्या की जिम्मेदारी नहीं ली, और शायद लेगा भी नहीं. लेकिन एक ‘अनाम’ इजराइली अधिकारी ने कहा है कि यह दुनिया इस हत्या के लिए ‘शुक्रगुजार’ रहेगी. इस टिप्पणी के बाद हत्या करने वाले को लेकर रही-सही आशंका भी खत्म होती है.
यह एक क्लासिक गुप्त अभियान था जिसके लिए ईरान और दूसरे देश आतंकवाद की दुहाई देते हैं. लेकिन पेशेवर तरीके से देखा जाए तो इसका मुकाबला कर पाना बहुत मुश्किल है. दिल्ली में सत्ता के गलियारे और खूफिया तंत्र में ऐसे कितने ही लोग हैं जो इस अभियान को ईर्ष्या भरी निगाहों से देखते हैं.
ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम पर एक नजर
ईरान का न्यूक्लियर प्रोग्राम शाह के समय से शुरू हुआ था, और वास्तव में आयतुल्लाह खोमैनी ने इसे खत्म किया था. अस्सी के दशक में पाकिस्तान और चीन के साथ समझौतों के बाद इसे फिर चालू किया. पाकिस्तान ने सेंट्रिफ्यूज की पहली खेप ईरान भेजी थी और फखरीजादेह वह शख्स थे जिसने पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम के संस्थापक अब्दुल कादिर खान के साथ डील की थी. तब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने उन्हें 2007 में प्रतिबंधित डब्ल्यूएमडी गतिविधियों के लिए नामित किया था.
2011 में उन्होंने ऑर्गेनाइजेशन फॉर डिफेंस इनोवेशन एंड रिसर्च बनाया, जिसने अमेरिका के मुताबिक, अघोषित न्यूक्लियर हथियारों की योजना को अपने हाथ में ले लिया.
ईरान ने इससे इनकार किया और इसे सिर्फ एनर्जी प्रोग्राम बताया लेकिन कई सालों की मुश्किल चर्चाओं के बाद उसने 2015 में जेसीपीओए (ज्वाइंट कम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ ऐक्शन) पर दस्तखत किए. उसके समर्थकों का कहना है कि इससे ईरान की क्षमताओं पर लगाम लग गई, जबकि विरोधियों का दावा है कि इससे ईरान को और छूट मिल गई.
इजराइल के गुप्त अभियान और कूटनीति
इजराइल सबसे बाद में यह मानने को तैयार हुआ कि ईरान अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम पर लगाम लगाएगा. 2010 से इजराइल पर सात न्यूक्लियर साइंटिस्ट्स की हत्या का आरोप है. 2018 से ईरान के अभियानों ने रफ्तार पकड़ी, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एकतरफा तरीके से जेसीपीओए से हाथ खींचा. तेहरान पर अब भी सबसे कठोर प्रतिबंध लगे हुए हैं.
- इस साल जनवरी में ईरान की अल कुद्स फोर्स के प्रमुख जनरल कासिम सुलेमानी पर अमेरिकी ड्रोन हमला हुआ, जोकि इजराइल के खूफिया तंत्र की मदद से किया गया था.
- फिर मई में इजराइल ने ईरान के परमाणु गोदाम पर छापा मारा और एक रात में कथित 1,10,000 दस्तावेजों को खोज निकाला.
- जुलाई में नातानज में एक सेंट्रिफ्यूज ठिकाने पर विस्फोट किया गया और साल के मध्य में, वह एक बड़े और जटिल कार्य में लग गया- वह अरब देशों को ईरान के खिलाफ एकजुट करने लगा.
- सितंबर में यूएई और बहरीन के साथ सितंबर पीस एग्रीमेंट किए गए.
- नवंबर में सऊदी और इज़राइल के बीच गुप्त बैठक की खबरें आईं. इसके बाद कोई खबर नहीं आई. लेकिन यह कदम अभूतपूर्व है.
हत्या का मकसद
सितंबर में इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी ने कहा था कि ईरान यूरेनियम को 4.5 प्रतिशत की शुद्धता तक संवर्धित कर रहा है, जबकि समझौते मे 3.67 प्रतिशत की अनुमति है. इस तरह तेहरान ने अमेरिका को अंगूठा दिखाया. लेकिन वह सावधान रहा क्योंकि इस संवर्धन के बावजूद हथियार बनाने के लिए 90 प्रतिशत संवर्धित यूरेनियम की जरूरत होती है. हां, सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस सलमान ने इसी के बूते ईरान के खिलाफ ‘निर्णायक कदम’ की अपील की, जबकि यह साफ हो चुका है कि नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बायडन जेसीपीओए में अमेरिका की वापसी करेंगे.
इस हत्या के बाद यह भी साफ है कि ईरान बदला लेगा. शायद इस हद तक कि हालात खराब हो जाएं. कोई विश्लेषण करे तो पता चल जाएगा कि 60 साल से ज्यादा उम्र वाले एक न्यूक्लियर साइंटिस्ट, जो अब सक्रिय भी नहीं था, की हत्या से न्यूक्लियर प्रोग्राम पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है. लेकिन इसका आशय, जरूर मायने रखता है.
कूटनीति और गुप्त अभियान के कारण ईरान के पास दो अवांछनीय विकल्प हैं. अगर वह इस हमले का बदला लेगा तो जेसीपीओए और प्रतिबंध हटने की उम्मीद लगभग खत्म होती है. अगर बदला नहीं लेता तो पड़ोसियों की गुटबाजी को देखते हुए वह अप्रासंगिक हो जाएगा.
पाकिस्तान पर लगाम कब?
इसके सामने दिल्ली का अपना खूफिया अभियान काफी खस्ताहाल लगता है. लश्कर ए तैय्यबा के चीफ हाफिज सईद और उसके कई लेफ्टिनेंट लग्जरी कारों से आते हैं और पुलिस वाले खुद उनकी अगवानी करते हैं. ट्रेनिंग कैंप चल रहे हैं और कश्मीर में घुसपैठ और आतंकी हमले भी. हमारी धार कुंद हुई है, नगरोटा साजिश और कई दूसरे मामले इसकी मिसाल हैं.
2014 से 2019 के बीच एलओसी पर गोलीबारी में नागरिकों सहित करीब 413 सैनिक शहीद हुए हैं. इनमें बच्चे भी शामिल हैं. फिर बाइडेन के पद संभालने के बाद ‘कश्मीर’ का मसला फैशन में आने की उम्मीद है. इसके बाद ईरान पर अधिक से अधिक प्रतिबंध लगाए जाने की आशंका है, जबकि पाकिस्तान अपनी न्यूक्लियर महत्वाकांक्षा और परमाणु प्रसार की नीति के साथ आसानी से दबे पांव निकल जाएगा.
बिल्कुल, पाकिस्तान पर फाइनेंशियल ऐक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) का काफी दबाव है. चीन के लिए उसका महत्व कम हो रहा है और अफगानिस्तान में उसका 22 साला अभियान बेमकसद हो गया है. हालांकि पाकिस्तान की नीतियों की असफलता का श्रेय हम नहीं ले सकते.
दरअसल हमें बचाव की नहीं, आक्रामक मुद्रा अपनानी चाहिए. भारत को इजराइली मॉडल के नकल की जरूरत नहीं. वैसे, इस बात में शक है कि वह नकल कर भी पाएगा. हम यह कर सकते हैं कि पाकिस्तान के परमाणु प्रसार को सार्वजनिक मंच पर प्रचारित करें. बताएं कि कैसे पाकिस्तान अपने हथियारों का जखीरा बढ़ा रहा है. बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन के मामलों पर विमर्श छेड़ें. यह नैतिक और कूटनीतिक रूप से जरूरी है. साथ ही ‘कश्मीर’ मुद्दे का रुख पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की खराब हालत की तरफ मोड़ें. कैसे वहां लोगों के पास मूलभूत अधिकार या इंटरनेट नहीं है.
यह सच है कि इजराइल का खूफिया अभियान ‘करो या मरो’ की रणनीति पर आधारित था जिसे उसकी भौगोलिक स्थिति के कारण संचालित करना संभव था. लेकिन एक बड़े और मुखर लोकतंत्र में यह दर्शाया जा सकता है कि वह बेहतर रणनीति अपना सकता है. बेशक, आतंकवादियों को निशाना बनाने से हताशा कम जरूर होती है लेकिन यह इतना आवश्यक नहीं. कई दूसरे तरीकों से भी एक नया नरेटिव गढ़ा जा सकता है.
(डॉ. तारा कर्था नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरियट की निदेशक रही हैं. इस समय वह आईपीसीएस में विशिष्ट फेलो हैं. वह @kartha_tara पर ट्विट करती हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विट न इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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